संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैंने माँ को बहुत कम नाराज होते देखा था। उसकी आवाज तो कभी ऊँची होती ही नहीं थी। लेकिन उस दिन माँ बहुत तिलमिलाई हुयी थी। पता नहीं कहाँ से वो कुछ सुन आयी थी।
दीदी का स्कूल जाना बन्द ही था, और इधर कुछ दिनों से मैं गर्मी की इस दोपहरिया में बिल्कुल घर से बाहर नहीं निकल रहा था, ऐसे में जब कुछ गड़बड़ी हुई ही नहीं, तो माँ किस पर बिगड़ रही थी।
माँ एक स्वतंत्रता सेनानी की बेटी थी। मेरे नाना लेखक और शिक्षक थे और उन्होंने अपने तरीके से आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया था। आजादी के बाद जब उन्हें तथाकथित ताम्रपदक और स्वतंत्रता सेनानी पेंशन जैसी सुविधाओं का ऑफर मिला होगा तो निश्चित ही वो बिफर उठे होंगे। माँ कहती थी कि तुम्हारे नाना ने यह कह कर सारी सुविधाएँ लौटा दी थीं कि देश की सेवा उन्होंने किसी के कहने की वजह से नहीं की। ये देश माँ है और माँ की सेवा के बदले जो कीमत वसूलते हैं, उन्हें पुत्र कहलाने का हक ही नहीं होता।
नाना ने कभी सरकारी नौकरी नहीं की। किसी प्राइमरी स्कूल में ऐसे ही पढ़ाया करते थे। पैसों की बहुत चिन्ता नहीं थी, रहन-सहन गाँधीवादी था। पहले इलाहाबाद में चाँद और भविष्य जैसी पत्रिकाओं में उन्होंने संपादन का काम किया था और भगत सिंह की जीवनी छापने के जुर्म में अंग्रेजों ने उन्हें कई महीने कारावास की सजा भी सुनायी थी। महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर से उनका नियमित पत्र व्यवहार होता था। जाहिर है माँ की रग-रग में साहित्य और देश प्रेम बसा हुआ था। ऐसे में उस दिन माँ बहुत नाराज सी होकर पिताजी से कह रही थी कि अच्छा हुआ बाबूजी आज नहीं हैं। होते तो शर्म से मर जाते।
मेरे दोनों कान खड़े थे।
माँ ऐसा क्यों बोल रही है कि आज उनके बाबूजी होते तो शर्म से मर जाते। ऐसी क्या बात हो गई। देश में इमरजंसी लग गई है, दीदी तो अब स्कूल नहीं जाती, लेकिन विमला दीदी और दीदी अभी भी घर की छत पर घन्टों बातें करती ही हैं, शायद माँ इसीलिए नाराज हो रही है।
पिताजी मुस्कुरा रहे थे।
माँ ने पूछा, “ये देवकांत बरुआ है कौन? इसका दिमाग खराब हो गया है?”
पिताजी ने करीब-करीब हंसते हुए कहा, “काँग्रेसी नेता हैं ये देवकांत बरुआ जी।”
“देखिये, ये क्या बोल रहा है। कह रहा है, इन्दिरा इज इन्डिया। ओह! इतनी चाटुकारिता? कोई आदमी किसी के लिए ऐसा कैसे कह सकता है?”
माँ बहुत कम नाराज होती थी। मैं सच कह रहा हूँ कि मैंने माँ को कभी ऊँचा बोलते नहीं सुना था। पर आज वो आहत थी। जबसे इमरजंसी लगी थी, पता नहीं क्यों माँ कुछ उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी।
खैर, मेरी समझ में ये नहीं आया कि किसी देवकांत बरुआ ने अगर ‘इन्दिरा इज इन्डिया’ बोल भी दिया तो इसमें ऐसी क्या बात हो गई। क्या इन्दिरा गाँधी के बारे में किसी को कुछ बोलने का हक नहीं। हो सकता है, माँ ने बताया था कि आजकल बोलने पर बहुत पाबंदी लगी हुयी है।
मुझे विमला दीदी को समझाना पड़ेगा। वही सबसे ज्यादा बोलती हैं। सबसे कहती फिरती हैं कि इन्दिरा गाँधी मर्द हैं। कहीं इन्दिरा गाँधी ने सुन लिया तो? ऐसे भला किसी का लिंग बदला जाता है?
