संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल मुझे मेरी सोसायटी का माली मिल गया। उसके हाथों में ढेरों किताबें थीं। दुआ सलाम के बाद उसने मुझसे बीस हजार रुपये बतौर उधार मांगे।
जाहिर है मेरी जिज्ञासा ये जानने में थी कि आखिर अचानक इतने रुपयों की उसे क्या जरूरत आ पड़ी।
मैंने यूँ ही पूछ लिया तो उसने बताया कि उसका बेटा पाँचवीं से छठी कक्षा में गया है और स्कूल वाले कह रहे हैं कि अगली क्लास में जाना मतलब दुबारा दाखिला।
मैंने पूछा, “स्कूल बदल गया है क्या?”
“नहीं, स्कूल तो वही है। वो पहली कक्षा से वहीं पढ़ रहा है, लेकिन स्कूल वाले कहते हैं कि हर साल दुबारा एडमिशन चार्ज लगेगा। हर साल यूनीफॉर्म लेनी होगी, हर साल किताबें खरीदनी होंगी। इतना सब होने के बाद महीने की जो फीस है वो तो देनी ही है।”
मैं जानता हूँ कि हमारी सोसायटी के पौधों को रोज खाना-पानी देने वाले माली की माली हालत ऐसी नहीं कि वो इस तरह अचानक आये खर्च को भुगत सके। ये भी जानता हूँ कि मोहल्ले के सरकारी स्कूलों पर जैसे मुझे भरोसा नहीं, उसी तरह उसे भी भरोसा नहीं। उसे भी अंग्रेजी स्कूल में बच्चे को पढ़ा कर बाबू बनाना है और उसकी इसी चाहत का फायदा कुकुरमुते की तरह गली-मोहल्ले में उग आये अंग्रेजी स्कूल वाले उठा रहे हैं।
माली के हाथों में किताबें थीं। मैंने पूछा कि इन किताबों को खरीद कर ला रहे हो क्या?
उसने बहुत रूंआसा होकर कहा, “सर इसे बेचने जा रहा हूँ। पिछले साल की किताबें हैं। हजार रुपये में खरीदी थी, सौ रुपये में रद्दी वाला लेगा।”
“रद्दी वाला?”
“जी, अब नये साल की नयी किताबें खरीदनी हैं।”
मुझे अचानक याद आया कि जिन दिनों मैं अमेरिका में था, मेरा बेटा वहाँ के स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहा था, एडमिशन के साथ ही स्कूल की लाइब्रेरी से उसे सारी किताबें मिल गयी थीं और जब वो पाँचवीं से छठी में गया, तो पुराने क्लास की किताबें वापस लाइब्रेरी में चली गयीं और नयी किताबें उसे दे दी गयीं। वहाँ के स्कूल में बच्चों की किताबें स्कूल में ही उनकी आलमारी में रखी रहती थीं, बच्चे सिर्फ कॉपी, पेंसिल लेकर स्कूल जाया करते थे। स्कूल में साल दर साल उन्हीं किताबों के सेट से कई-कई बच्चों को पढ़ाने का काम होता है।
माली जब मुझसे कह रहा था कि यहाँ हर साल सभी बच्चों को नयी किताबें खरीदनी होती हैं, तो मुझे अचानक याद आया कि – अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर देश है, और भारत बहुत गरीब देश है। अमीर देश साल दर साल बच्चों से किताब नहीं खरीदवाता। हम साल दर साल हर बच्चे से एक ही किताब खरीदवाते हैं और पुरानी किताबें रद्दी वाले को बेच देते हैं। हम चीख-चीख कर पर्यावरण बचाने की बातें करते हैं, पेड़ नहीं काटने की दुहाई देते हैं पर हर साल पुरानी किताबें संभाल कर उन्हें ही नहीं पढ़ा पाते।
आपको एक और बात बताऊँ?
जिन दिनों मुझे अमेरिका जाना था, अपने बेटे के स्कूल की प्रिंसिपल से मैं मिलने गया था। उनके कमरे के बाहर कम से कम पचास माता – पिता उनसे मिलने के लिए इंतजार कर रहे थे। गरमी का दिन था। बाहर लोग बेहाल बैठे अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। मुझसे प्रिसिंपल की सेक्रेट्री ने कहा कि मैडम अभी बहुत बिजी हैं, मीटिंग चल रही है। मैं भी बाहर बैठ गया। एक घंटा भर बीत गया, प्रिंसिपल साहिबा नहीं मिलीं, तो मैं जबरन उनके कमरे में घुस गया। वहाँ वो अपनी एक सहेली के साथ सोफे पर बैठ कर एसी की ठंडी-ठंडी हवा के बीच आराम से कॉफी पी रही थीं। मैंने उनसे पूछा, “लोग बाहर आपका इंतजार कर रहे हैं और यह आपकी मीटिंग चल रही है?”
इस पर वो नाराज हो गयीं।
मैं अमेरिका के उस स्कूल में यूँ ही लोगों से पूछता – पूछता अपने बेटे के साथ पहुँच गया था। वहाँ मैंने प्रिंसिपल से मिलने की इच्छा जतायी। कुल मिला कर दो मिनट के बाद प्रिंसिपल मेरे सामने थी। मैंने दाखिले की बात की तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, “क्यों नहीं। जरूर। आप कल सुबह आ जाइए।”
ऐसे ही लिखते-लिखते मुझे याद आया कि हमारी परंपराएँ तो महान हैं, अमेरिका के लोग तो संस्कारहीन हैं।
फिलहाल मेरी इन कोरी भावनाओं से कुछ नहीं होने वाला। माली को बीस हजार चाहिए थे, उसका जुगाड़ किया और चल पड़ा अपने दफ्तर की ओर।
(देश मंथन, 14 अप्रैल 2015)