इमरजंसी – एक याद (2)

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

शायद पिताजी को इस बात का आभास हो चुका था कि दिल्ली में कुछ हो रहा है। वैसे तो पिताजी की आदत में शुमार था सुबह और शाम को रेडियो पर खबरें सुनना। सुबह आठ बजे रेडियो ऑन था।

रेडियो पर समाचार आने से पहले मैं अपने होठों को घुमाता और समाचार वाचक की तरह पहले ही बोलने लगता था, “ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनन्दन पांडे से समाचार सुनिए।”

दीदी मेरे ऐसा करने पर हंसती, तो मैं कहता कि तुम भी तो रेडियो पर लता मंगेशकर का गाना बजने से पहले ही गुनगुनाने लगती हो।

दीदी झेंपती। मैं उसे छेड़ता, कहता कि कल रेडियो सिलोन पर गाना बज रहा था, “धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार…कोई आता है”, तो तुम लता मंगेशकर को फेल किए हुये थी।

दीदी का सपना था कि जिन्दगी में एक बार धर्मेंद्र से उसकी मुलाकात हो जाये। मुझे जितना याद है, दीदी की जिन्दगी में दो ही सपने थे। रेडियो पर गाना गाना और एक बार धर्मेंद्र से मिलना। हालाँकि भविष्य में उसके दो सपने और बढ़ने वाले थे। एक तो मैंने सहज ही अनुमान लगा लिया था कि उसका मन लता मंगेशकर से मिलने का भी हो सकता है, पर चौथे और आखिरी सपने का उसे भी पता नहीं था। अब जिस सपने का पता ही नहीं, उसकी चर्चा मैं अभी क्यों करूँ। जब दीदी की आँखों में सपने उगेंगे, तब चर्चा अपने आप होने लगेगी।

पिताजी ने हल्के से चुप रहने का इशारा किया। उधर से उम्मीद थी कि देवकीनंदन पांडे या ऐसी ही कोई जानी पहचानी आवाज रेडियो पर गूँजेगी। लेकिन उधर से एक महिला की खनकती हुई आवाज गूंजी।

मैंने कहा, “दीदी, लता मंगेशकर आज खबरें पढ़ रही हैं।”

“चुप बुद्धू , ये इन्दिरा गाँधी हैं। ये इन्दिरा गाँधी की आवाज है।”

पिताजी एकदम रेडियो के पास पहुँच गये। वो गंभीर थे। इन्दिरा गाँधी की खनकती हुई आवाज ने किस तरह के संकट, किस तरह के उत्पात की बातें कीं, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। लेकिन एक लाइन मेरे कानों में पड़ी, “राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 352 के तहत आपात स्थिति की घोषणा कर दी है।”

पिताजी बुदबुदाए, “वही हुआ जिसकी आशंका थी। देश में इमरजंसी लग गई। इन्दिरा गाँधी अब पूरी तरह तानाशाह हो चुकी हैं। वो सिर्फ संजय गाँधी के कहने पर चल रही हैं।”

विमला दीदी ने तो मुझसे पहले ही कह दिया था कि इन्दिरा गाँधी मर्द हैं। तो क्या पिताजी को एक महिला का मर्द बन जाना चुभ रहा है?

पर माँ भी मुझे परेशान सी दिखी। इसका मतलब बात सिर्फ मर्दानगी की नहीं।

मेरी कहानी भी सिर्फ जयप्रकाश नारायण और इन्दिरा गाँधी के आस-पास घूमती रह जाती तो शायद मैं इतिहास का कोई दस्तावेज लिख पाता। हालाँकि चौथी या पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहे बालक से इतिहास लिख देने की उम्मीद करना व्यर्थ है। लेकिन मेरी कहानी के एक महत्वपूर्ण पात्र की जिन्दगी की परिभाषा इस इमरजंसी से बदल जाने वाली थी, इसका मुझे भी भान तक नहीं था। और जब भान हुआ, तब तक बहुत पानी बह चुका था। न लौटने की गुंजाइश बची थी, न वहीं टिके रहने का सवाल पैदा हो रहा था। 

