परिस्थिति से डिगे नहीं, लक्ष्य पर रखें निगाहें

0
227

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कई लोगों ने कहा कि मुझे आज रणबीर कपूर पर कुछ लिखना चाहिए। रणबीर कपूर के विषय में इसलिए क्योंकि कल वो हमारे दफ्तर आये थे और उनसे मेरी मुलाकात हुई थी।

मुझे रणबीर कपूर पर लिखना चाहिए, खास कर इसलिए क्योंकि इस समय बॉलीवुड के वो सबसे शालीन सितारा पुत्रों में से एक हैं। प्रेमचन्द ने जिस तरह अपनी एक कहानी में बड़े घर की बेटी का जिक्र किया था और साबित किया था कि बड़े घर की परवरिश का मतलब क्या होता है, उसी तरह मैं साबित कर सकता हूँ कि रणबीर कपूर से मिल कर कोई भी सहज अन्दाजा लगा सकता है कि असल में खानदानी होना क्या होता है। 

मैं राज कपूर से मिल चुका हूँ, ऋषि कपूर से मिल चुका हूँ और रणबीर कपूर से मिलता हूँ। मिलने को तो मैं कपूर खानदान के ज्यादातर कलाकारों से मिला हूँ और एक दफा मैंने मॉस्को में शशि कपूर से हुई मुलाकात पर एक पोस्ट भी लिखी थी। जब मैं राज कपूर से मिला था, तब वो दिल्ली के आँल इन्डिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्स (एम्स) में भर्ती थे और कौमा में थे। तब मेरी जनसत्ता में नई-नई नौकरी लगी थी और राज कपूर उसी साल दादा फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आए थे। फाल्के अवार्ड लेने के दौरान ही वो गिरे और फिर कभी उठ नहीं पाये। उन दिनों मैंने एम्स के पास किदवई नगर में ही रहना शुरू किया था और आते-जाते पत्रकार होने का फायदा उठा कर एम्स के चक्कर लगा लिया करता था। क्योंकि राज कपूर की हालत बहुत खराब थी, इसलिए ढेरों बॉलीवुड वाले वहाँ एक तरह से अन्तिम दर्शन के लिए आया करते थे। मुझे नहीं याद कि तब रणबीर वहाँ आये थे कि नहीं, क्योंकि तब वो आठ-नौ साल के रहे होंगे। लेकिन ऋषि कपूर लगातार पिता के पास बने हुए थे। 

ऋषि कपूर से मेरी कई मुलाकतें हुई हैं। वो बेहद मूडी व्यक्ति हैं। लेकिन अपने चाहने वालों के जबर्दस्त कद्रदान हैं। मैं कभी न कभी ऋषि और नीतू सिंह पर एक पोस्ट जरूर लिखूँगा। उससे पहले एक पोस्ट रणबीर पर भी लिखूँगा। ये लिखूँगा कि रणबीर कैसे बाकी स्टार पुत्रों की तुलना में अलग हैं। ये भी लिखूँगा कि समय ने कैसे उन्हें परिपक्व बनाया है। और ये लिखना भी बनता ही है कि वो इस सच को बहुत पहले समझ गये थे कि संसार में परिश्रम के सिवा कामयाबी का दूसरा कोई रास्ता नहीं होता। सब लिखूंगा, लेकिन आज नहीं। 

आज मैं कल की अपनी पोस्ट पर आई एक टिप्पणी पर रुक कर उस कहानी को आगे बढ़ाना चाहता हूँ, जिसे माँ ने ही सुनाई थी।

सबसे पहले कल की टिप्पणी पर गौर फरमाएँ – कल मेरी पोस्ट पर Vasudha Sharma ने लिखा, “अगर लक्ष्मी दस्तक दें तो ये केवल इंसान खुद जानता है कि वह क्या करेगा। वैसे भी नैतिकता की असली परीक्षा तो तब होती है, जब कोई देखने वाला न हो।”

कल मैंने राजा और पुजारी की कहानी लिखी थी। लिखा था कि कैसे पुजारी ने राजा को समझाया कि अगर लक्ष्मी दस्तक दें, तो बन्द मन्दिर कभी भी खुल सकता है। आप लोगों ने उसे अपने-अपने तरीके से समझा और अलग-अलग संदर्भ में उस पर प्रतिक्रिया जताई। मैंने तो माँ से सिर्फ इतना भर पूछा था कि क्या सचमुच पैसे से सबकुछ हो जाता है, तो माँ ने मुझे कोई जवाब देने की जगह वो कहानी सुना दी थी। 

उस कहानी को सुन कर मेरे मन में भी ये सवाल उठा था कि क्या अगर कोई देखने वाला न हो तभी नैतिकता की असली परीक्षा होती है।

“माँ, ये कैसे तय होता है कि किसी के मन में धन के लिये या किसी भी चीज के लिए लोभ जागा या नहीं?”

