मैं हिन्दू हूँ

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरी कल की पोस्ट पर एक परिजन ने अपने कमेंट में मुझसे पूछा है, “भारत में कौन सी हिन्दू माँ अपने बेटे को ईसा मसीह की कहानी सुनाती है? ज्यादातर माँएँ तो यह भी नहीं जानती कि ईसा कौन आदमी था? आपने झूठी पोस्ट लिखी है। और माँ द्वारा कहानी तो गांधीजी की भी नहीं सुनाई जाती। भैया कौन से ग्रह से आए हो?”

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दो दिन पहले मैं एक कार्यक्रम में एक आदमी से मिला था, सोचा कि आज उसकी कहानी आपको सुनाऊँगा। पर सुबह-सुबह अपनी पोस्ट पर ये वाला कमेंट पढ़ कर मैं सोच में डूब गया। मेरी माँ ने मुझे ईसा मसीह की कहानी सुनाई, तो क्या हिन्दू माँएँ ईसा मसीह की कहानी नहीं सुनातीं? या फिर ईसा की कहानी सुनने वाले बच्चे हिन्दू नहीं होते? मेरे परिजन ने यह भी लिखा है कि ज्यादातर माँएँ तो जानती भी नहीं कि ईसा कौन आदमी था। और सुनिए माँएँ गांधी जी की कहानी भी नहीं सुनातीं। 

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अब मैं क्या कह सकता हूँ। बात माँ की है, एक ऐसे रिश्ते की है, जिस पर मैं चाह कर भी कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। ‘माँ’ इस एक शब्द को आप मेरी कमजोरी मान लीजिए, कि मैं अपने उस परिजन को जवाब भी नहीं दे सकता कि माँ अगर किसी बच्चे को अगर ईसा की कहानी सुनाए, तो उसके हिन्दू होने पर सवाल कैसे उठ सकता है? 

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हाँ, मेरी माँ मुझे ईसा मसीह की कहानियाँ सुनाया करती थीं। वो मुझे गांधी जी की कहानी भी सुनाया करती थीं। जब वो मुझे ईसा मसीह की कहानी सुनाती थीं, तब मेरे मन में लंबे बालों, कसे और मजबूत बदन वाले ऐेसे व्यक्ति की एक तस्वीर उभरती थी, जिसका चेहरा राम जी से मिलता था, जिसका चेहरा मथुरा में जन्म लिए एक बालक से भी मिलता था, जिसे दुनिया कृष्ण पुकारती थी। इतिहास की किताबों में ईसा राम और कृष्ण के बाद आये थे। फिर गांधी आये थे। मेरी माँ एक शिक्षित महिला थीं और उसे पता था कि उसके पास इस संसार में रहने के लिए सीमित समय है, इसलिए उसने मुझे राम, कृष्ण, ईसा, मूसा, गांधी सबकी कहानियाँ सुनाईं। और हर कहानी के बाद वो मुझे समझाती थी कि दुनिया में सिर्फ एक ही धर्म है। वो है मानवता का धर्म। मैं हजार बार लिख चुका हूँ, फिर दोहरा रहा हूँ कि माँ कहती थी कि आदमी को सिर्फ भावनाओं से ही संचालित होना चाहिए। कारणों से मशीनें संचालित होती हैं। मेरी माँ मुझे यह भी बताती थी कि धोखा देने से धोखा खाना बेहतर होता है। धोखा खाने में तो आपका जरा सा कोई नुकसान हो सकता है, पर धोखा देने पर तो आत्मा की ही मौत हो जाती है। 

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अब मेरी माँ इस संसार में नहीं है। होती तो मैं अपने उस परिजन का सवाल उस तक पहुँचा देता कि माँ तुम ऐसी क्यों थी? तुम मुझे ईसा की कहानियाँ क्यों सुनाया करती थी? हम ईसाई तो नहीं हैं। ईसा की कहानियाँ सुना कर माँ तुमने कहीं मेरा धर्म ही तो नहीं भ्रष्ट कर दिया? और माँ, ये गांधी की कहानियाँ तुमने कहाँ से पढ़ लीं? मेरे एक फेसबुक परिजन तो कहते हैं कि माँएँ ऐसी कहानियाँ सुना ही नहीं सकतीं।

माँ, अगली बार तुम जब आना तो मेरे उस परिजन से मिलना। उसे बताना कि मैं जो लिखता हूँ, सब सच लिखता हूँ।

और माँ, तुमने मुझे कभी बताया भी नहीं कि मैं हिन्दू हूँ या नहीं। मैं हिन्दू ही हूँ न माँ? 

फिर तुम ऐसी कहानियाँ क्यों सुना गई, जिसे मेरे परिजन के मुताबिक तुम्हें मुझे नहीं सुनानी चाहिए थी। 

माँ तुम अब जब आना तो मेरे उस परिजन से मिलना। तुम माफी माँगना कि तुमने अपने बेटे को ईसा की कहानी सुना कर घनघोर पाप किया है। माँ, मेरे एक परिजन हिन्दू धर्म को आगे ले जाने का बीड़ा उठाए हुए हैं और तुम जैसी माँएँ अपने बेटों को ईसा और गांधी की कहानी सुना कर उनकी कोशिशों पर पानी फेर रही हैं। यह तो गलत हैं माँ। 

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माँ मेरे एक परिजन को तुम यह भी बता देना कि तुम कौन से ग्रह से आयी थीं? उनके मुताबिक इस ग्रह की माँएँ अपने बच्चों को ईसा और गांधी की कहानियाँ नहीं सुना सकतीं।

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आप सब जानते हैं कि माँ के विषय में जब बात होती है, तब मैं कुछ और कह पाने की स्थिति में नहीं रहता। बस यही एक शब्द है, जहाँ मैं अटक जाता हूँ। 

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दुनिया को राम राम राम लिखने से मुक्ति मिलती होगी, मुझे तो माँ-माँ-माँ लिखने से मिलेगी।      

(देश मंथन, 5 अक्तूबर 2015)

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