मन चंगा तो कठौती में गंगा

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक : 

एक बार एक व्यक्ति की शिकायत हुई कि वो बहुत गाली देता है। 

शिकायत की सुनवाई के लिए उस व्यक्ति को बुलाया गया। उसे बताया गया कि तुम अपनी बातचीत में बहुत गाली देते हो। व्यक्ति भड़क गया। उसने बिगड़ते हुए कहा, “कौन साला, कुत्ते का बच्चा कहता है कि मैं बहुत गालियाँ देता हूँ। तुम एक भी ऐसा आदमी लेकर आओ, जो ये कह सके कि मैंने कभी किसी को गाली दी हो। ये मेरे खिलाफ सरासर झूठा आरोप है।”

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चौधरी देवीलाल तब देश के उप प्रधानमंत्री थे। मैं जनसत्ता में नौकरी करता था। 

एक सुबह अरुण शौरी, जो इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक थे, ने एक खबर छापी, जिसमें देश के उप प्रधानमंत्री की बातचीत का हवाला दिया गया था। देवी लाल ने बातचीत में कई बार बहन की गाली का इस्तेमाल किया था। 

सुनने और पढ़ने में बड़ा अजीब लगा था। मुझे पूरी उम्मीद है कि देवीलाल की छवि को उससे काफी नुकसान भी पहुँचा होगा।  बहुत दिनों बाद जब देवीलाल उप प्रधानमंत्री नहीं रहे, तब मेरी मुलाकात उनसे हुई। हम काफी देर तक आपस में बात करते रहे। मैंने उनसे उन गालियों के विषय में भी बात की। देवीलाल मुस्कुराने लगे। उन्होंने कहा कि अब ऐसे किसी की बात को रिकॉर्ड करके कोई कहीं छाप दे, तो कोई क्या कर सकता है। पर हम तो आपस में घर में ही, दुलार में भी ऐसे ही बात करते हैं। उन्होंने तब यही बात कही थी कि भाव महत्वपूर्ण होता है। पत्रकारों का क्या है, जब जो चाहो उगलवा लो और फिर अपने फायदे के हिसाब से उसे चमका दो। अरे मैंने गाली थोड़े न दी थी। गाली शब्द नहीं, भाव है। उन्होंने बताया कि मेरे विषय में जो छापा गया था, वो हमारे लिए तकिया कलाम है। मैं जब फोन पर बात कर रहा था, तब मैंने यही सोचा था कि मैं तो अपने एक दोस्त से बात कर रहा हूँ। अब दोस्त से बात करने में आदमी सहज रहता है, तो जो मुँह में आया बोल दिया। 

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जब मैं छोटा था तब मैंने भी एक बार एक बच्चे को गुस्से में साला कहा था। 

उसने मेरे घर में शिकायत की थी। पिताजी ने मुझे पास बुला कर पूछा था कि तुमने उसे गंदी बात क्यों बोली? मैंने बहुत मासूमियत से जवाब दिया था कि साला कहने में बुराई क्या है? आप भी तो सबसे मेरे मामा के लिए यही कहते हैं कि वो मेरे साला हैं। पिताजी ने मुझे समझाया कि तुम्हारे मामा तुम्हारी माँ के भाई हैं। इस तरह वो रिश्ते में मेरे साला हुए। पर तुमने जिसे साला कहा है, वो तुम्हारी पत्नी का भाई थोड़े न है? तुमने उससे जो कहा है, वो रिश्तेदारी नहीं, गाली है। और अगर तुम रिश्ते का तर्क ही देना चाहते हो, तो तुम उसे भैया बोल देते। तुमने उसे साला बोला। इस शब्द को बोलते समय तुम्हारे मन में कहीं न कहीं गुस्से का भाव रहा होगा। और तुमने बाकी बच्चों के मुँह से सुना होगा कि वो गुस्से में ऐसे शब्द बोलते हैं, तो तुमने बोल दिया। जब बहुत दिनों बाद तुम्हारी शादी हो जाएगी, तुम्हारा भी साला होगा, तब तुम उसे साला कह कर बुलाओगे तब भी वो बुरा नहीं मानेगा। पर आज जो तुमने कहा है, उसमें तुम्हारा भाव ठीक नहीं था। ऐसे में रिशतों का वही शब्द गाली बन गया। तुम उस बच्चे से सॉरी बोल दो। वादा करो कि अब कभी अपना मन गंदा नहीं करोगे। 