आप इसे बुझौव्वल मत समझिए।

मैं मूल मुद्दे पर आऊँगा। मै बताऊँगा कि कैसे आपातकाल की उस घोषणा ने हम सबकी जिन्दगी की सारी परिभाषा ही बदल कर रख दी। लेकिन पहले अपनी यादों को कुरेदते हुए मेरा मन इमरजंसी की उस घटना के और विस्तार में जाने का कर रहा है। हालाँकि इमरजंसी के बाद पिताजी का ध्यान रेडियो की खबरों से हट गया था। माँ से एक दिन उन्होंने कहा था कि रेडियो पर अब जो खबरें आती हैं, वो बहुत कटी-छटी होती हैं, और उस पर पूरी तरह यकीन नहीं किया जा सकता।

कई खबरें पुरानी होतीं, कुछ अजीब सी होतीं। पिताजी जेपी के बारे में सुनने और जानने को बेताब थे, लेकिन उनका कहीं कुछ अता-पता नहीं चल रहा था।

दिन बीत रहे थे। इमरजंसी को लेकर लोगों में अजीब सी सनसनी थी। सारे सरकारी कर्मचारी घबराये से रहते थे। पिताजी एक मिनट के लिए भी दफ्तर पहुँचने में देर नहीं करते। माँ रोकती रहती कि दोपहर के लिए टिफिन लेते जाइये, लेकिन पिताजी घड़ी देख कर घर से निकल जाते।

पिताजी का ट्रांसफर दूसरे शहर हो गया था, लेकिन उन्होंने फैसला किया था कि वो रोज रेलगाड़ी से उस दूसरे शहर में नौकरी करने जायेंगे, हम लोग यहीं रहेंगे।

जिस ट्रेन से वो सफर करते थे, उसमें बड़ा उल्टा मामला था। जिस ट्रेन से वो जाते उसका नाम तो 12 डाउन था, और जिससे आते उसका नाम 11 अप था। मैं मन ही मन सोचता कि जाने वाली ट्रेन का नाम 11 अप होता और आने वाली ट्रेन का नाम 12 डाउन होता तो ज्यादा अच्छा रहता। पर चीजें बेतरतीब होने लगी थीं।

खबरें भी बासी आने लगी थीं।

अब माँ का ध्यान खबरों से अधिक दीदी पर रहता। स्कूल बन्द थे। दीदी हाईस्कूल की परीक्षा देने वाली थी, लेकिन परीक्षा कब होगी किसी को पता ही नहीं था। पता तो किसी को जय प्रकाश नारायण के बारे में भी नहीं था।

मैं अगर इतिहास का लेखक होता, तो मैं अपनी यादों को सिलसिलेवार क्रमबद्ध ढँग से कागज पर उकेरता चला जाता। लेकिन मैंने शुरू में कह दिया था कि मैं इतिहास नहीं लिखने बैठा। मैं तो अपनी यादों की कहानी को बस इमरजंसी के इस महीने में कविता की पंक्तियों की तरह कुरेदने बैठा हूँ। 25 जून की वो तारीख थी, जिस दिन इन्दिरा गाँधी ने राष्ट्रपति के हवाले से देश में इमरजंसी की घोषणा की थी। अगर इस महीने को मुझे सिर्फ इन्दिरा गाँधी के नाम करना होता, तो मैं कब का सब भूल चुका होता। लेकिन मेरी कहानी में दीदी, विमला दीदी के अलावा एक और नाम इसी महीने आना था।

उस नाम की चर्चा मैं बहुत आगे चल कर कर सकता हूँ, अभी तो सबकी चिन्ता इन्दिरा को हटा कर सचमुच इन्द्री को बचाने की थी।

संजय गाँधी ने फरमान जारी कर दिया था कि लोगों को पकड़-पकड़ कर उनकी नसबन्दी करा दो। 

ट्रेन टाइम पर चलने लगी थी। 12 डाउन और 11 अप दोनों ट्रेनें जो कभी घंटे- दो घंटे देर से चला करती थी, अब मिनट दर मिनट एकदम सही समय से चलने लगी थीं।

