विकास मिश्रा, आजतक :
एक आदमी ने नारियल के पेड़ पर ढेर सारे फल लगे देखा तो जोश में पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ बहुत ऊंचा था, लेकिन उस आदमी के जोश से थोड़ा कम। उसने नारियल तोड़ कर नीचे फेंके और जब उतरने की बारी आयी तो नीचे देखा तो डर के मारे काँपने लगा।
गिरा तो एक भी हड्डी सलामत नहीं बचेगी। भगवान को याद किया – हे भगवान अगर सही सलामत उतर गया तो सौ ब्राह्मणों को भोजन करवाऊँगा। वो हैसियत वाला आदमी था, सौ ब्राह्मण खिला सकता था। खैर, भगवान-भगवान करते नीचे उतरने लगा। आधी दूरी सकुशल बीत गयी। नीचे देखा तो डर कुछ कम हुआ। बोला – सौ नहीं तो 50 ब्राह्मणों को तो खिला ही दूँगा। जैसे-जैसे नीचे दूरी कम होती गयी, वैसे-वैसे भगवान से वादे में ब्राह्मणों की गिनती घटती गयी। आखिर में जब दो-तीन फीट बचा तो उसने कहा – एक ब्राह्मण तो खिला ही दूँगा।
कहानी इससे आगे भी है, लेकिन उसकी अभी कोई जरूरत नहीं।
ये जो आदमी था, वो हमारे-आपके भीतर बैठा हुआ है। इंसान का स्वभाव होता है कि जब वो मुसीबत में होता है तो ढेर सारी मनौतियाँ मान बैठता है, खुशी में होता है तो ढेर सारे वादे कर बैठता है, लेकिन जब मुसीबत से उबर जाता है, या फिर खुशियों के पल बीते कुछ दिन हो जाते हैं तो फिर वो वादे, वो मनौतियाँ अक्सर बोझ लगने लगती हैं। काम निकलने पर तो भगवान से बार्गेनिंग शुरू कर देते हैं, इंसानों की तो बात छोड़िए। मेरा एक पुराना साथी था, छटपटा रहा था उस संस्थान में काम करने के लिए जिसमें मैं काम करता था। बार-बार कहता – अगर मैं आपके साथ आ गया तो बहुत शानदार पार्टी दूँगा। संयोगवश वो साथ आ गया। पार्टी की बात भूल गया। साल भर बात फिर दिमाग चाटने लगा कि अगर प्रमोशन हो गया तो बढ़िया पार्टी दूँगा। डेढ़ साल बाद उसका प्रमोशन हो गया। इस घटना के अब बारह साल हो गए, पार्टी आज तक नहीं हुयी।
मैं अक्सर साथियों के बीच एक जुमला कहता हूँ – शादी की पार्टी बच्चे के मुंडन में नहीं दी जाती। मतलब ये है कि खुशियों के पल तो कपूर की तरह काफूर हो जाते हैं। जो आपका सपना है, बरसों पुराना सपना है, जैसे ही पूरा हो गया तो वो सपना नहीं रह जाता। दिमाग दिल को समझा देता है कि वो सपना नहीं तुम्हारा हक था। जब तक सपना रहता है, तब तक सपना पूरा होने पर खुशी कैसे बाँटेगा, इसके ख्याल आते हैं, खुद से, दोस्तों से ढेरों वादे कर बैठता है, लेकिन सपना पूरा होने के बाद खुमारी उतर जाती है। वादे तो वादे ही रह जाते हैं। मेरे दो दर्जन साथियों की कुल बकाया पार्टियों की तादाद सौ से ज्यादा है। ये वो पार्टियाँ हैं, जिसके लिए उनके अपने वादे-दावे थे।
एक महिला सहकर्मी दूसरे चैनल में अच्छे पद-पोजीशन-पैसे पर गयी। उसने कहा -सर जरा ज्वाइन कर लूँ, आपको पूरे परिवार के साथ पार्टी दूंगी। ज्वाइन कर लिया। प्रमोशन भी हुआ, एक और पार्टी का वादा। कुछ वजह रही कि उसे नौकरी से ब्रेक लेना पड़ा। फिर उसने कहा-सर नयी नौकरी ज्वाइन करते ही आपको पार्टी दूंगी। मैंने कहा – अभी फुर्सत में हो, तीन पार्टियों का पिछला वादा तुम्हारा पड़ा हुआ है। अभी पार्टी दे दो तो पिछला भार उतर जाएगा। खैर नयी नौकरी मिल गयी। साल भर बाद फिर प्रमोशन भी मिला। मेरे रिश्ते आज भी उससे बहुत अच्छे हैं, लेकिन वादों की पार्टियों की तादाद अब पाँच से ज्यादा हो चुकी है। (हमारी उस साथी ने ये पोस्ट जरूर पढ़ ली होगी, समझ भी गयी होगी कि ये किसके लिये है, अब मेरी खैर नहीं – हाँ गुजारिश है कि यहाँ बताना मत कि वो तुम हो।)
दूसरों की बातें क्या करूँ। जब मैं महुआ न्यूज से आजतक आया तो वहाँ बड़ी भावभीनी विदाई की मेरी टीम ने। मैंने वादा किया कि सबको पार्टी दूंगा। इस बार अपना फार्मूला खुद पर लागू कर पाने से चूक गया। पार्टी पंद्रह दिन के भीतर नहीं हुयी तो फिर नहीं हो पायी। आज भी महुआ के साथी अमृत उपाध्याय, शिवानी, मेनका , आलोक फोन करके मुझसे पार्टी की तारीख पूछते हैं। बस यही एक पार्टी है, जिसका निमंत्रण मैंने दिया और वो पूरी नहीं हुयी, फिर किसी नई तारीख का वादा नहीं। अब सीधे पार्टी ही होगी।
