रिश्तों की फसल लहलहाएगी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

कानपुर में मेरे एक ताऊजी रहते थे। बड़ा सा बंगला था और पूरा परिवार संयुक्त रूप से रहता था। दद्दा, ताऊजी, ताईजी, उनके बच्चे। इत्तेफाक से मेरी बड़ी मौसी भी उनके पड़ोस में ही रहती थीं। मौसी के साथ उनकी देवरानी भी थीं। तो इस तरह ताऊजी के बच्चे, मेरी मौसी के बच्चे और मौसी की देवरानी के बच्चे सब साथ पल रहे थे। 

जब कभी हम ताऊजी के घर जाते, मुझे दद्दा की एक आदत बहुत अच्छी लगती। हालाँकि तब मैं बहुत छोटा था, पर मैंने यह देखा था कि दद्दा सुबह उठ कर बरामदे में कुर्सी पर बैठ जाते और किसी एक बच्चे से कहते कि आज का अखबार पढ़ कर सुनाओ।

दद्दा अंग्रेजों के जमाने में कानपुर के डिप्टी कलेक्टर थे, और जब मैं उनकी जिन्दगी में आया था, तब वो रिटायर हो चुके थे। खैर, मुझे जो बात बतानी है, वो ये कि दद्दा सुबह तैयार होकर कुर्सी पर बैठ जाते और अखबार में छपी खबरें ध्यान से सुनते।

था तो मै छोटा, पर मेरे मन में सवाल ढेरों उठते थे।

एक दिन मेरा नंबर आ गया अखबार पढ़ने का। मैं दद्दा के सामने पहुँचा, पाँव छूकर प्रणाम किया और जोर-जोर से अखबार पढ़ने लगा।

एक से बढ़ कर एक ऊबाऊ खबरें।

“इंदिरा गाँधी ने जेपी को जेल में बंद करा दिया। जगजीवन राम कांग्रेस छोड़ गए।” और न जाने कौन-कौन सी खबरें।

मैं चक्कर में था कि किसी तरह जल्दी मुक्ति मिले तो जरा अपने चचेरे, मौसेरे भाइयों के साथ बैडमिंटन खेल आऊं। पर दद्दा छोड़ ही नहीं रहे थे।

आखिर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने दद्दा से पूछ ही लिया कि आप रोज सुबह किसी एक बच्चे से कहते हैं कि अखबार में छपी खबरें पढ़ कर सुनाओ। क्या आप खुद अखबार नहीं पढ़ सकते? दद्दा मेरी ओर देख कर मुस्कुराए।

उन्होंने पास बिठा कर एक कहानी सुनाई।

मुझे यकीन है कि आपने ये कहानी बहुत बार सुनी होगी। पर आज मेरी कहानी प्रासंगिक है।

प्रसंग बाद में, पहले कहानी।

एक बार एक साधु अपने शिष्य के साथ किसी के घर भीख माँगने पहुँचा। घर में कोई नहीं था। एक छोटी सी बच्ची थी। बच्ची ने बाहर आकर साधु से कहा कि महाराज, मैं अकेली हूँ। घर में खाने की चीज भी नहीं पड़ी। मैं आपको कुछ नहीं दे सकती।

साधु मुस्कुराए। कहने लगे, “ऐसा नहीं कहते, बेटी। कोई तुम्हारे पास कुछ माँगने आ जाए, तो तुम्हें मना नहीं करना चाहिए।”

“पर बाबा, मैं क्या दे सकती हूँ?”

“कुछ नहीं है तो तुम अपने आँगन से धूल उठा कर मुझे दे सकती हो। तुम्हारा यह दान भी व्यर्थ नहीं जाएगा।”

बच्ची आँगन में गयी और एक मुट्ठी धूल लाकर साधु के कटोरे में डाल दी।

शिष्य सब कुछ देख रहा था। जब साधु वहाँ से बाहर निकले तो शिष्य ने उनसे पूछा कि महाराज, आपने कटोरे में धूल क्यों ली? इससे क्या फायदा?

साधु ने बहुत संयत हो कर कहा, “बेटा, उस लड़की के घर आज कुछ नहीं था देने के लिए। पर उसे दान देने की आदत तो पड़ी। आज नहीं है, पर कभी तो होगा। और जब भी उसके पास होगा, उसे दान देने में तकलीफ नहीं होगी।”

इतना कह कर दद्दा ने मेरी पीठ पर हाथ फेरा और कहने लगे कि मैं पढ़ सकता हूँ। मैं रेडियो पर भी खबरें सुन सकता हूँ। पर यह तुम्हारे लिए है कि तुम्हें रोज सुबह अखबार पढ़ने की आदत पड़ेगी। मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए तुमसे अखबार पढ़वाता हूँ।

***

संजय सिन्हा रोज आपके लिए रिश्तों की कहानियाँ लेकर आते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इन बातों से क्या फर्क पड़ने वाला है? फर्क पड़ेगा। आज नहीं, पर कभी न कभी रिश्तों की फसल लहलहाएगी। आज नहीं, कभी न कभी नफरत की दीवारें टूटेंगी। आज भले कुछ लोग न समझें कि नफरत की कोख से सिर्फ शोक और दुख का जन्म होता है, पर कभी न कभी वो समझेंगे।

आज भले कुछ लोग नफरत की धूल छाँटें मेरी पोस्ट से, पर मुझे यकीन है कि एक दिन वो भी मेरी पोस्ट से मुहब्बत के फूल चुनने लगेंगे। 

दद्दा ने तब आदत लगाई थी, मैं आज भी सुबह उठ कर सबसे पहले अखबार पढ़ता हूँ।

दद्दा की कहानी कितनी सच्ची थी, नहीं जानता, पर मुझे लगता है कि जिस लड़की ने साधु के कटोरे में एक मुट्ठी धूल डाली थी, आज वो दोनों हाथों से लोगों को खुशियाँ बाँट रही होगी। आज कोई उसके दरवाजे से खाली हाथ नहीं जाता होगा।

(देश मंथन 19 जुलाई 2016)

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