संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
यह तो आप जानते ही हैं कि सबसे ज्यादा खुशी और सबसे ज्यादा दुख, दोनों अपने ही देते हैं।
कोई किसी को दुख क्यों देता है, ये अपने आप में एक शोध का विषय हो सकता है। मैं आज इस शोध की बात नहीं करूँगा। मैं तो आज उस बहुत छोटी सी कहानी को आपसे सिर्फ साझा करूँगा, जिसे माँ एक दिन सुनयना दीदी को सुना रही थी।
माँ कहानियों के संसार से हर मुश्किल घड़ी के लिए एक कहानी ढूँढ कर ले आती थी। वो किसी को बहुत ज्यादा समझाती नहीं थी, बस उस मौके पर एक कहानी सुना कर चुप हो लेती थी।
मैंने एक बार माँ से पूछा भी था कि आप किसी को उसकी समस्या का कोई समाधान नहीं देतीं। आप बस कहानी सुना कर चुप हो जाती हैं, ऐसा क्यों?
माँ कहती थी कि किसी को भीख और सीख देना सबसे आसान काम है। माँ का कहना था कि जब कोई कुछ माँगे तो उसके आगे सबकुछ रख दो। उसे जो चाहिए, उसे उठा लेने दो। और इसी कड़ी में माँ मुश्किल से मुश्किल घड़ी में लोगों के सामने अपनी कहानी रख देती कि जो सीख चाहो चुन लो।
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सुनयना दीदी ससुराल से हर बार दुखी ही आती थीं। मैं तो समझ ही नहीं पाता था कि वो ससुराल जाती ही क्यों हैं। जब मैं छोटा था और सुनयना दीदी शादी के बाद ससुराल गयीं और वापस आयीं, तो मुझे पता चला कि वहाँ उनकी खूब पिटाई हुई है। यह सुन कर मैं बहुत हैरान हुआ था। मैंने सुनयना दीदी से पूछा भी था कि आपकी वहाँ पिटाई क्यों होती है? सुनयना दीदी ने मेरी ओर बहुत कातर निगाहों से देखते हुए कहा था कि मेरे पूर्व जन्म की गलतियों की सजा मुझे मिल रही है।
“अच्छा आपने कोई गलती की है?”
“की ही होगी।”
“आपको याद नहीं?”
“इस जन्म की तो याद नहीं। पिछले जन्मों की याद किसे रहती है?”
“सजा देने वालों को आपके पूर्व जन्म की गलतियाँ पता हैं?”
सुनयना दीदी चुप हो जातीं।
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उस दिन सुनयना दीदी फिर माँ के घर आयी थीं। उनकी आंखें सूजी हुई थीं। वो माँ के सामने बैठी थीं।
माँ कह रही थी कि एक बार एक गाँव में बहुत बाढ़ आ गयी थी। सभी लोग गाँव छोड़ कर भाग गये थे। एक व्यक्ति के घर दो घड़े थे। एक मिट्टी का और दूसरा पीतल का। पानी जब ज्यादा बढ़ गया और लगा कि अब दोनों घड़े भी डूब जाएँगे, तो मिट्टी का घड़ा बहुत कातर भाव से पीतल के घड़े की ओर देख रहा था। पीतल के घड़े ने मिट्टी के घड़े की ओर देखा और कहा, “मित्र, तुम उदास मत हो। अगर कभी इतना पानी हो गया कि हम भी बहने लगे तो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।”
मिट्टी के घड़े ने धीरे से कहा कि मित्र, मैं उदास ही इस बात से हूँ कि बहते पानी में जब तुम मेरी मदद के लिए आओगे, तो मैं फूट जाऊँगा। मैं पानी से तो खुद को बचा सकता हूँ, पर तुमसे कैसे बचाऊँगा। तुम मुझ पर गिरो या मैं तुम पर, दोनों परिस्थितियों में फूटना मुझे ही होगा। अगर हम ये रिश्ता यहीं छोड़ दें, तो शायद मैं बच जाऊँ।
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माँ इतनी छोटी-सी कहानी सुना कर चुप हो गयी थी।
मैं तब बहुत छोटा था। पर बाद में मैंने सुना कि सुनयना दीदी रोज-रोज मरने की जगह जीने लगी थी।
आदमी को जीना चाहिए। जिन्दगी ईश्वर की सबसे बड़ी नेमत है। रिश्ते जिन्दगी को जीने का साधन हैं। समय के काल पर कुछ भी स्थायी नहीं होता। जहाँ उम्मीद है, वहीं जिन्दगी है। उम्मीदों के फूल को मुरझाने मत दीजिए।
(देश मंथन, 11 दिसंबर 2015)