क्या होगा, जब आयेगी इंटरनेट की सुनामी?

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क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार:

इंटरनेटजीवियों के बारे में यह खबर बिल्कुल भी अच्छी नहीं है! इंटरनेट कंपनियाँ जरूर इससे खुश हो लें, लेकिन मुझे तो इसने थोड़ा डरा दिया है। वैसे, यह बात तो सभी जानते हैं कि इंटरनेट के बिना अब न दुनिया चल सकती है और न लोगों की जिंदगी!

लेकिन इस ‘अन्तर्जाल’ के ‘इंद्रजाल’ में लोगों के प्राण इस तरह अटक चुके हैं, ऐसा शायद किसी ने सोचा भी न हो!

इंटरनेट के लिए सब छोड़ देंगे!

अभी इंटरनेटजीवी दुनिया पर एक सर्वे आया है। भारतीय कंपनी ‘टाटा कम्युनिकेशंस’ ने दुनिया के छह देशों – अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, सिंगापुर और भारत में यह अध्य्यन किया। सर्वे की सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों ने कहा कि इंटरनेट कनेक्शन न हो तो उन्हें लगता है कि वे दुनिया से बिल्कुल कट गये हैं, अलग-थलग पड़ गये हैं, पीछे छूट गये हैं, गुस्सा आने लगता है, चिंता बढ़ जाती है, खोया-खोया-सा लगता है। हैरानी की बात यह है कि ऐसा महसूस करने वालों में भारतीय सबसे आगे हैं। 82 प्रतिशत भारतीय ऐसा ही मानते हैं, जबकि जर्मनी में ऐसा मानने वालों की संख्या सबसे कम यानी 45 प्रतिशत है। ऐसा इसलिए है कि भारत में लोग दिन भर में सबसे ज़्यादा यानी हर दिन औसतन छह घंटे से भी ज्यादा समय इंटरनेट पर बिताते हैं! भारतीयों का हाल यह है कि वे बिना इंटरनेट के सात घंटे से ज्यादा रह ही नहीं सकते। इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि लोगों ने कहा कि वे इंटरनेट के लिए शराब, टीवी, चॉकलेट, खेलकूद और यहाँ तक कि अंतरंग संबंध को भी छोड़ देंगे!

आधा दिन इंटरनेट पर!

यानी इंटरनेट इस्तेमाल करने वाला हर भारतीय औसतन अपना एक चौथाई दिन इंटरनेट पर बिताता है. इसका मतलब यह हुआ कि ज़्यादातर भारतीय युवा औसतन करीब-करीब नौ से बारह घंटे हर दिन इंटरनेट पर बिताते हैं, क्योंकि 35 पार की उम्र के बाद लोगों का आनलाइन रहने का समय घटता जाता है। जो जितना बुजुर्ग, वह उतना कम ऑनलाइन!

यही चिंता की बात है। इंटरनेट धीरे-धीरे युवाओं की अकेली ऐसी खिड़की बनता जा रहा है, जिसके जरिये वह दुनिया को, समाज को, अपने आसपास को देखते, जानते, समझते, पहचानते और जाँचते-परखते हैं। उनका पूरा जीवन आभासी जगत (वर्चुअल स्पेस) में सिमट कर रह गया है। शहरों में जैसे ही बच्चे होश संभालते हैं, नाना-नानी, दादा-दादी, माँ-बाप के हाथों से उनकी उँगलियाँ छूटती जाती हैं और की-बोर्ड और माउस के जरिये वे एक आभासी संसार में प्रवेश करते हैं, जो उनकी मानसिक बनावट को शिफ्ट, कंट्रोल, आल्ट, डिलीट, इंटर के मसाले से गढ़ता है! सब ऑनलाइन है। होमवर्क, चुटकुले, गेमिंग, दोस्त, सब ऑनलाइन! और जो ऑफलाइन है, वह है ही नहीं! या होता ही नहीं!

अब कुछ बरदाश्त नहीं!

इसीलिए उनकी वर्चुअल दुनिया तो बहुत बड़ी है, लेकिन असली दुनिया बहुत छोटी, लगभग उन कमरों जितनी, जिसमें उनका परिवार रहता है। मुहल्ले बचे नहीं हैं, अपने आस-पास के समाज से उनका वास्तविक संपर्क कट चुका है। पिछले कुछ समय से मैं इस बात पर बड़ा हैरान था कि युवा अब पहले से ज्यादा उग्र और कठोर क्यों होते जा रहे हैं? वे किसी को भी ‘स्पेस’ देने को क्यों तैयार नहीं? लिफ्ट में, सड़क पर, शॉपिंग मॉल में या सोशल नेटवर्किंग साइटों पर या कहीं भी, युवाओं को हम ऐसे क्यों पाते हैं? किसी की परवाह किये बिना लिफ्ट में पहले कैसे घुस जायें, इसका भी इंतजार न करें कि जो लिफ्ट के अंदर है, पहले उसे बाहर आने का रास्ता दे दें, कहीं से भी गुजर रहे हों, तो किसी को भी धकियाते हुए अपना रास्ता बना लें, फेसबुक-ट्विटर पर किसी पर कुछ भी कमेंट कर देना, तुरंत फैसला सुना देना, जो बात पसंद है, वह सही है बाकी सब बकवास है। जो भी इतिहास है, उसे क्या जानना-समझना, क्यों समय खराब करना, हमें तो बस अपने कल से लेना-देना है, वगैरह-वगैरह।

