गरीब रथ की गरीब गाथा

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संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :

बहुत दिनों बाद एक शादी में शामिल होने के लिए दिल्ली से भागलुपर जाना तय हुआ तो रिजर्वेशन कराते हुए मैंने पाया कि यात्रा पूरी करने में सबसे कम समय गरीब रथ लगाती है।

नाम के कारण (गरीब नहीं, रथ – आज के जमाने में) इससे अभी तक यात्रा तो दूर मैंने लोगों से कह रखा था कि इससे आने वालों को लेने मैं स्टेशन नहीं आउंगा। पर अपनी बारी आई तो कम किराए में सबसे कम समय में यात्रा पूरी करने का लोभ मैं छोड़ नहीं पाया और 20 अप्रैल 2015 को आनंद विहार से भागलपुर जाने और 23 अप्रैल 2015 को चलकर वापस आने के लिए मैंने क्रम से 22406 और 22405 आनंद विहार भागलपुर गरीब रथ का टिकट ले लिया। सोमवार को जाना और शुक्रवार को आना पूरा सप्ताह खराब। शनिवार और रविवार का कोई उपयोग नहीं। सोचा था भैया से कहूंगा कि आगे से शादी की तारीख ऐसी हो कि साप्ताहिक छुट्टियों का भी उपयोग हो जाए। ये नहीं पता था कि इस बार भी उपयोग हो ही जाएगा। 

दिल्ली से भागलपुर जाने के लिए आनंद विहार स्टेशन पहुंचा तो पता चला कि बहुत से यात्रियों के बर्थ नंबर बदल गए हैं। इसका कारण बंद हो चुके इकनोमी श्रेणी वाले कोच का अघोषित उपयोग किया जाना था। यात्रियों को बर्थ नंबर बदलने की कोई सूचना नहीं थी और आरक्षण चार्ट में भी नहीं बताया गया था कि कंफर्म आरक्षण लेने वाले जिन लोगों के बर्थ नंबर बदले हैं उन्हें क्या करना है, कहां पता करना है या बर्थ नंबर बदल कर क्या हुए हैं। दो महीने पहले आरक्षण करवाकर निश्चिंत हो जाने वालों को गरीब होने का यह पहला अहसास कराया गया। खासकर उन लोगों को जो इंटरनेट से खुद टिकट नहीं लेते और रेलवे के आदेश के बावजूद टिकट लेते समय अपना मोबाइल नंबर नहीं डालते। वरना मुझे वेटिंग लिस्ट की टिकट कंफर्म होने और फिर सीट नंबरों की सूचना भी एसएमएस से मिल गई थी। ट्रेन चलने के बाद कई सीटों पर दो यात्री थे। एक चार्ट मे नाम के अनुसार एक अपने टिकट में लिखे नंबर के अनुसार। टीटी नदारद। मैंने अपने फोन पर देखकर लोगों को सीट नंबर बताए तो भीड़ छंटी, ट्रेन समय से चल पड़ी। 

टीटीई कहीं नहीं दिखा। बिना आरक्षण यात्रा करने वालों की संख्या बढ़ती गई पर रोकने-देखने वाला कोई नहीं था। रात होते-होते इनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि पुराने दिनों का जनरल कंपार्टमेंट हो गया। ना कोई टीटीई दिखा और ना कोई आरपीएफ का जवान। रास्ते में किसी को ठंड लग रही थी तो किसी को गर्मी। हद तो तब हुई जब एक यात्री ने कहा कि रात में लाइट बंद कर दी तो चोर सारा सामान ले जाएंगे। खैर यात्रा ठीक-ठाक पूरी हुई। 

लौटते समय इंटरनेट पर राइट टाइम होने का पता चला तो हम होटल का कमरा छोड़कर घर पहुंचे। यहां से रेलवे इंक्वायरी में फोन कर और फिर जाकर कंफर्म किया कि ट्रेन सात बजे जाएगी। होटल का एसी कमरा छोड़ने के बाद हम गर्मी में समय काटने के लिए मजबूर कर दिए गए थे। इंटरनेट पर यही बताता रहा कि ट्रेन सात बजे जाएगी और रेलवे इंक्वायरी का फोन मिला नहीं। सात बजे के हिसाब से हम पौने सात बजे स्टेशन पहुंचे तो पता चला टेन 8:30 पर जाएगी। हमने स्टेशन पर ही रुकना तय किया क्योंकि वापस घर जाकर आने में कोई खास समय नहीं मिलता। शाम बजे ट्रेन आई और ट्रेन आने की घोषणा के साथ ही यह भी बता दिया गया कि ट्रेन 9:00 बजे जाएगी। पूरा प्लैटफॉर्म क्षेत्र मानव मल की बदबू से भरा पड़ा था और यह हाल तब था जब इस स्टेशन को सफाई के लिए पुरस्कार मिला है। अब मानव मल की बदबू का सफाई से क्या लेना-देना। दोष तो उनका है जो स्टेशन क्षेत्र में बदबू फैलाने वाला काम करते हैं। ट्रेन आठ घंटे लेट होगी तो लोग भी क्या करें। 

