संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरा मकान बदलना ही कुछ दिनों के लिए टल गया है। इसलिए फिलहाल चंद्रवती की कहानी का टल जाना भी लाजिमी है।
वजह?
मेरे कई पिता थे। उनमें से एक पिता का कल निधन हो गया। वो फिलहाल दिल्ली में ही थे और सुबह आप तक पोस्ट भेजने के बाद मेरे पास फोन आया कि पिताजी नहीं रहे।
आदमी किसी से कितना भी दूर रहे, पर मृत्यु शोक की खबर तो है ही।
मैं उनके पार्थिव शरीर से मिलने चला गया। फिर दुनिया की ढेर सारी रस्मों से गुजरने के बाद तय हुआ कि दिल्ली के लोधी रोड श्मशान में उन्हें जलाया जाएगा। इन सब में कल पूरा दिन निकला।
मेरा मन तो वैसे ही वैरागी है, कल श्मशान वैराग्य भाव से भी घिरा रहा।
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श्मशान घाट पर जा कर मुझे लगता है कि आदमी को पूर्व जन्म की घटनाएँ याद होनी चाहिए। फिर लगता है कि आदमी के जन्म का अर्थ अगर आत्म-शुद्धि है, तो पूर्व जन्म की घटनाओं का याद होने का सीधा अर्थ होगा कि हम उन गलतियों को नहीं दुहराएंगे, जिनकी सजा भुगतते हुए हम यहाँ आये हैं।
ऐसे में श्मशान पर बैठ कर मैं यही सोचता रहा कि ईश्वर बहुत सारे छल-प्रपंच का खेल इसलिए रचता है, ताकि हम भय वश नहीं, बल्कि स्वभाव वश खुद को दुरुस्त करें। आत्मा की शुद्धि तो तभी संभव है जब आदमी गलतियों को सुधार कर, समस्याओं को सुलझा कर और मुसीबतों का सामना करते हुए खुद को उस योग्य बना ले, जिससे उसे इह लोक से मुक्ति मिले, तो वो आगे बढ़ सके।
मुझे लगने लगा है कि मनुष्य का जन्म अपने आप में कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है। यह महज एक परीक्षा है, जिसमें पास होने के बाद हमें एक रैंक मिलता है, जिससे हमारा अगला भविष्य तय होता है। ठीक वैसे ही, जैसे हम ‘लोक सेवा आयोग’ की परीक्षा देते हैं, तो अधिक अंक लाने वाले को आईएएस मिलता है, उससे कम वाला आईएफएस, फिर आईपीएस और उसके नीचे ढेरों अलॉयल सर्विसेज। परीक्षा तो एक ही होती है, लेकिन इस एक परीक्षा से स्कूल-कॉलेज सारी पढ़ाई का निर्णय हो जाता है।
जिन्दगी भी ठीक इसी तरह है।
यहाँ हम अपने कर्म करते हैं, मृत्यु के बाद उसी हिसाब से वहाँ पोस्टिंग होती है।
कुछ लोग परीक्षा को ही जीवन मानने की भूल करते हैं, और इसका नतीजा होता है कि वो बार-बार परीक्षा देते रह जाते हैं।
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जिन्दगी को चलाने का आधार सिर्फ विज्ञान होना चाहिए। जो विज्ञान से दूर रहेगा, वो जीवन को नहीं समझ सकता। मुझे अब लगने लगा है कि जीवन-मृत्यु का संदेश देने वाली कुंजी पुस्तक ‘गीता’ को अब विज्ञान मान लेना चाहिए और कॉलेज के स्तर पर सबके लिए इसका पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। थोड़ा कम या थोड़ा अधिक, लेकिन शरीर और आत्मा के खेल को समझना अब ज़रूरी है।
सचमुच शरीर है, शरीर नहीं रहेगा। पर आत्मा रहेगी।
इसके रहने का अर्थ समझना ही असल मायने में जिन्दगी को समझना होगा। अभी तो हम और आप जितना समझ रहे हैं, वो नर्सरी कक्षा से अधिक कुछ भी नहीं। पर कोशिश कीजिए। एक कोशिश बनती है, यह समझने की कि आखिर जीवन है क्या? इसके होने और नहीं होने में फर्क क्या है?
मुझे नहीं लगता कि यह बहुत मुश्किल परीक्षा है, इसलिए मुझे यकीन है कि इसे पास भी किया जा सकता है।
दरअसल इसे पास किए बिना गुजारा भी नहीं। इस जन्म में कीजिए या अगले जन्म में या फिर उसके भी अगले जन्म में।
जब-जब मैं मन के इस भाव से गुजरता हूँ, मेरे पास कहने को बहुत कुछ होता है, पर रुक जाता हूँ कि कैसे कहूँ?
मैं कोई ज्ञानी बाबा नहीं हूँ, पर इतना मैं आपको स्पष्ट बता सकता हूँ कि जीवन का अर्थ है आध्यात्मिक रूप से उन्नति करना। क्यों है, यह कभी न कभी बताऊँगा। पर आज नहीं।
आज तो मैं निकल रहा हूँ अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने। उसे मुक्ति दिलाने, जिसका मैं नुमाइंदा हूँ, इस संसार में।
ध्यान रहे, हम सभी किसी न किसी के नुमाइंदे हैं इस संसार में।
(देश मंथन, 02 मई 2016)