सत्संग के दुष्परिणाम

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

सु-कंपनी नामक सज्जन ने गुरु-घंटाल अकादमी की मासिक समस्या-सुलझाओ गोष्ठी में अपनी समस्या यूँ रखी-मेरा नाम सु-कंपनी है, मैंने हमेशा सज्जनता आचरण किया है। शास्त्रोक्त सूत्रों के मुताबिक मैंने हमेशा उन्हे ही मित्र बनाया, जिनकी सज्जनता को लेकर मुझे कभी कोई शक ना रहा।

एक दिन मेरे घर में तमाम डकैत घुस आये और वो मेरा सामान लूटकर ले गये। लुटा-पिटा मैं द्रव्य-हीन गया, मैं अपने सज्जन मित्रों के पास गया मदद की गुहार लगाता हुआ।

एक सज्जन मित्र बोला-देख मित्र, हम सज्जन लोग हैं, कतई ईमानदार, ऐसे बंदों की लंगोट भर बची रहे, काफी है, कुछ रुपया-पैसा बचाने की नौबत नहीं ना आ पाती। सो मैं सिर्फ सहानुभूति के अलावा कुछ भी आफर ना सकता। कई सज्जन मित्रों ने मुझसे मिलने से इस आशंका में इनकार कर दिया कि धन-विहीन सु-कंपनी कहीं हमसे रुपये-पैसे की हेल्प ना माँग बैठे। हे गुरु-घंटाल प्लीज बताइये, इतने सज्जनों के रहते भी मुझे कष्ट क्यों झेलना पड़ा, जबकि शास्त्रों में तो सज्जनों के सत्संग के बहुत फायदे गिनाये गये हैं।

इस पर दु-कंपनी नामक एक होनहार छात्र ने खड़े होकर कहा-हे सु-कंपनी सुन, सज्जनों का सत्संग और सज्जनों से मित्रता करने वाले वैसा ही संत्रास भोगते हैं, जैसा अंधेरनगरी के सत्संगवर्मन ने भोगा। 

सु-कंपनी ने इस पर उत्सुकतापूर्वक पूछा-हे दु-कंपनी उस सत्संगवर्मन की कथा क्या है, प्लीज हमारे ज्ञानार्थ कहो।

दु-कंपनी ने कहना शुरू किया-अंधेरनगरी में सत्संगवर्मन और कुसंगवर्मन दो मित्र थे। सत्संगवर्मन बचपन से ही सज्जनों के चक्कर में पड़ लिया और चरित्र, ज्ञान वगैरह की बातें ढकेलने लगा। दूसरी तरफ कुसंगवर्मन बचपन से ही चोरों, डकैतों, चरसियों और नेता-पुलिस की सोहबत में प्रवृत्त होने लगा।

सत्संगवर्मन ने अध्ययन के बाद कई परीक्षाएँ दीं। पर कई परीक्षाओं में वह इसलिए पास ना हो पाया कि उसके पास इंटरव्यू आदि में पास होने के लिए आवश्यक रिश्वत ना थी। ऐसी सूरत में आखिर में वह एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक की नौकरी करने लगा। सत्संगवर्मन के मित्र भी चूँकि सज्जन ही थे, इसलिए वे भी किसी प्रकार के धन और प्रभाव से हीन ही थे। उनके पास ले-देकर सिर्फ और खालिस सद्भाव ही था।

प्राइवेट स्कूल में शिक्षक की नौकरी में दयनीय अवस्था में जीवन व्यतीत करने वाले सत्संगवर्मन का जीवन तब और ज्यादा कष्टकारी हो गया, जब उसके एकमात्र पुत्र को पुलिस उठा ले गयी। पुलिस दरोगा ने ऐसे वचन कहे – मुझे अपराध निवारण सप्ताह में कुछ गुंडों की गिरफ्तारी दिखानी है। टारगेट है गुंडों की गिरफ्तारी का, सो टारगेट तो पूरा करना ही होगा।

सत्संगवर्मन ने गिड़गिड़ाते हुए कहा – मेरा पुत्र एकदम सज्जन है, सदाचारी है, उसकी गिरफ्तारी कैसे हो सकती है। 

पुलिस-दरोगा बोला – उसकी गिरफ्तारी इसलिए तो हो रही है कि वह सज्जन-सदाचारी है, अगर वह दुर्जन-दुराचारी होता, तो अब तो हमारा फ्रेंड हो चुका होता।