मन क्यों? जुबाँ क्यों नहीं? जुबाँ गंदी नहीं होती। मन गंदा होता है तो जुबाँ उसका वाहक बन जाती है। अच्छे मन से गंदी बात निकल ही नहीं सकती। अगर मन साफ नहीं हुआ, तो जुबाँ भले गंदी बात न बोले, पर मन ही मन तो आदमी गालियाँ दे ही सकता है। असल चीज है, मन से गाली का नहीं निकलना।

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कल मैं पटना में था। एक शादी में शामिल होने गया था। शादी के बाद लड़की वालों के घर भात-दाल खाने का निमंत्रण था। हमें घर के आंगन में बैठाया गया। खाने के लिए पत्तल लगा। अभी खाना शुरू ही हुआ था कि सामने बैठी महिलाओं ने गाना गाना शुरू कर दिया। सारी महिलाएँ, हम सबके नाम ले लेकर एक स्वर में गाली गा रही थीं। संजय की बहन, अजय की माँ और न जाने किनकी मौसी, बुआ, फूफा, चाचा सभी रिश्तों के नाम लेकर खूब सारी गालियाँ गायी गयीं। खाना खाने वाले सारे मर्द गालियाँ सुनते रहे और मजे में आनंद लेकर खाते रहे। बिहार में शादी पर ये भी एक रस्म है। मैं सुर में गालियाँ सुनता रहा और बीच-बीच में रिकॉर्ड भी करता रहा। इतनी गंदी-गंदी गालियाँ दी गयीं, पर किसी को गुस्सा नहीं आया। जानते हैं क्यों? क्योंकि किसी का मन गंदा नहीं था। मुझे पिताजी की कही बात याद आई, जुबाँ गंदी नहीं होती, मन गंदा होता है। जुबाँ तो मन का वाहक है। उस शादी में जो निकल रहा था, उसमें खुशी और मजाक का पुट था।मतलब असली चीज है मन।

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इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन आता है, जिसमें राजस्थान के किसी राज घराने में रोने के लिए रुदालियों को बुलाया गया है। नाम से ही साफ है कि रुदाली यानी रोने वाली। मतलब रोने के लिए किराए पर महिलाओं को बुलाया जाता है। ये महिलाएँ समूह में बैठ कर रोती हैं। पर टीवी पर जो विज्ञापन आता है, उसमें वो सारी महिलाएँ ठीक से रो नहीं पा रहीं। वो जब रोने की कोशिश करती हैं, तो उनके मुँह से गाने के सुर निकलते हैं। उनके रोने में क्रंदन नहीं, खुशी है। आखिर में घर का मालिक उस व्यक्ति पर चिल्ला पड़ता है कि ये कैसी रुदालियों को तुम बुला लाये हो। इन्हें तो रोना भी नहीं आता। उन्हें भगा दिया जाता है। रुदालियों की हेड अपनी रुदालियों पर बिगड़ती है, तो सारी रुदालियाँ उन्हें बतलाती हैं कि वो एक खास रेडियो सुनती हैं, इसलिए उन्हें रोना आता ही नहीं। वो हमेशा खुश रहती हैं। 

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यही सच है। रोना, हंसना, दुखी रहना और खुश होना ये सब व्यक्ति के मन पर निर्भर करता है। अगर कोई मुझसे कहता है कि उसे किसी तरह का दुख है, तो मैं उसे समझता हूँ कि दुख कुछ नहीं होता। ये मन का एक भाव है। मन को हम जैसा चाहने देते हैं, मन वैसा चाहने लगता है। मन ही भाव है। और न सिर्फ अपनी जिन्दगी में, बल्कि आपसी व्यवहार में भी यही भाव ही खुशी का सबसे बड़ा आधार है। सारे रिश्ते-नाते इसी भाव पर की नींव पर टिके होते हैं। मन चंगा तो कठौती में गंगा। 

(देश मंथन 22 जनवरी 2016)

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