खादी का जलवा

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

हिन्दुस्तान में एक राज्य है मध्य प्रदेश। उसी से टूट कर एक और राज्य बना है छत्तीसगढ़।

छत्तीसगढ़ के एक शहर, बिलासपुर में मेरी सखी Swadha Sharma रहती हैं। जो लोग पिछले साल 15 नवंबर को हमारे फेसबुक परिजन मिलन समारोह में आये थे, वो स्वधा शर्मा से वाकिफ हैं। और जो नहीं आये हैं, वो उनकी बेबाक लेखनी के जरिए उन्हें जानते होंगे। 

आजकल उसी छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अधिकारी इस बात के लिए सुर्खियों में हैं कि प्रधान मन्त्री की यात्रा में उन्होंने नीले रंग की कमीज पहनी थी। साथ में तपती दुपहरिया में काला चश्मा भी लगाये हुये थे। प्रशासन ने उन्हें इस बात के लिए नोटिस जारी किया है।

आज मैं छत्तीसगढ़ की चर्चा तो करने जा रहा हूँ, लेकिन शुरुआत करुँगा मध्य प्रदेश से। मेरा जन्म बिहार के पटना शहर में जरूर हुआ, लेकिन मध्य प्रदेश मेरे रक्त में बहता है। मेरी नाक के नीचे हल्की-हल्की मूँछें मध्य प्रदेश में ही पनपीं। मुझसे जिस लड़की ने पहली बार आई लव यू कहने का साहस जुटाया था, वो मध्य प्रदेश की ही थी। ये अलग बात है कि जब मैं मध्य प्रदेश में जवान हो रहा था, तब छत्तीसगढ़ नामक राज्य का कोई वजूद नहीं था। जगदलपुर से लेकर जबलपुर तक सब मध्य प्रदेश ही था। 

आज मैं जिस मध्य प्रदेश की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उस कहानी का संबंध इस राज्य के दो नेताओं से है। एक का नाम मोती लाल वोरा है, दूसरे का नाम अर्जुन सिंह था। मैं जानता हूँ कि मेरे परिजनों को राजनीतिक पोस्ट में कोई दिलचस्पी नहीं, न ही मेरे परिजनों को वहाँ के इतिहास रूचि में है। लेकिन मैं अपनी यादों के सफर से जब गुजरता हूँ, तो मुझे याद आता है कि 1987-89 के बीच वहाँ कभी अर्जुन सिंह मुख्यमन्त्री बनते थे, कभी मोती लाल वोरा। जब मोती लाल वोरा मुख्य मन्त्री बनते तो एम नटराजन नामक आईपीएस अफसर राज्य के पुलिस महानिदेशक बना दिये जाते और जब अर्जुन सिंह मुख्य मन्त्री बनते तो बीके मुखर्जी नामक आईपीएस अफसर को राज्य की कमान सौंप दी जाती। मैं बहुत हैरान होता कि मुख्य मन्त्री के बदलने से राज्य का पुलिस मुखिया क्यों बदल जाता है। 

क्योंकि मेरे मामा भी आईपीएस थे, इसलिए राज्य के तमाम आईपीएस अफसरों से मेरा मिलना होता रहता था। मैं ब्यूरोक्रेट्स के उठने-बैठने, खाने-पीने और सीनियर से मिलने के तौर-तरीकों से वाकिफ हूँ। कब जूते पहनने हैं, कब शर्ट के ऊपर कोट पहनने की जरूरत है, ये सब मेरे लालन-पालन का हिस्सा हैं। दुनिया की निगाह में मामा बड़े ओहदे पर थे, लेकिन मामा अक्सर मुझसे कहा करते थे कि तुम किसी कीमत पर ब्यूरोक्रेटिक सर्विसेज में मत आना। इस देश में इतनी मेहनत से पढ़ लिख कर सिविल सर्विसेज की परीक्षा क्वालिफाई करने और ईमानदारी से अपने काम को करने के बाद भी, ये खादीधारी आईएएस और आईपीएस को अपना गुलाम बना कर रखते हैं । 

मोती लाल वोरा के बेटा अरविन्द वोरा मेरे मित्र थे, और एक समय हम दोनों मॉस्को यात्रा के दौरान रूममेट भी रहे थे। मैंने अरविन्द से अपनी बात कही भी थी, तो उन्होंने पापा मोती लाल वोरा से मेरी मुलाकात कराई। मैंने उनसे पूछा था कि आप लोग इस तरह इन अफसरों को परेशान क्यों करते हैं, तो वोरा साहब ने हँसी में मेरी बात टाल दी थी। मैंने उनसे कहा था कि आप लोगों के चलते आने वाले समय में बहुत से योग्य और ईमानदार व्यक्ति ऐसी नौकरी में आना ही नहीं चाहेंगे। वोरा साहब को मेरी और मेरे जैसे लोगों की चिन्ता से कोई लेना-देना नहीं था। 

मैंने भोपाल छोड़ दिया। सरकारी नौकरी नहीं करने का फैसला मामा के तबादलों और काम में पड़ने वाले राजनीतिक दबाव को देख कर मैं पहले ही छोड़ चुका था। मैं जनसत्ता में नौकरी करने दिल्ली आ चुका था। एक दिन मेरे पास खबर आई कि मध्य प्रदेश कैडर के ही एक आईपीएस अफसर और मेरे मित्र आलोक टंडन, जो बस्तर के एसपी थे, ने खुद को बाथरूम में एके-47 राइफल से शूट कर लिया है। 