मतलब इमरजंसी में सबसे बड़ी बात ये हो रही थी कि लोग समय पर दफ्तर जाने लगे थे। संजय गाँधी के डॉक्टर, जिसकी मर्जी हो, ऑपरेशन कर देने को व्याकुल थे। इसी क्रम में अभी पकड़े जाने वाले थे, नवीन भैया, जिन बेचारे की शादी भी नहीं हुई थी, पर ऑपरेशन हो जाने वाला था।

सबकुछ मैं याद करूँगा। पर अभी दिमाग अटका है जेपी पर।

हमारे शहर में इन्दिरा गाँधी और इमरजंसी की चर्चा ही जेपी के उस आंदोलन के बाद शुरू हुई थी, जिसमें जेपी ने छात्रों से आंदोलन की अपील की थी। जेपी ने इमरजंसी लगने के करीब साल भर पहले अपने आंदोलन की घोषणा की थी।

जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर यानी इमरजंसी के चौथे महीने में खबर आई कि नानाजी देशमुख को गिरफ्तार कर लिया गया है। पिताजी ने खबर सुनी और कहा कि ये झूठ है। नानाजी को बहुत पहले गिरफ्तार किया गया है, पर खबर अब दी जा रही है। पिताजी ने माँ से कहा कि उन्हें पक्का यकीन है कि जेपी को भी इन्दिरा गाँधी ने गिरफ्तार कर लिया है, बस किसी को खबर नहीं लगने दी जा रही। और ये रेडियो वाले? इन्होंने तो घुटने ही टेक दिए हैं, इन्दिरा गाँधी के आगे। पता नहीं किस-किस को गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन खबर एक की भी नहीं।

और एक दिन पता नहीं कहाँ से लेकिन पिताजी को खबर मिल गई कि जेपी को दिल्ली में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से इमरजंसी के अगले दिन यानी 26 जून को ही गिरफ्तार कर लिया गया था। अरे जब गिरफ्तार कर ही लिया गया है, तो उसे छिपाने से क्या फायदा? इन्दिरा गाँधी अगर मर्द हैं, तो फिर खबरों को छिपाने की क्या जरूरत?

पिताजी कभी जेपी से मिले नहीं थे, लेकिन जेपी उन्हें पता नहीं क्यों बहुत अपने से लगते थे। 

मेरी किस्मत देखिए, मुझे भविष्य में नानाजी देशमुख से मिलना था, इन्दिरा गाँधी से मिलना था, जयप्रकाश नारायण से मिलना था, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में बैठना था और भी बहुत कुछ करना था, लेकिन अभी मेरी चिन्ता भी जयप्रकाश नारायण ही थे। पिताजी ने इतनी कहानियाँ सुना दी थीं कि जेपी मन में बस गये थे।

मेरी जैसी किस्मत भला किसकी होने वाली थी। मुझे तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा से मिलने का भी मौका मिलने ही वाला था, जिसने इन्दिरा गाँधी के खिलाफ फैसला सुनाया था, जिसकी वजह से इमरजंसी लगानी पड़ी, जिसकी वजह से इन्दिरा गाँधी को जेल जाना पड़ा, जिसकी वजह से संजय गाँधी की खूब थू-थू हुई। मुझे वक्त के पहिए पर सवार होकर इस सभी घटनाओं का गवाह बनना था। लेकिन अभी तो जेपी।

जेपी की गिरफ्तारी हुई थी जून में, पिताजी को खबर मिली सितंबर में।

किसी अखबार तक को भनक नहीं थी कि जेपी कहाँ हैं, कैसे हैं। सेंसरशिप जैसी कोई चीज थी, जिनसे खबरों पर नियंत्रण होता था। कई अखबारों के दफ्तरों की बिजली तक काट दी गई थी।

पिताजी ने कई बार बताया कि अंग्रेजों ने चाहे जितनी बार गाँधी जी को गिरफ्तार किया हो, अखबारों में खबर छपने से नहीं रोकने की कोशिश नहीं की।

लेकिन यहाँ तो खबरों की ही गिरफ्तारी होने लगी है। 

ये समचमुच आतंक का राज्य हो गया है।

(इमरजंसी पर आगे लिखूँ कि नहीं ये आपकी इच्छा पर निर्भर करता है)

(देश मंथन 25 जून 2015)

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