संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बहुत साल पहले हम पटना से भोपाल एक शादी में शामिल होने गए थे। मैं, मेरा छोटा भाई, मेरी बहन, मेरे चचेरे, ममेरे, फुफेरे और ढेरों भाई-बहन हम वहाँ उस शादी में मिले थे। हम बच्चों का दिल आपस में ऐसा लग गया था कि हमें लगता था कि ये शादी कभी खत्म ही न हो।
शादी अपने तय दिन हुई। बारात की विदाई भी अपने तय समय पर हुई। धीरे-धीरे सभी रिश्तेदारों के जाने का समय भी आ गया।
तय समय पर हमें भी भोपाल से पटना के लिए निकलना था। हमारी ट्रेन अगले दिन सुबह थी।
मेरा यकीन कीजिए हम सारे बच्चे सारी रात नहीं सो पाये। हम ढेर सारे बच्चे एक कमरे में पूरी रात बैठे रहे। हमें लगता रहा कि हमें जुदा क्यों होना पड़ रहा है। हम फिर कब मिलेंगे। और जब सुबह हम घर से स्टेशन के लिए निकले, तो हम सभी बच्चे रो रहे थे।
मैं, मेरा छोटा भाई और मेरी बहन हम तीन तो साथ ही निकले थे, भोपाल से पटना के लिए।
हमारी ट्रेन भोपाल से कटनी स्टेशन तक की थी। फिर वहाँ से दूसरी ट्रेन हमें मिलनी थी पटना के लिए।
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ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी। हम तीनों अपनी-अपनी सीट पर चुपचाप बैठे थे। पिताजी बार-बार पूछ रहे थे कि तुम लोग खामोश क्यों हो? उन्होंने महसूस कर लिया था कि हम किसी से बात नहीं कर रहे। सबके सब अपनी यादों में खोये बैठे हैं। उन्होंने कई बार हमसे खाने के लिए पूछा पर हम चुप बैठे रहे। हम में से हर किसी का दिल भोपाल में बाकी बच्चों के बीच अटका था।
पिताजी ने कई बार समझाया कि हम जल्दी ही फिर भोपाल चलेंगे। तुम लोग फिर आपस में मिल पाओगे। ऐसे परेशान मत दिखो। पर बच्चों का दिल तो बच्चों का ही होता है। वो बड़ों की तरह समझदार कहाँ होता है।
सच तो ये है कि भोपाल की उन यादों का हैंगओवर कभी उतरा ही नहीं। बाद में भी जब हम भाई-बहन आपस में बातें करते, तो भोपाल की उन मधुर यादों को याद करके रो पड़ते थे।
हम पटना पहुँच गये थे, पर हम बहुत दिनों तक सामान्य नहीं हो पाये थे। जो भी हमसे मिलता, समझाता कि उन यादों से बाहर निकलो।
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चार दिन बीत गये हैं, जब हम हरदोई गये थे। पिछले चार दिनों से रोज हरदोई की ही चर्चा चल रही है। मुझसे कई लोग कह चुके हैं कि संजय सिन्हा अब हरदोई से बाहर निकलो।
“कैसे निकलूं?”
“तुम पागल हो, संजय। इतना इमोशनल होना ठीक नहीं। जहाँ-तहाँ रोने लगते हो। जहाँ जाते हो, दिल दे बैठते हो। इस तरह जिन्दगी नहीं चलती। तुम रोज-रोज हरदोई, हरदोई करोगे तो लोग तुम्हें पढ़ना ही छोड़ देंगे। इस हैंगओवर से बाहर निकलो, संजय।”
चलिए, मैं पागल हूँ। मैं अति भावुक हूँ। मुझे कहीं भी रोना आ जाता है। पर Shambhunath Shukla तो पागल नहीं। Shailendra Singh भी पागल नहीं। Shiksha Dwivedi भी पागल नहीं।
और तो और Rakesh Pandey, Urmila Shrivastava, अशोक कुमार शुक्ला, Prashant Pathak, Bharat Pandey, मुकेश पांडे समेत हरदोई के एक हजार लोग तो पागल नहीं। फिर वो #ssfb family मुलाकात के हैंगओवर से बाहर चले आये क्या?