ट्रेन मेरे सामने ही आई, प्लैटफॉर्म पर ही खड़ी रही, थोड़ी बहुत सफाई हुई जो किसी वयस्क रेल कर्मचारी ने नहीं, कूड़ा बीनने वाले अवयस्क लड़कों ने की। जाहिर है, ये किसी यूनिफॉर्म में नहीं थे और रेलवे के मुफ्त सेवक ही रहे होंगे। मैं इंतजार करता रहा कि उपयोग की जा चुकी चादरों का बंडल उतरेगा और साफ धुली सफेद चादरों का गट्ठर चढ़ेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। आखिरकार मैं ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन चल पड़ी कोई बेड रॉल देने या पूछने नहीं आया। लोगों ने खुद ही बेडरॉल उठाने शुरू कर दिए। ये, जाहिर है, उपयोग किए हुए और बिन धुले थे। टीटी से शिकायत की तो उसने किसी सीनियर का नाम बताया जो कई कोच में ढूंढ़ने पर भी नहीं मिले। सुबह पता चला कि जिन्हें मिले उन्हें नई चादरें दिलवा दी गई थीं। ऐसे में उनसे शिकायत करने का कोई मतलब नहीं था।

नसीब वाला हूं इसलिए बगैर बिछावन, ट्रेन में भी अच्छी नीन्द आती है। तिलचट्टों के साथ भी। वैसे तो ट्रेन में कीटों के नियंत्रण का काम सरकारी क्षेत्र के उपक्रम सेंट्रल वेयर हाउसिंग कॉर्पोरेशन को दिया हुआ है पर तिलचट्टे किससे डरते हैं। रात में खुसुर-फुसुर से नींन्द खुली तो पता चला कि पास की बर्थ पर अकेले यात्रा कर रही एक बिटिया रानी रात सवा दो बजे किसी से फोन पर खुसुर-फुसुर कर रही थीं। मैंने गौरव महसूस किया कि गरीब रथ में चलने वाली बेटियां भी अब रात दो बजे हिन्दी में बातें करने लगी हैं। खैर, मुझे ऐसी खुसुर फुसुर से कोई परेशानी नहीं होती है। जाते समय जब लाइट जला कर परिवार समेत यात्रा कर रहे बुजुर्ग और सारी रात फोन पर चली उनकी बातें झेल गया तो इस बिटिया से क्या तकलीफ। बिहार से आने वाली ट्रेन में बच्चे ना हों और शांत रहें ऐसा होता नहीं है इसलिए वो भी मेरे लिए मुद्दा नहीं है। 

सुबह फ्रेश होने के लिए यूरोपियन टायलेट खाली मिल गया। ये भी शायद गरीब रथ का ही कमाल था। पर वहां ना साबुन था, ना टॉयलेट पेपर और ना उसकी हालत उपयोग करने लायक। लेकिन मेंने टायलेट पेपर के रूप में उपयोग करने के लिए काफी अखबार रख लिए थे। इस तरह साधन संपन्न, मैंने शौंचालय की सीट को साफ करके शौंचालय का उपयोग कर लिया। अब ध्यान आया कि ट्रेन में पैन्ट्री कार नहीं है सुबह किसी स्टेशन पर नाश्ते के नाम पर कुछ बिक रहा था जिनलोगों ने ले लिया वो तो ठीक बाकी ऐसे ही रह गए। यह पता करने का कोई उपाय नहीं था कि हम कहां हैं। फोन और इंटरनेट चला कर पता करने की कोशिश करना सेवा मुहैया कराने वाले को दान देना ही था इसलिए मैं सोता रहा। उठा तो सोचा कि भारतीय रेल के साथ अपनी गरीबी की गाथा आप लोगों को भी बताऊं। 

चलती ट्रेन में टाइप करना मुसीबत है। बहुत सारी गलतियां थीं इसलिए पोस्ट नहीं कर पाया। इस बीच हमारी ट्रेन कानपुर रुककर बढ़ चुकी है। यहां यह ट्रेन 12 घंटे 20 मिनट लेट थी। भागलपुर से साढे आठ घंटे लेट चली ट्रेन पांच घंटे और जोड़ चुकी है। जय हो भारतीय रेल की। हम आपके अहमसान मंद हैं कि हमें आप ढो रहे हैं। मेरा तो खाना-पीना और भंडारण हो चुका है। अब ट्रेन आज रात में दिल्ली पहुंचाए या कल सुबह – की फर्क पैन्दा।

(देश मंथन 25-04-2015)

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