पर मैं रुक जाता।
मेरे साथ यही परेशानी है। बात शुरू कहीं से होती है, चली कहीं जाती है। मेरी चिन्ता जयप्रकाश नारायण में सिमटी थी। माँ-पिताजी की चिन्ता भी जयप्रकाश नारायण में सिमटी थी। पिताजी को खबर मिल चुकी थी कि जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया है।
अगर आप अभी मुझे मना कर दें कि संजय सिन्हा तुम इमरजंसी पर मत लिखो, तो मेरा यकीन कीजिए, मैं इसी वक्त उस इमरजंसी से हट कर दीदी की जिन्दगी में मचने वाले तूफान की चर्चा करने बैठ जाऊँगा, या फिर मैं इमरजंसी के बाद इन्दिरा गाँधी का भाषण सुनने जाने, और उनके भाषण देने वाले स्टेज के नीचे गधा बांधने वाली घटना की चर्चा कर सकता हूँ।
पर अभी तो हम सबका मन जयप्रकाश नारायण में अटका हुआ है।
कई नेताओं की गिरफ्तारी की खबरें आने लगी थीं। वैसे तो हम जिस शहर में थे, वहाँ सारी खबरें उसी वक्त नहीं पहुँच सकती थीं। टीवी वहाँ पहुँचा नहीं था, पिताजी की निगाह में रेडियो एक अजीब किस्म का भोंपू बन गया था, अखबार मैं पढ़ता नहीं था। मेरे लिए सूचना के एकमात्र सोर्स थे पिताजी। पिताजी को खबरें कहाँ से मिलती थीं, ये मेरी दिलचस्पी का विषय नहीं था। पिताजी बहुत बड़े थे, बड़े लोगों को सारी बातें पहले से पता होती हैं। पिताजी और माँ घर में अक्सर इमरजंसी पर चर्चा करते थे। उनकी चर्चा मेरी जानकारी का तब एकमात्र आधार थी।
जेपी की गिरफ्तारी की कहीं से खबर मिल चुकी थी। मोरारजी देसाई की गिरफ्तारी की खबर भी मिल चुकी थी। पिताजी माँ को बता रहे थे कि दिल्ली में हजारों लोगों को आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत बन्द कर दिया गया है।
इमरजंसी गर्मी में लगी थी। अब सर्दी शुरू हो चुकी थी। कहीं से पिताजी को खबर मिली कि जयप्रकाश नारायण की तबीयत खराब हो गई है। वो जेल में ही बीमार पड़ गये हैं। फिर उन्होंने बताया कि बंबई मे कोई जसलोक अस्पताल है, जेपी को वहीं भर्ती कराया गया है। पिताजी कम बोलते थे। अपनी राय बहुत कम रखते थे। मुझे लगता है कि अगर वो पत्रकार होते तो एक सधे हुए रिपोर्टर की भूमिका में होते। एक रिपोर्टर को कैसा होना चाहिए, ये कई लोग मुझसे पूछते हैं। मैं हमेशा कहता हूँ कि रिपोर्टर को सिर्फ उतना ही बोलना चाहिए, जितना वो देखता है। उसके आगे देखने की जिम्मेदारी संपादक की होती है। खबरों की तह तक रिपोर्टर अगर जाये तो भी उसे अपने विचार नहीं थोपने चाहिए। लेकिन अब रिपोर्टर की ट्रेनिंग ‘सनसनी’ के रूप में होती है। वो देखता कम, सोचता अधिक है। वैसी खबरें तथ्य की कसौटी पर फटाक से गिर जाती हैं, जिन में व्यूज अधिक होते हैं। पिताजी अपनी राय कम रखते, सीधे-सीधे इतना कहते कि ऐसा सुना है। माँ उस खबर की मीमांसा करतीं। हालाँकि माँ भी बहुत कम बोलती थीं, लेकिन उस दिन माँ कह रही थीं कि जेपी को तो लगता है जेल में ही मार डाला जाएगा।
इमरजंसी लगने से करीब साल डेढ़ साल पहले से हमारे घर में जेपी की चर्चा चल रही थी। जयप्रकाश नारायण ने इन्दिरा गाँधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। हमारे स्कूल के बाहर दीवारों पर बड़े बच्चों ने लिख दिया था, “जयप्रकाश तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।” “जेपी जिन्दाबाद।”
अजीब बात थी। कोई कह रहा था जेपी जिन्दाबाद, तो किसी ने उन्हें पकड़ कर जेल में ही डाल दिया था।
पिताजी एक दिन किसी आर प्रसाद की चर्चा कर रहे थे। ये मुझे बहुत बाद में पता चला कि ये आर प्रसाद जेपी के भाई थे।
आर प्रसाद ने शायद इन्दिरा गाँधी को एक चिट्ठी लिख कर ये बात बतायी थी कि जेपी की तबीयत बहुत खराब है और वो कुछ महीने ही जीवित रह पाएँगे। और फिर पिताजी ने ही ये भी बताया कि जेपी को छोड़ दिया गया। पिताजी खबरों की मीमांसा नहीं करते थे, लेकिन उस शाम वो माँ को बता रहे थे कि अगर सचमुच जेपी की तबीयत इतनी खराब है कि वो कुछ महीने ही बचेंगे तो सरकार ये जोखिम उठाने को कतई तैयार नहीं होगी कि उनकी मौत जेल में हो। इतने बड़े नेता की जेल में मौत का मतलब है सरकार की भारी बदनामी।