हमारे मित्र आरसी शुक्ल (एक्जीक्यूटिव एडिटर आईबीएन-7) ने डीडीए हाउसिंग का फार्म भरा था, कई और साथियों ने भी भरा था। तब हम लोग न्यूज 24 में थे। ऐसे ही मजाक-मजाक में मैंने कहा – आरसी भाई सिर्फ आपका ही फ्लैट निकलेगा। आरसी बोले – बाबा अगर फ्लैट निकला तो शानदार पार्टी दूंगा। भरे न्यूजरूम में मैंने कहा – भाइयों सुन लो, आरसी भाई का वादा है कि अगर फ्लैट निकला तो ये पार्टी देंगे। संयोग देखिए, आरसी भाई का फ्लैट निकल आया, सिर्फ उन्हीं का निकला था। आरसी भाई ने देर नहीं की, एक ही नहीं उन्होंने हफ्ते भर के अंतराल पर लगातार तीन पार्टियाँ दीं और हर पार्टी में दर्जन भर से ज्यादा लोग मौजूद रहे।
नाते-रिश्तेदारियों में देखता हूँ। बच्चा पैदा होता है तो भाभियाँ-ननदों से वादा करती हैं कि जन्मोत्सव में नहीं मुंडन में अंगूठी दूंगी, चेन दूंगी। मुंडन आ जाता है तो फिर अंगूठी-चेन का वादा जनेऊ या फिर लड़के की शादी तक पहुँच जाता है, शादी में खर्चों का हवाला होता है। ननदें ताकती रह जाती हैं, भतीजा अगली पीढ़ी के निर्माण में जुट चुका होता है। बात बहुत छोटी सी है, फिर भी प्रसंगवश बता दूं। मेरी भाभी ने मेरे छोटे जीजाजी से बढ़िया जूता खरीदने का वादा किया। जीजाजी अक्सर उनसे मौज लेते हुए पूछते – का भाभी, हमार जुतवा कब आयी। भाभी बोलतीं – जल्दी। एक दिन मुझे इसका पता चल गया। घर के मान्य से वादा पूरा न होना, मतलब भगवान के खाते में बैड एंट्री..। मैंने जीजा से कहा कि जब तक मैं जीवित हूँ, जूता आप मेरा खरीदा ही पहनेंगे। ये वादा नहीं था, कमिटमेंट था, पूरा हो रहा है, लगातार हो रहा है।
जो आस्तिक हैं, पॉजिटिव एनर्जी, निगेटिव एनर्जी में जिनका भरोसा है, उन्हें मैं एक बात बता दूँ। जैसे ही आपने किसी से कोई वादा किया, ऊपर उतने खर्चे की उसकी रसीद कट जाती है। उतना खर्च आपके खाते से निकल जाता है। अब आपकी मर्जी उस धन को, समय को उसके साथ खर्च करें, जिससे आपने वादा किया था। या फिर कहीं और। ध्यान रहे, अगर वादा किये हुए मद में खर्च नहीं होगा तो वो खर्च निगेटिव चीजों पर होना तय है। चाहे घर में किसी की बीमारी पर खर्च होगा या फिर उतने की ठगी या चोरी हो जायेगी। घर का कोई सामान टीवी-फ्रिज-एसी-वाहन बिगड़ सकता है। दूसरे तरह का नुकसान हो सकता है। अब आप तय कीजिए किस पर खर्च करना चाहेंगे, खुशियों पर या बीमारी पर। क्या समझते हैं कि नारियल पर चढ़ा हुआ आदमी खर्चे से बच गया..? चलिए वो कहानी पूरी कर देता हूँ। पेड़ से उतरने के बाद वो आदमी ऐसे ब्राह्मण की तलाश में जुट गया जो कम खाता हो। एक चालू पंडित मिल गया, जिसने कहा कि उसका पेट दो पूड़ी में भर जाता है। उस आदमी ने पंडित को अगले दिन का निमंत्रण दिया। बीवी से बोला कि ब्राह्मण आयेगा, खिला देना और फिर वो काम पर निकल गया। जानबूझकर नहीं बताया कि ब्राह्णण दो ही पूड़ी खायेगा। ब्राह्मण आया, उसने डट कर दर्जनों पूड़ियां खायीं। फिर उस आदमी की बीवी से कहा – यजमान ने कहा था कि भोजन के बाद दो अशर्फियाँ ले लेना। आप चाहो तो उनसे पूछ लो कि दो के बारे में क्या कहा था। बीवी ने फोन किया – क्यों जी पंडित जी दो के बारे में पूछ रहे थे। पति बोला – हाँ – दो ही देना है.. कहते हुए फोन पटक दिया, सोचा था कि बात पूड़ियों की ही हो रही होगी। इधर उसकी बीवी ने पंडित जी को दो अशर्फियां पकड़ा दीं। पंडित जी चलते बने। वो आदमी इससे कम खर्च में सौ ब्राह्मणों को खिला सकता था, जो उसने भगवान से सबसे पहले वादा किया था। वादा आखिरकार भगवान से था, खर्चा फौरन खाते से निकल गया। क्रेडिट कार्ड की तरह ऊपर कार्ड स्वैप हो गया। सौ ब्राह्मण खाये या एक। खर्चा तो उतना ही होना था।
नैतिक शिक्षा – याद कर लीजिए अगर किसी से कोई वादा कर बैठे हैं तो पूरा कर लीजिए। कोई मित्र आपसे वादा करके भूल चुका हो तो उससे वादा पूरा करवा लीजिए।
(देश मंथन, 10 अप्रैल 2015)