रेत पर दुख और पत्थर पर खुशियाँ उकेरें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

जा पाता हूँ। पर कई जगह जाना ही पड़ता है। 

यकीनन आप भी इस तरह के समारोह में जाते होंगे। आपने देखा होगा कि ऐसे मौकों पर लोग मिलते-जुलते तो सबसे हैं, पर धीरे-धीरे सबके सब अलग-अलग सीमित घेरे में सिमट जाते हैं। मसलन चार आदमी एक टेबल पर एक साथ बैठ जाएँगे, फिर दूसरा घेरा अलग बैठ कर खाना-पीना करता है, गप्प लड़ाता है। ऐसे आपसी नजदीकियों के हिसाब से लोग एक दूसरे के साथ हो लेते हैं। 

ज्यादातर समारोहों में मैंने ऐसा ही देखा है। 

कल मैं भी कुछ लोगों के साथ एक टेबल पर बैठा था। खाने-पीने का दौर चल रहा था। तभी मेरे कानों में किसी की आवाज़ पड़ी, “अरे फलाँ तो ऐसा निकला।”

दूसरे ने ग्लास मुँह से लगाते हुए कहा, “मुझे तो पहले से पता था। वो था ही ऐसा।”

वर-वधू मंच पर लोगों के साथ तस्वीर खिंचवा रहे थे। इधर ‘मनतंत्र’ की कहानियाँ चल रही थीं। ये तो मैं जिस टेबल पर था, वहाँ की कहानी है। मुझे लगता है कि दिल्ली की हल्की सर्दी में हर टेबल पर ‘मनतंत्र’ की कहानियाँ आकार ले रही होंगी। कहानियाँ भी कैसी? जो जिस टेबल पर नहीं है, उसकी कहानियाँ।

मैंने मिस्टर शर्मा को उस मिस्टर वर्मा के बारे में बोलते हुए सुना, जिनके बारे में मुझे पता था कि पिछले हफ्ते तक वो उनके गले में हाथ डाले घूमते थे। और आज यहाँ कह रहे थे, “अरे वो तो ऐसे निकले।”

मैं चुपचाप सुनता रहा। फिर मन में सोचने लगा कि सचमुच यह संसार अजीब ही है। 

शर्मा जी ने मुझे टोका, “अरे संजय जी आप कहाँ खोये हैं?”

कोई हँसा और कहने लगा ये तो अपनी कहानियों में खोये होंगे। मन ही मन सोच रहे होंगे कि कल कौन सी कहानी लिखेंगे। “है न संजय भाई!”

“आप सब एक-दूसरे के विषय में इतनी कहानियाँ सुना रहे हैं, इसी में से कोई लिख दूँगा।”

“अरे नहीं। ये क्या कह रहे हैं? ये तो ऐसी ही बातें चल रही हैं।”

***

“संजय भाई, छोड़िए इन बातों को। आप रोज अपने फेसबुक परिजनों को एक कहानी सुनाते हैं। टीवी पर भी कहानियाँ सुनाते हैं। एक कहानी आप हमें भी सुनाएँ।”

***

“ दो दोस्त कहीं नदी के किनारे में घूम रहे थे। अचानक किसी बात पर दोनों के बीच विवाद हो गया। जो दोस्त कुछ देर पहले गलबहियाँ किये टहल रहे थे, वो एक दूसरे के दुश्मन हो गये। बात बढ़ने लगी। अचानक एक दोस्त ने दूसरे दोस्त के गाल पर एक थप्पड़ रसीद दिया। 

बड़ा अजीब सा दृश्य हो गया। दूसरे दोस्त ने अपने दोस्त थप्पड़ तो खा लिया, पर उसने कहा कुछ नहीं। हाँ, उसने नदी के किनारे पड़ी रेत पर उंगलियों से लिख दिया, “आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने थप्पड़ मारा।”

उसका दोस्त उसका ऐसा करना देखता रहा। दोनों आपस में उलझते हुए आगे बढ़ते रहे। 

अचानक नदी के किनारे उसका वही दोस्त एक दलदल में फँस गया। जिस दोस्त ने अभी कुछ देर पहले उसे थप्पड़ मारा था, उसी ने उसके हाथ को थाम लिया और उसे उसे बचा लिया। 

अपने दोस्त के ऐसा करने पर उसने वहीं पास पड़े एक पत्थर पर खुरच कर लिखा, “आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मेरी जान बचाई।”

उसका दोस्त बहुत हैरान होकर सब देख रहा था। 

फिर उसने अपने दोस्त से पूछा कि यार, मैंने तुम्हें गुस्से में थप्पड़ मारा तो तुमने वहीं रेत पर लिख दिया कि मेरे दोस्त ने थप्पड़ मारा। और अब यहाँ पत्थर पर लिख दिया कि मैंने तुम्हारी जाना बचाई। ऐसा क्यों? वहाँ रेत पर क्यों लिखा, यहाँ पत्थर पर क्यों लिखा?

उसके दोस्त ने कहा कि जब कोई हमें दुख दे, तो हमें अपने उस दुख को मन के उसी कोने पर लिख कर छोड़ देना चाहिए, जहाँ हवा का एक झोंका आये, और उसे मिटा कर चला जाए। रेत पर लिखा मेरा दुख हवा के हल्के से झोंके से मिट जाएगा। पर जब कोई हमें खुशी दे, हमारा भला करे तो उस मन के पत्थर पर लिख देना चाहिए, ताकि वो सदा याद रहे। हवा का झोंका उसे मिटा न सके। 

तुमने मुझे थप्पड़ मारा, मैंने रेत पर लिख दिया, जो मिट गया। 

तुमने मेरी जान बचायी। मैंने उसे पत्थर पर लिख दिया, ताकि वो कभी न मिटे।”

***

आप क्या करते हैं?

अपने दोस्तों, अपने परिजनों की खुशियों की कहानी कहीं रेत पर और उनके दुखों की कहानी पत्थर पर तो नहीं उकेरते? ऐसा मत कीजिएगा। 

दुखों की कहानी रेत पर और सुख की कहानी पत्थर पर लिखिएगा। सार्वजनिक स्थलों पर हम कई बार अपने दोस्तों और परिजनों की वो कहानियाँ सुना बैठते हैं, जिन्हें हमें लगता है कि रेत पर लिख कर चले आए हैं, पर जरा गौर से देखिएगा, सोचिएगा कहीं वो पत्थर पर तो दर्ज नहीं हो रहा। अगर ऐसा हो रहा है, तो आप अपने सबसे अच्छे दोस्तों को धीरे-धीरे खोने लगेंगे। 

(देश मंथन, 05 दिसंबर 2015)

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