मैंने ऐसा सुना था कि जिस दिन महात्मा गाँधी की मृत्यु हुई थी, सारा देश शोकमग्न था। इतना शोकमग्न कि लोगों ने घरों में खाना तक नहीं पकाया था।
जिस दिन मेरी बड़ी दादी यानी पिताजी की बड़ी माँ का निधन हुआ था, उस दिन पहली बार मैंने देखा था कि घर में खाना नहीं बना था। मुझे और शायद दीदी को बहुत भूख लगी थी, तो विमला दीदी के घर से हमारे लिए खाना आया था।
आज जब जेपी के बहुत बीमार होने की बात माँ ने सुनी तो उसने अपनी आँखें साड़ी के पल्लू से पोछीं। मुझे नहीं लगता कि माँ कभी जयप्रकाश नारायण से मिली होगी। माँ शायद गाँधी जी से भी कभी नहीं मिली होगी। लेकिन उसके मन में इन दोनों नेताओं के लिए अगाध प्यार था, ऐसा मैं सोच सकता हूँ। मुझे नहीं लगता कि आदमी की इससे बड़ी भी कोई उपलब्धि हो सकती है कि वो बिना मिले, बिना किसी को कुछ दिये भी उसकी आँखों में आँसू की एक बूंद बन सकने का दम रखता हो। इस लिहाज से जेपी हमारे घर में परिवार के एक सदस्य के रूप में शामिल हो चुके थे।
पिताजी और माँ अक्सर घर में आजादी के आंदोलन की चर्चा किया करते थे। उनकी इन्हीं चर्चाओं में कभी चर्चिल का कहा शामिल था, जिसमें उन्होंने गाँधी और गाँधीवाद को कुचलने की बात कही होगी। चर्चिल का कोई चेला था, जिसका नाम लिनलिथगो था। उसकी बात करते हुये पिताजी कहते थे कि वो लोग गाँधी के मरने की कामना तो करते थे, लेकिन वो उनकी मौत को ‘शानदार मौत’ में नहीं तब्दील होने देना चाहते थे। गाँधी जी के उपवास पर किसी ने लिखा था कि वो भूखे रह कर अगर दुनिया को अलविदा कह गये तो अंग्रेजी हुकूमत की भारी बदनामी होगी, इसलिए उन्हें ऐसे नहीं मरने देना है।
शायद इसीलिए जेपी को छोड़ दिया गया है। ये सरकार जेपी की मौत को चर्चित होने देने को तैयार नहीं होगी। क्या पता जेपी को कुछ ऐसा खिलाया पिलाया गया हो कि उनकी तबीयत खराब हो जाए। कुछ भी हो सकता है।
मेरी समझ में बहुत सी बातें नहीं आती थीं। लेकिन मेरे कानों में पड़ी वो सारी बातें कुछ वैसी ही थीं, जैसी बातें अभिमन्यु ने सुभद्रा की कोख में अपने पिता अर्जुन के मुँह से सुनी थीं। मुझमें और अभिमन्यु में इतना ही फर्क हो सकता है कि अभिमन्यु ने जन्म के बाद ये जानने की कोशिश नहीं की कि उस कहानी का पूरा सच क्या था। पर मेरी माँ तो इमरजंसी के बाद भी पाँच साल जीवित रही, मुझे पूरा सच सुनाने और समझाने के लिए।
जेपी की मौत होनी थी 8 अक्तूबर 1979 को। माँ की मौत होनी थी 29 मार्च 1980 को।
दोनों की मौत में पाँच महीने का फासला था।
इमरजंसी के बाद तक माँ जितने दिन जीवित रही, उसने मुझे चक्रव्यूह में फंसने और उससे निकलने की पूरी कहानी सुना दी थी। ये माँ की कहानियों का ही असर रहा होगा कि एक दिन मैं पटना में जेपी के घर उनसे मिलने पहुँच गया था। ये माँ की कहानियों का ही असर रहा होगा कि इमरजंसी के बहुत से नामों से मुझे भविष्य में मिलने का मौका मिला। ये इमरजंसी और जेपी का ही असर था कि दीदी की असमय शादी करा दी गई। बहुत कुछ हुआ, बहुत कुछ होना बाकी था।
इमरजंसी से इन्दिरा गाँधी और जेपी की जिन्दगी में जितनी हलचल मची, उससे कम हलचल अभी दीदी की जिन्दगी में, माँ की जिन्दगी में और मेरे जिन्दगी में नहीं मचने वाली थी।
बहुत कुछ होना था। सबको मैं दस्तावेज बना कर यहाँ आपके सामने रख सकता हूँ। मैं जेपी के उन फौजियों की कहानियाँ भी सुना सकता हूँ, जिन्होंने बाद में उसकी कीमत अलग तरह से देश से वसूली। अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाले तो ताम्रपदक, कुछ पेंशन और रेलवे पास पर संतुष्ट हो गए थे, पर जेपी के नाम पर राजनीति और पत्रकारिता में आने वालों ने जो कीमत वसूली उसकी भरपाई संभव नहीं।
लेकिन आगे जेपी के नाम पर सबसे ज्यादा तूफान मचा दीदी की जिन्दगी में।
लिखूँगा, सब लिखूँगा। पर आप कहेंगे तभी…
(देश मंथन 26 जून 2015)