संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आपने कभी हंसों को उड़ते हुए देखा है?
जरूर देखा होगा। आपने देखा होगा कि बहुत ऊपर आसमान में अंग्रेजी अक्षर ‘वी’ के आकार में ये उड़ते चले जा रहे होते हैं।
जब मैं छोटा था और सितंबर-अक्तूबर की हल्की ठंड में घर की छत से कभी हंसों की यह उड़ान दिख जाती, तो मैं हैरान रह जाता। ऐसा लगता मानो बहुत से अनुशासित सिपाही सफेद पंखों में लिपट कर हवा में तैरते चले जा रहे हैं।
मेरे मन में ढेरों सवाल उठते। आखिर ये इस तरह ‘वी’ आकार बना कर कर क्यों उड़ रहे हैं। ये सब कहाँ जा रहे हैं। सबसे पीछे वाला सबसे आगे क्यों नहीं आने की कोशिश कर रहा। बीच वाला क्यों अपनी जगह पर उसी रफ्तार से चला जा रहा है। क्या किसी ने इन्हें निर्देश दिया है कि ऐसे ही उड़ना है। कौन है इनका निर्देशक।
बहुत से सवाल लेकर जब मैं माँ के पास आता, तो माँ मेरा सिर सहलाती। कहती कि ये मानसरोवर के राजहंस हैं।
“तो ये सारे हंस जो इस तरह एक गति से उड़ते हैं, उसका क्या मतलब हुआ?”
“ये आपस में रिश्तेदार हैं।”
“सबसे आगे वाला उनका नेता होता है। वही उड़ने की रफ्तार और दिशा तय करता है। उसके पंखों को बाकियों से ज्यादा मेहनत करनी होती है। सामने आने वाले खतरों को वो पहले पहचानता है। वो हवा को काटता है, उसके बाद बाकी के हंस हवा को काटते हुए चलते हैं, और अपने से पीछे उड़ने वाले हंसों के लिए वो उड़ान को आसान बनाते चलते हैं।”
“लेकिन माँ, सबसे आगे वाला ज्यादा मेहनत करता है और सबसे पीछे वाले के लिए रास्ता आसान बनाता चलता है, ऐसा क्यों? उससे उसे क्या फायदा?”
“मैंने कहा न कि ये रिश्तेदार हैं। ये एक दूसरे का साथ देते हुए चलते हैं। ये बहुत दूर तक उड़ते हुए चले जाते हैं। ये एक बार में दस घंटे उड़ सकते हैं।”
“दस घंटे?”
“हाँ, बेटा। कई बार उससे भी ज्यादा। इनमें सबसे आगे वाला हंस सबसे अधिक मेहनत करता है। फिर जब वो थकने लगता है तो सबसे पीछे वाला उसकी जगह लेने पहुँच जाता है। ऐसे ही सारे हंस अपनी-अपनी जगह उड़ते हुए बदलते चले जाते हैं। मैंने बताया न, सबसे आगे वाला नेता होता है और वो दूसरे हंसों के लिए उड़ान को आसान बनाता हुआ अपने पंखों से हवा को काटता चलाता है। पीछे वाले को कम मेहनत करनी होती है, उसके पीछे वाले को और कम। इस तरह ये बीच हवा में ही सुस्ताते हुए, एक दूसरे का साथ देते हुए हजारों मील का सफर तय कर लेते हैं।”
माँ फिर अपने संजू बेटे को हंसों की ढेर सारी कहानियाँ सुनातीं। बताती कि हंस मोती खाते हैं। हंस दूध और पानी में फर्क पहचानते हैं। एक बार एक शिकारी ने किसी हंस को मार दिया तो कैसे सिद्धार्थ ने उसे बचा लिया। शिकारी ने सिद्धार्थ से जब अपना शिकार माँगा तो उन्होंने कैसे उसे समझाया कि मारने वाले से बचाने वाले का हक ज्यादा होता है और फिर मैं उन हंसों के साथ उड़ता हुआ बहुत दूर चला जाता। मेरे पंख तब कमजोर थे, लेकिन मुझसे आगे वाला हंस मेरे लिए उड़ान को आसान बनाता चला जाता। मेरे हिस्से की मेहनत वो करता और हम साथ-साथ आसमान में बहुत दूर उड़ते चले जाते।
मेरे मन की उड़ान में सबसे आगे वाला हंस पिताजी की तरह लगता। फिर माँ। फिर चाचा-चाची, हम सारे भाई-बहन और दादी भी।
दादी तो बूढ़ी हो गयी है।
कोई बात नहीं। पिताजी के मजबूत पंख सबके लिए रास्ता बनाते चलेंगे। पहले दादी ने पिताजी के लिए रास्ता बनाया होगा, अब पिताजी दादी के लिए बना रहे हैं। ये परिवार है।
पिताजी थक जायेंगे तब?
तब माँ आगे हो जायेगी। फिर चाचा आगे हो जायेंगे और उड़ते-उड़ते मैं भी तो बड़ा हो जाऊंगा, फिर मैं आगे हो जाऊँगा। मैं पिताजी से कहूँगा कि आप आराम कीजिए, मेरे पंख सबके पंखों को आराम देंगे।
मेरे पंख सबको साथ लेकर उड़ेंगे।
जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो सबको हंसों के बारे में बताऊँगा। बताऊँगा कि आदमी भी चाहे तो ऐसे साथ-साथ बहुत दूर तक उड़ सकता है।
एक दिन मैं बड़ा हो गया। बहुत कोशिश की, लेकिन आदमी ऐसा कहाँ होता है? वो एक बार आगे हो जाता है, तो सिर्फ अपने लिए सोचने लगता है। उसे पीछे वालों की चिंता नहीं रहती। कई बार पीछे चलने वाले भी आगे निकलने की होड़ में उस अनुशासन को तोड़ देते हैं। कई बार तो अपने पंखों से दूसरों के लिए हवा काटने की जगह उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं।
माँ तो कहती थी कि भगवान के बनाए सभी जीवों में आदमी सबसे बुद्धिमान होता है, लेकिन मुझे तो हंस बुद्धिमान लगते हैं। सबको साथ लेकर उड़ते हैं। एक दिन में दस घंटे उड़ते हैं। हजारों मील उड़ते हैं। सबसे कमजोर भी उनके साथ उड़ लेता है।
आदमी ऐसा कहाँ करता है?
अब माँ नहीं है।
होती तो पूछता, “माँ, इन हंसों को ‘रिश्तों’ का पाठ किसने पढ़ाया?”
(देश मंथन, 06 अप्रैल 2015)