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जब आप नफरत में होते हैं, तो आप बेचैन होते हैं। नफरत की यादें आपका चैन हर लेती हैं। आप उन यादों से निकलना चाहते हैं। पर जब आप मुहब्बत में होते हैं, तो आप खुद में खो जाते हैं। आप उन यादों को बार-बार याद करते हैं, जिनसे आपको सुकून मिलता है। बुरी यादों से बाहर निकलने की सलाह दी जाती है, अच्छी यादें तो मन की किताब में दस्तावेज बन जाती हैं।
पहले मुझे लगता था कि मैं ही अकेला रोने वाला पागल हूँ। पर मैंने बार-बार उर्मिला माँ को रोते देखा है। मैंने शैलेंद्र सिंह को रोते देखा है। दुनिया की निगाहों में बहुत रफ-टफ शंभूनाथ शुक्ला को रोते देखा है। मैंने भरत पांडे, अशोक शुक्ला, राकेश पांडे और उन तमाम लोगों को रोते देखा है।
मैं बहुत बार अपने बड़े भाई Jawahar Goel के कमरे में उनके साथ बैठा हूँ। मैंने उन्हें अपनी बिटिया को याद करके आँसू पोछते हुए देखा है। मैंने मथुरा में Pavan Chaturvedi को हजार बार रोते हुए देखा है। मैंने जबलपुर में Kamal Grover, Ravindra Bajpai, Rajeev Chaturvedi, Amit Chaturvedi सबको अपने रिश्तों को याद कर रोते हुए देखा है। तो क्या ये सब पागल हैं?
Ranjana Tripathii ने बहुत साल पहले, जब वो मुझे जानती भी नहीं थी, तब एक दिन फोन करके रोना शुरू कर दिया। वो भी पागल है? बाँका में बैठी Jaya Pandeyका फोन आज भी उठा लूँ, तो उधर से हैलो से पहले सुबकने की आवाज आती है, तब तो वो भी पागल ही हैं।
प्रशांत पाठक से तो मैं हरदोई में पहली बार मिला था। वो भी हमारे मिलन समारोह की यादों से बाहर नहीं आ पा रहे, तो क्या उन्हें पागल करार दे दूँ? कितने नाम लूँ, जितने नाम लूँगा, सब आपको पागल ही लगेंगे। Alka Srivastava, Mamta Saini, Neetu Rathore,Subhash Ojha, Sanjay Sharma, Sanjaya Kumar Singh, Rachna Rajput, Sucheta Sharma ये सब पागल हैं।
कानपुर के Sunil Mishra बात बाद में करते हैं, अपने आँसू पहले पोछते हैं, तो आप उन्हें क्या कह कर बुलाएँगे?
अगर रिश्तों को जीना पागलपन है, तो फिर संजय सिन्हा फेसबुक परिवार 25 हजार पागलों का परिवार है। हर दिन इस परिवार में पागलों की गिनती बढ़ती जा रही है।
भावनाओं से संचालित होने वाले अगर पागल होते हैं, तो मान लीजिए कि दुनिया में कम से कम इतने लोग तो ऐसे ही हैं, जो कारणों से नहीं संचालित होते।
मेरा दिल हरदोई में अटका है। तीन अप्रैल को जबलपुर जाऊँगा, कैंसर अस्पताल के मरीजों से मिलने के लिए, फिर मेरा दिल वहाँ अटक जाएगा। वहाँ नये पागलों से मिलूँगा, फिर कहने वाले क्या कहेंगे?
हरदोई से निकले, जबलपुर मे अटके। ऐसा ही होता है रिश्तों का संसार। फिलहाल तो हरदोई की कहानियाँ चलती रहेंगी। आगे की आगे देखेंगे।
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बचपन में मैंने थर्मामीटर को तोड़ कर देखा था कि उसमें आखिर है क्या?
थर्मामीटर टूटा, उसमें से पारा निकला। चाँदी की तरह चमचमाते पारे के छोटे-छोटे कण इधर-उधर बिखर गये थे। मैंने उन्हें पास किया तो आपस में सब इस कदर जुड़ गये मानो कभी जुदा हुए ही नहीं थे। पारा को आप चाहे जितने हिस्सों में बाँट दीजिए, जब उन्हें आप साथ रखेंगे तो वो एक हो जाएँगे।
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“डर लगता है उन लोगों से, जिनके दिल में भी दिमाग होता है।”
(देश मंथन, 18 मार्च 2016)