आपको तो पता ही है कि मेरी माँ अगर रिश्तों की फेसबुक थी, तो वो चलती-फिरती गूगल भी थी। 

माँ ने मेरे सवाल का जवाब गुरु नानक की कहानी से दिया। 

“संजू बेटा तुमने गुरु नानक का नाम तो सुना ही है।”

“हाँ माँ।”

“तो गुरु नानक के सामने आखिरी दिनों में ये उलझन आ खड़ी हुई कि वो अपनी गद्दी की विरासत किसे सौंपें। गुरु नानक के बड़े पुत्र श्रीचन्द खुद बहुत महान सन्त थे और वो चाहते थे कि उनके पिता वो विरासत उन्हें सौंपें। बड़ी विचित्र स्थिति थी। पिता के सामने भारी उलझन थी। गुरु नानक वंश परंपरा में यकीन नहीं करते थे। वो अपनी विरासत उस व्यक्ति को सौंपना चाहते थे जो सचमुच उस योग्य हो, सिर्फ पुत्र होने के आधार पर वो कुछ नहीं देना चाहते थे। 

एक दफा गुरु नानक अपने कुछ शिष्यों के साथ कहीं बाहर निकले। नानक आगे -आगे और शिष्य पीछे-पीछे। अचानक गुरु ने एक सिक्का पीछे की ओर उछाला। एक शिष्य उस सिक्के के पीछे लपका। गुरु ने उसे यात्रा से बाहर कर दिया। उन्होंने फिर एक सिक्का उछाला। एक और शिष्य उस सिक्के की ओर लपका। गुरु ने उसे भी निकाल दिया। 

इस तरह काफी शिष्य उस यात्रा से निकल गये। उस यात्रा में उनका पुत्र भी था। अचानक गुरु नानक ने सोने का एक सिक्का पीछे की ओर उछाला। गुरु नानक के पुत्र श्रीचन्द ने सोने का सिक्का देखा तो उसे उठा लिया और उसे पास ही खड़े कुछ गरीबों को दे दिया। गुरु नानक ने श्रीचन्द को भी उस यात्रा से हटा दिया। जब श्रीचन्द को हटाने की बात आई तो श्रीचन्द ने पिता से पूछा कि उन्हें क्यों हटाया जा रहा है। गुरु नानक ने कहा कि तुमने उस सिक्के को उठाया इसलिए। 

श्रीचन्द ने कहा कि आप जानते हैं कि मेरे मन में सिक्के को लेकर कोई लोभ नहीं था। मैंने तो उस सिक्के को उठा कर सिर्फ उन गरीबों को दे दिया, जिससे उनके कई दिनों के खाने का इन्तजाम हो गया होगा। 

गुरु नानक ने श्रीचन्द की पीठ पर हाथ फेरा और कहा कि बेटा इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा दिल करुणा और ममता से भरा है, लेकिन इस यात्रा में तुम्हारा ध्यान उस सिक्के की ओर गया यही तुम्हारी गलती है। परिस्थिति चाहे जो हो, जिनकी निगाहें लक्ष्य से डिगती नहीं, जिन्हें किसी और घटना का भान तक न हो, वही सच्चा साधु होता है। तुम एक यात्रा पर निकले थे। चाहे कोई देखे या न देखे, चाहे मकसद कुछ भी हो, पर नैतिकता की असली परीक्षा तभी होती है जब मन हर ओर से एकाग्र और सन्तुलित हो। जब मन से पुण्य की इच्छा भी खत्म हो जाए, भगवान को पाने की चाहत भी चाहत बन कर न रह जाए तभी आदमी इस सफर में उतीर्ण होता है। 

और गुरु नानक ने अपनी विरासत अपने पुत्र को नहीं, अपने शिष्य लहना जी को अंगद नाम रख कर सौंप दी।”

माँ की एक खासियत थी। वो कहानी सुना कर चुप हो जाती और शायद मन में इस बात का इन्तजार करती कि मैं कोई टिप्पणी करुँगा, जिससे वो अन्दाजा लगाने की कोशिश करती कि मैं उसके कहे के मर्म को समझ रहा हूँ या नहीं। 

मैंने कहानी सुन कर सिर्फ इतना कहा था कि माँ तुमने मेरी उस शँका का समाधान अभी कर दिया है, जिसे भविष्य में मेरी एक फेसबुक परिजन मुझसे पूछने वाली है। माँ मुस्कुराई थी। 

उसने किसी कवि का हवाला देते हुए मुझसे इतना कहा था-

“गुरु नानक की बात में, बात-बात में बात, 

ज्यों मेंहदी के पात में, पात-पात में पात।”

(देश मंथन, 14 मई 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें