संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
जून का महीना मेरी यादों का महीना होता है। आज जिन यादों से मैं गुजरने की सोच रहा हूँ, उस पर तो पूरी किताब भी लिख सकता हूँ। हालाँकि यादों की जिन कड़ियों से मैं गुजरने की अभी सोच रहा हूँ, वो बेशक एक दस्तावेज बन सकता है पर उसे ऐतिहासिक दर्जा कभी नहीं मिल सकता, क्योंकि चौथी-पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा क्या इतिहास लिख पायेगा, और कोई क्यों उसपर यकीन कर पायेगा।
इसलिए आज जिस गुजरे वक्त में मैं अपने साथ आपको ले चलने की कोशिश करने जा रहा हूँ, उसमें हो सकता है कि मैं अपनी बात एक ही पोस्ट में न पूरी कर पाऊँ। मुमकिन है कि मैं सिलसिलेवार ढंग से उसे कलमबद्ध करता चलूँ और अगर आपको पढ़ने में मजा आये तो आप कह सकते हैं कि आगे की दास्ताँ भी सुना दो, संजय सिन्हा, अन्यथा मेरे पास यादों की कमी नहीं।
मेरे फेसबुक परिजनों में से बहुत से लोग शायद तब पैदा भी नहीं हुये होंगे, लेकिन जो लोग उस समय इस संसार में आ चुके थे और जिन्होंने उस ‘समय’ को भोगा है, उनसे माफी माँगते हुए आज लिखने बैठा हूँ कि कहीं कुछ ऊँच-नीच हो तो माफ कर दीजियेगा।
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दीदी, उसकी ढेर सारी सहेलियाँ और हम बच्चे तब हर शाम ‘लाले-लाल’ या ‘डेंगा-पानी’ खेला करते थे। लाले-लाल एक ऐसा खेल था, जिसमें दो टीम हुआ करती थीं। आप में से कुछ लोगों ने इस खेल को खेला भी होगा। लकड़ी के एक टुकड़े से लाल रंग को छूते हुए आगे बढ़ना होता था और अगर सामने वाली टीम ने उस वक्त आपको छू दिया, जब आप लाल रंग के संपर्क में नहीं हैं, तो फिर आप आउट। डेंगा-पानी भी कुछ इसी तरह का खेल था, जिसमें अगर आप किसी ऊँची जगह पर खड़े हैं, तो आप सुरक्षित हैं, लेकिन जैसे ही आप नीचे आए तो दूसरी टीम आपको छू कर आउट कर देती थी। मुझे लगता है कि सभी बच्चे समय-समय पर ऐसे खेल खेलते होंगे, भले नाम कुछ और हो। इसके अलावा ‘आईस-पाइस’ (आई स्पाई) भी हमारा प्रिय खेल हुआ करता था। इन तीन खेलों में हम लड़का-लड़की होने के भेद से परे थे। पर जैसे ही हम गिल्ली-डंडा और क्रिकेट की दुनिया में घुसे, लड़कियाँ हमारे ग्रुप से आउट होती चली गईं।
हम लड़कियों को चिढ़ाने लगे थे कि तुम लोग तो ये मर्दों वाला खेल खेल ही नहीं सकती। इसमें बहुत ताकत की जरूरत होती है। गिल्ली-डंडा में तो एकबार जो नचा कर गिल्ली को उछाला तो भले गिल्ली पाँच फीट दूर जाकर गिरे, लेकिन हम उन लड़कियों की ओर बहुत गर्व से देखते कि देखो, हमारी बाजुओं के दम को देखो।
और तब बगल वाली विमला दीदी तमकतीं। वो मुझसे कुछ नहीं कहतीं, लेकिन अपनी उम्र वाले मुन्ना भैया की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुई वो बोलतीं, लड़कियों को दम दिखाने के लिए हमें क्रिकेट और गिल्ली डंडा की जरूरत नहीं। तुम इन्दिरा गाँधी को देखो। उनके दम को देखो। देखो कि सारे मर्द कैसे चूहा बने फिर रहे हैं।
मर्द और चूहा?
तब मैं इतना बड़ा नहीं हुआ था कि मर्द और औरत के बीच फर्क को बहुत महसूस कर पाता। मुन्ना भैया और विमला दीदी तो हमसे बहुत बड़े थे, शायद उन्हें फर्क पता रहा होगा। मैं तो तब वहीं खड़े-खड़े अपनी निकर बदल सकता था और विमला दीदी मुझे चिढ़ाती भी नहीं थीं। लेकिन सारे मर्द एक औरत के आगे चूहा बने फिर रहे थे, ऐसा सुनना मेरी बहुत छोटी सी मर्दानगी को ललकार उठता था।
पूरे देश में क्या माहौल था, मुझे नहीं पता था। लेकिन हमारी उस छोटी सी कॉलोनी में इन्दिरा गाँधी के खिलाफ खूब नारे लगने लगे थे। यही जून का महीना था। शायद इमरजंसी जैसी कोई चीज अनाउंस कर दी गई थी। माँ-पिताजी आपस में बातें करते थे – “यह समय भारतीय इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज किया जायेगा।”
मुझे लगता था कि मैं तो ब्लू स्याही से लिखता हूँ, पर इन्दिरा गाँधी ने इमरजंसी की जो घोषणा की है, उसे शायद पेन में काली स्याही भर कर लिखा जायेगा।
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इमरजंसी इन्दिरा गाँधी की शुद्ध व्यक्तिगत सत्ता की आकांक्षा की परिणति थी। ऐसा मैं सुनने लगा था। घर में इन्दिरा गाँधी, संजय गाँधी, जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और न जाने कितने नामों की चर्चा होने लगी थी। मुझे याद है कि स्कूल-कॉलेज बन्द करा दिए गये थे। सुनने में आने लगा था कि इन्दिरा गाँधी मर्द बन गई थीं और सचमुच सारे पुरुष चूहे। विमला दीदी का कहा सच साबित होने लगा था। मेरी दिलचस्पी इन्दिरा गाँधी में बढ़ने लगी थी। लेकिन जयप्रकाश नारायण की चर्चा भी खूब होने लगी थी।
रोज खबरें आतीं, जिस पर माँ-पिताजी चर्चा करते।
आज जेपी गिरफ्तार कर लिए गये। आज फलाँ गिरफ्तार कर लिए गये। आज सब गिरफ्तार कर लिए गये। मैं माँ से पूछता, “माँ गिरफ्तार किया जाना क्या होता है?”
माँ कहती, “गिरफ्तारी का मतलब होता है, जेल भेजना।”
“लेकिन माँ, जेल तो चोरों को भेजा जाता है। तो, क्या अपने जेपी ने कोई चोरी की है?”
“नहीं बेटा। देश में इमरजंसी लग गई है न! इमरजंसी में लोकतंत्र खत्म हो जाता है।”
मैं अपनी छोटी-छोटी आँखों को बड़ी कर माँ के चेहरे की ओर देखता।
माँ समझाने में कोताही नहीं बरतती थी। न वो पूरी बात बताने में कभी ऊब महसूस करती। वो ठीक से समझाती कि हमारे यहाँ जो लोग सरकार में होते हैं, उन्हें हम ही चुन कर भेजते हैं। लेकिन अब जब इमरजंसी लग गई है, तब ये समझना जरूरी है कि हमारी ही चुनी हुई सरकार अब ये ऐलान कर रही है कि हमे तुम्हारी जरूरत नहीं। वो कह रही है कि देश में सबसे शक्तिशाली जनता नहीं, सरकार है। और जो सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहा है, उसे जेल भेजा जा रहा है।”
“लेकिन माँ, जेल में तो बहुत गन्दी रोटी खाने को मिलती है। मुझे तो मुन्ना भैया ने बताया है कि वहाँ आदमी को मारा पीटा भी जाता है।”
“ये सच हो सकता है, बेटा। लेकिन जो लोग लोकतंत्र को मानते हैं, जो जनता के हित की बात सोचते हैं, उनके लिए ऐसी परिस्थिति में जेल मन्दिर से कम नहीं।”
“लेकिन माँ, इन्दिरा गाँधी तो अब मर्द बन गई हैं। विमला दीदी ने बताया था कि सारे मर्द चूहे बन गये हैं, उनके आगे।”
“नहीं, ये सही नहीं है बेटा। मर्दानगी का मतलब लोगों को भयभीत करना नहीं होता। मर्द वो होते हैं, जो सबकी चिन्ता करते हैं, जो सबकी परवाह करते हैं। जैसे तुम्हारे पिताजी। मर्द जयप्रकाश नारायण हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर जेल जाने को तैयार हो गये। मर्द महात्मा गाँधी थे, जिन्होंने अपना सबकुछ छोड़कर ……जीवन ही जेल में गुजारा।”
“माँ, मैं गाँधी जी से तो नहीं मिल सका। मैं जेपी से मिलूँगा।”
“जरूर मिलना। जब वो जेल से छूट आयेंगे, तब उनसे मिलना।”
“माँ, मैं मर्द बनूँगा।”
“तुम मर्द ही हो बेटा।”
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इन्दिरा गाँधी और संजय गाँधी हमारी रोज की चर्चा में शामिल थे। नसबन्दी का कोई कार्यक्रम अपने ऊफान पर था। माँएँ अपने बड़े बेटों को बाहर जाने से रोकने लगी थीं। दीवारों पर बच्चों ने चॉक से लिख दिया था, इन्दिरा हटाओ, इन्द्री बचाओ।
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मेरे लिए सबकुछ नया था। पर मैं उस खेल को समझने में लगा था।
जून का महीना और इमरंजसी की यादों के खेल को…
अभी तो मुझे सचमुच जेपी से मिलना था। जगजीवन राम के भाषण को सुनने जाना था। इमरजंसी खत्म होते ही जैसे ही इन्दिरा गाँधी जब मेरे शहर आने वाली थीं, तो उनके मंच के नीचे गधा बांध देने वाली घटना से रूबरू होना था, इन्दिरा गाँधी के खिलाफ फैसला सुनाने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा से मिलना था। मुझे भी उस इतिहास का छोटा सा ही सही लेकिन एक किरदार निभाना था।
सब सुना सकता हूँ, अगर आप कहें तो।
(देश मंथन 23 जून 2015)