पहले लगता था कि ऐसा इसलिए है कि आजकल जीत का फैशन है। जीते तो हीरो और हारे तो जीरो! इसलिए जीतो और चाहे जैसे जीतो, बच्चों को शायद यही घुट्टी पिलायी जाती है! इसलिए बच्चे आजकल कुछ बर्दाश्त नहीं करते। हमारे बचपन में मुहल्ले का कोई भी आदमी किसी बच्चे को कुछ बदमाशी, बदतमीजी करता पाता तो बिना झिझक डाँट सकता था, न माने तो एक-दो हाथ जड़ भी सकता था, लेकिन आज तो पड़ोसी का बच्चा कुछ गड़बड़ करे तो कन्नी काट कर निकल जाने में ही भलाई है, जैसे कुछ देखा ही न हो! तो यह तो एक कारण है, क्योंकि अब बच्चों को सिखाया ही यह जाता है कि वे कुछ सहन न करें। माना जाता है कि सहन कर लेने से वे दब्बू हो जायेंगे और फिर इस प्रतिस्पर्धी समाज में पिछड़ते चले जायेंगे!

सामाजिक कंडीशनिंग!

और ऐसे में जब असली दुनिया के असली लोगों की असली जिंदगियों के बजाय उनका लगभग पूरा समय आभासी दुनिया में बीतने लगे तो फिर मामला और खतरनाक हो जाता है। ख़ास तौर पर भारत जैसे देश में, जहाँ इतने धर्मों, संप्रदायों, क्षेत्रीयताओं, जातियों के लोग रहते हैं। जब इन विविध पहचान वाले लोगों से वास्तविक जीवन में आपकी सीधी जान-पहचान नहीं होगी, किसी के परिवार में आना-जाना नहीं होगा, तो उनके बारे में जो भी धारणा बनेगी, वह बाहरी स्रोतों से बनेगी! और वे बाहरी स्रोत कौन हैं? सोशल नेटवर्किंग साइट पर आने वाली टिप्पणियाँ और सही-गलत सूचनाएँ! इसलिए इसमें आश्चर्य क्या कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। सोशल नेटवर्किंग साइटों की बदौलत सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएँ हो चुकी हैं। केवल सांप्रदायिक हिंसा क्यों, नस्ली हिंसा की वारदातें भी लगातार बढ़ रही हैं। अभी हाल में ही दिल्ली में तीन अफ्रीकी मूल के युवकों की पिटाई इसका ताजा उदाहरण है। उत्तर-पूर्व के लोग हमारे शहरों में अकसर ऐसी हिंसा और सामाजिक उत्पीड़न के शिकार होते ही रहे हैं।

ऐसा इसलिए कि हमारी सामाजिक कंडीशनिंग ही ऐसी हो गयी है। यह कंडीशनिंग तभी ध्वस्त हो सकती है, जब लोगों में व्यक्तिगत संपर्क बढ़े, लोग आपस में मिले-जुलें, खाये-पियें, शादी-ब्याह, तीज-त्योहारों में शामिल हों। तब ही उनके बारे में सही समझ बन सकेगी कि वे भी ठीक-ठीक आप जैसे ही हैं, आप जैसा ही सोचते हैं और आप जैसे ही रहते-सहते हैं। अभी मुझे फेसबुक पर एक सज्जन मिले, जो समझते थे कि भारत में हर मुसलिम महिला बुर्का पहनती है। जब उन्हें बताया गया कि मुसलमानों में जो लड़कियाँ पढ़-लिख गयी हैं, उनमें से ज्यादातर लड़कियाँ अब काम करती हैं, नौकरियों में हैं और बुर्के पहनती ही नहीं, तो उनकी धारणा बदली!

आत्मकेन्द्रित होती पीढ़ी!

इसलिए भारत जैसे देश के लिए युवा पीढ़ी का इस तरह इंटरनेटजीवी हो जाना बेहद खतरनाक संकेत है। परिवारों के बिलकुल सिकुड़ कर तीन-चार जनों के बीच सिमट जाने के बाद, और उसमें भी अक्सर माँ-बाप दोनों के अपने काम-धंधों में लगे होने के कारण युवाओं की दुनिया प्रायः टीवी और इंटरनेट के सहारे ही बनती है। वैसे आजकल टीवी भी युवाओं के लिए इतिहास बन चुका है। जो है, सो इंटरनेट है। सूचनाओं का सुपर हाइवे! झन्नाटे और फर्राटे से आती-जाती सूचनाएँ। इन सूचनाओं के झंझावात में कहाँ समय है उनके गुण-दोष को परखने का? जो सूचना आयी, वह सही ही होगी। जो धारणाएँ लोग बना और फैला रहे हैं, वे सही ही होंगी। फिर करियर, सफलता और पैसे कमाने की दौड़, जीतने की होड़ और किसी भी कीमत पर आगे निकलने और आगे बने रहने की जी-तोड़ कोशिश, ये सब उन्हें पूरी तरह आत्मकेंद्रित बना देने के लिए काफी है।

हमारे लिए यह स्थिति ज्यादा विकट इसलिए है कि अभी देश में इंटरनेट का फैलाव बहुत सीमित है। दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले यहाँ इंटरनेट बहुत देर में आया, तब यह हालत है। अगले चार-पाँच बरसों में इसका तेजी से विस्तार होगा और बहुत बड़ी आबादी इंटरनेट की सुनामी में बह रही होगी। तब क्या होगा? (raagdesh.com)

(देश मंथन, 29 अक्टूबर 2014)

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