पुत्र की गिरफ्तारी से व्यथित सत्संगवर्मन ने अपनी व्यथा अपने सज्जन मित्रों से कही। सज्जन मित्रों में से एक ने भ्रष्टाचार पर मार्मिक भाषण दिया और फिर कहा कि चूँकि मैं सज्जन हूँ, इसलिए मेरा परिचय सिर्फ सज्जनों से है। जो पुलिस संबंधी में मसलों में कुछ भी ना कर पायेंगे, सिवाय चिंतन-परक भाषण देने के।

सज्जन मित्र नंबर टू ने कहा – मैं खुद सज्जनता-सच्चाई का शिकार हो रखा हूँ – मैंने अपने घर में एक नल लगवाना चाहा, तो नगर निगम का एक अफसर आकर बोला, पाँच लाख रुपये दे, तो तुझे आधी सड़क घेरने की इजाजत दे दूँगा, पर बिना रिश्वत के तो तुझ जैसे भले आदमी को अपने घर में एक नल भी ना लगाने दूंगा। अब मैं उसके सीनियर अफसरों को पाँच सौ पत्र लिख चुका हूँ, पाँच सौ पत्र और लिखने की योजना है।

सारे सज्जनों ने हाथ खड़े कर दिये, तब सत्संवर्मन नगर के एक चौराहे पर खड़ा-खड़ा रोने लगा। तब ही वहाँ से एक जुलूस गुजरा, जिसमें नारे लग रहे थे – हमारा नेता कैसा हो, कुसंगवर्मन जैसा हो। अरे, यह तो कुसंगवर्मन का जुलूस था। जीप पर कुसंगवर्मन सबका नमस्कार ले रहा था। कुसंगवर्मन ने जीप से ही देखा कि उसका पुराना मित्र सत्संगवर्मन रो रहा था। कुसंगवर्मन ने पुरानी मैत्री की खातिर अपना जुलूस रुकवाया और सत्संगवर्मन से पूछा – तू किस कारण रुदन कर रहा है। सत्संगवर्मन ने अपनी व्यथा-कथा बतायी। सत्संगवर्मन ने देखा कि जो पुलिस दरोगा उसके पुत्र को गिरफ्तार करके ले गया था, वही कुसंगवर्मन की सिक्योरिटी में तैनात था। कुसंगवर्मन ने उस दरोगा को बुलाकर मामले की पूछताछ की।

इस पर दरोगा ने बताया – सर अपराध निवारण हफ्ते में ऊपर से टारगेट दिये गये हैं, तो टारगेट गुंडों की गिरफ्तारियाँ तो दिखानी ही पड़ेंगी। सचमुच के गुंडों की गिरफ्तारी शुरू कर दी, तो सर आपके सारे दारु के ठेकों को मैनेजर, कर्ता-धर्ता, डांस-क्लबों के मैनेजर, आपके चुनाव प्रबंधक इन गिरफ्तारियों के लपेटे में आ जायेंगे। वह करना संभव नहीं है। इसलिए ढूंढ़-ढूंढ़ कर सज्जनों-सदाचारियों को गिरफ्तार कर रहे हैं।

कुसंगवर्मन ने दरोगा की समस्या भी बहुत गंभीरता से सुनी और कहा – ओके सत्संगवर्मन के पुत्र को छोड़ कर किसी सज्जन के पुत्र को गिरफ्तार करो, जो हमारे बचपन का मित्र ना हो, या जिसकी सिफारिश कहीं से भी ना आ सके।

जो हुकुम – ऐसा कहकर दरोगा ने सैल्यूट मारा और वह किसी खालिस सज्जन और किसी की भी सिफारिश से विहीन बंदे की गिरफ्तारी को निकल लिया।

यह कथा सुनकर सु-कंपनी ने दु-कंपनी के दंडवत प्रणाम करके कहा – हे ज्ञानश्रेष्ठि, आपकी कथा का मर्म समझ गया, जो मुझे करना चाहिए, वह कर्म समझ गया। मुझे आपकी कहानी से ये शिक्षाएँ मिली हैं-

1-सज्जन व्यक्ति के मित्र किसी काम के ना होते, क्योंकि वो भी सज्जन ही होते हैं।

2-सज्जन व्यक्ति के पास सिर्फ सद्भाव होता है, जिसका बाजार में कोई भी भाव ना होता है।

3-अब मदद करने की हैसियत में सिर्फ दुर्जन हैं, दुर्जनों के सहारे से वंचित सज्जनों का जीवन-यापन बहुतै मुश्किल हो लिया है।

(देश मंथन, 20 अप्रैल 2015)

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