रिश्ते दिल मिला कर बनते हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मेरी शादी तय हो चुकी थी। मुझे पता था कि मेरी होने वाली पत्नी का नाम दीपशिखा है। पर आगे क्या? 

मेरे पिताजी ने मुझसे नहीं पूछा कि तुम्हारी होने वाली पत्नी का पूरा नाम क्या है। मुझे नहीं पता कि उनके मन में इस बात की हलचल रही होगी या नहीं क्योंकि अपनी जाति में ढूँढ-ढूँढ कर अपनी बेटियों की शादी करने वाले पिताजी के अरमान अपनी बहू को लेकर क्या थे, उन्होंने मुझे ये कभी जाहिर नहीं होने दिया। 

पच्चीस साल पहले 31 मार्च को जब मैं अपनी होने वाली पत्नी से पहली बार मिला था, तब मुझे सिर्फ इतना पता था कि वो दिल्ली की रहने वाली है, अंग्रेजी वाली है। 31 मार्च को पहली मुलाकात में ही एकदम फिल्मी अंदाज में ये बात तय हो चुकी थी कि हम 20 दिनों के बाद, यानी 20 अप्रैल को शादी करेंगे। 

मैंने सबसे पहले अपने पिता को खबर दी थी कि मुझे लड़की पसंद आ गयी है, मैं शादी करना चाहता हूँ। फिर मैंने अपने दोस्तों को यह जानकारी दी। मेरे दोस्तों में सबसे करीबी Sanjaya Kumar Singh, सत्येंद्र रंजन और अरुण कुमार त्रिपाठी थे। तीनों जनसत्ता में ही थे और तीनों दीपशिखा से मिल चुके थे। हालाँकि तीनों को उसके विषय में उतना ही पता था, जितना मैं जानता था। 

अरुण त्रिपाठी के एक मित्र वकील थे और तय हुआ कि शादी से पहले हम कोर्ट में एक शपथ पत्र दाखिल करें, ताकि शादी के वक्त कोई कानूनी अड़चन न आए। हम दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में पहुँचे। वहाँ वकील ने पूछा, लड़की का पूरा नाम क्या है? 

हम सब बगलें झाँकने लगे। 

“लड़की का पूरा नाम मतलब क्या?”

“उनका सरनेम?”

मैंने होने वाली पत्नी की ओर देखा। उसने कहा, मेरा सरनेम ‘सेठ’ है। 

अब बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ‘सेठ’ सरनेम किसका होता है, मैं नहीं जानता था। मेरी होने वाली पत्नी किस जाति की है, मुझे नहीं पता था। 

वकील ने पूछा, “पिता का नाम?”

“के. एल सेठ।”

“पूरा नाम?”

पत्नी थोड़ा सकुचाई। कहने लगी, “ सर्टिफिकेट में यही लिखा है।”

“नहीं, नहीं ये पूरा नाम नहीं है। ये नाम का शॉर्ट फार्म है।”

मैं सोच में डूबा था कि आखिर वो पूरा नाम क्यों नहीं बता रही। मैंने मजाक में पूछा कि कन्हैया लाल सेठ? मेरी पत्नी चहक उठी। 

“तुम्हें कैसे पता?”

“मुझे नहीं पता था। मैंने तो बस गेस किया।”

***

हमारी शादी हो गयी। मेरी पत्नी ने मेरी जाति नहीं पूछी। मैंने पत्नी की जाति नहीं पूछी। 

आप जानते हैं कि मेरा सरनेम ‘सिन्हा’ है। अब तक आप यह भी जान ही गये हैं कि मेरी पत्नी का सरनेम ‘सेठ’ है। 

पर क्या आप जानते हैं कि मेरी पत्नी का सरनेम आज भी ‘सेठ’ ही है। उसने अपने नाम में मेरा सरनेम कभी नहीं जोड़ा, मैंने उससे कभी नहीं कहा कि तुम्हें आम भारतीय पत्नियों की तरह पति का सरनेम अपने माथे पर लगाना चाहिए।

मेरी शादी को पच्चीस साल हो गये। मुझसे मेरे किसी दोस्त ने नहीं पूछा कि संजय, तुम्हारी पत्नी तुम्हारा सरनेम क्यों नहीं इस्तेमाल करती? मेरा बेटा जो ‘सेठ’ माँ और ‘सिन्हा’ पिता से पैदा हुआ है, वो ठीक से नहीं जानता कि उसकी जाति क्या है? उससे भी किसी ने आज तक नहीं पूछा कि बेटा, तुम्हारी जाति क्या है? 

और तो और मैं खुद नहीं जानता कि मेरी पत्नी की जाति क्या है? 

रही बात मेरी, तो पत्नी ने भी मुझसे कभी नहीं पूछा कि मेरी जाति क्या है? उसके लिए ‘सिन्हा’ सरनेम नया था, अजूबा था। उसके खानदान में कोई ‘सिन्हा’ नहीं है। मेरे खानदान में कोई ‘सेठ’ नहीं है। मेरे यहाँ ‘सेठ’ सरनेम अजूबा है। 

***

आप सोच रहे होंगे कि आज मैं जाति पुराण लेकर क्यों बैठ गया। 

ऐसा इसलिए कि मेरी वाल पर कल किसी ने जानना चाहा कि मेरे परिजनों में कोई दलित या ओबीसी है कि नहीं?

कमाल करते हो, साहब! पता नहीं कहाँ-कहाँ की कौड़ी ढूँढ कर लाते हो? अरे, जब मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मेरी वाल पर लड़का-लड़की बन कर मुझसे चैट-चैट खेलता है, तो इस बात से क्या फर्क पड़ने वाला है कि कौन दलित है, कौन उच्च जाति का। 

मैं सफाई नहीं दे रहा। पर इतना कहना चाहता हूँ कि जिस किसी को मेरी पत्नी की जाति का पता चले, प्लीज़ मुझे बता दे। मेरी हिम्मत नहीं है कि शादी के पच्चीस साल बाद मैं उससे पूछ सकूँ, “जानू, तुम कौन जाति की हो?” 

बड़ा चिंतित हूँ। जिस चीज की चिंता मेरे पिता ने नहीं की, मेरे दोस्तों ने नहीं की, उसकी चिंता मेरे एक फेसबुक परिजन को है। 

आप ही बताइए मैं क्या कहूँ? 

***

मेरी शादी जाति, धर्म, कुंडली मिला कर नहीं हुई, साहब! मेरी शादी दिल मिला कर हुई है। रिश्ते दिल मिला कर बनते हैं, हमारा ये परिवार भी ऐसे ही बना है। 

(देश मंथन, 18 मार्च 2016)

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