आज आपको बताने के लिए मैं 1992 की उस घटना को याद कर रहा हूँ, मेरा यकीन कीजिए लिखते हुए मेरी रूह काँप रही है। सर्दियों के दिन थे। मैं कुछ दिन पहले आलोक टंडन से मिल कर आया था। आलोक नौकरी में रोज-रोज की राजनैतिक दखलअंदाजी से बहुत परेशान थे और इसी परेशानी के बीच खबर आई कि उन्होंने खुद को शूट कर लिया। किसी ने कहा कि नक्सलियों ने मार दिया। किसी ने कुछ और कहा। लेकिन मेरे लिए सच इतना ही था कि आलोक टंडन खत्म हो गये थे। 

मैं कई रातों तक सोचता रहा कि जिस लड़के ने पूरी जिन्दगी पढ़ाई में खुद को झोंक दिया था, जिसने देश सेवा के नाम पर आईपीएस बनना मन्जूर किया था, उसे खुद को मार लेने में कितनी तकलीफ हुई होगी।

खैर, आज की मेरी कहानी उन पुरानी यादों से नहीं जुड़ी। आज मेरी यादों में नीली कमीज और काले चश्मे वाला गुड़गाँव का वो आईएएस लड़का है, जिससे कुछ महीने पहले मेरी मुलाकात हुई थी। 2004 बैच का वो आईएएस लड़का, अमित कटारिया मुझसे बहुत तपाक से मिले थे। पढ़े-लिखे, संस्कारी होने की चमक से भरपूर, अमित कटारिया से मिलते ही मैंने कहा था कि मेरे साढ़ू भाई भी कटारिया हैं, क्या आप पन्जाबी हैं? तो अमित ने बताया कि वो जाट हैं, ठेठ गुड़गाँव वाले। 

चाहते तो कहीं मल्टीनेशनल कंपनी में वाइस प्रेसिंडेंट, प्रेसिडेंट और सीईओ टाइप नौकरी कर मर्सडीज और बीएमडब्लू में घूम रहे होते। एसी घर से निकलते, एसी कार में बैठते, एसी दफ्तर में घुसते और लाखों करोड़ों की सैलरी पाते। लेकिन पता नहीं देश सेवा के किस कीड़े ने काटा कि आईएएस बन गये। रायपुर में एयरपोर्ट के पास बन रहे नये रायपुर को उन्होंने कई-कई दिनों तक न सिर्फ धूप में खड़े रह कर आकार दिया, बल्कि पूरी परियोजना को सफल बनाया। 

जब मैं उनसे मिला था, तो मैंने भी कहा था कि आप सचमुच बहुत स्मार्ट हैं। एकदम छरहरे, फीट, और सधा हुआ अंदाज। 

आज वही अमित कटारिया बस्तर के कलेक्टर रहते हुए सुर्खियों में हैं। कुछ दिन पहले प्रधान मन्त्री की आगवानी करते और हाथ मिलाते हुए उनकी नीली कमीज और काला चश्मा राज्य के मुख्य मन्त्री को नहीं भाया। उन पर सरकारी अफसर के ड्रेस कोड के नियम के उल्लंघन का आरोप लगा है। मैं समझ गया हूँ कि वो अफसर अब वहाँ के हुक्मरानों की आँखों की किरकिरी बन गया है। मैं जानता हूँ कि सीनियर से मिलते वक्त आँखों पर काला चश्मा नहीं होना चाहिए, इसलिए आज मैं कुछ नहीं कहूँगा। आज मैं बिलासपुर वाली स्वधा के विषय में भी अभी नहीं लिखूँगा। मैं तो कभी मध्य प्रदेश में अपने रहने के बदले छत्तीसगढ़ के मुख्य मन्त्री से सिर्फ गुजारिश करना चाहूँगा कि सीएम साहब उसे माफ कर दीजिए। बेचारा बच्चा है। उसे नहीं पता कि आपके सामने नीली कमीज पहनना, काला चश्मा पहनना, स्मार्ट दिखना कितना बड़ा गुनाह है। प्लीज उसे मत सताइए। दिल्ली के आईआईटी नामक संस्थान में पढ़ा और फिर आईएएस बना बालक नहीं जानता कि इस देश में खादी का जलवा कितना ज्यादा है, वो जब चाहे ईमानदार और मेहनती अफसरों के हाथ मरोड़ सकता है।

प्लीज, मेरे कहने से उसे माफ कर दीजिए। अगली बार वो आपसे पूछ कर कपड़े पहनेगा। चश्मा तो पहनेगा ही नहीं। इस उपकार के बदले वो सारी जिन्दगी आपके आगे हाथ जोड़ कर खड़ा रहेगा। आप उसके रहनुमा हैं, माई-बाप हैं। आप अपने राज्य से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, नक्सल समस्या का समाधान भले न कर पाएँ, लेकिन ऐसी अनुशासनहीनता को तो आप चुटकियों में दूर कर ही सकते हैं। लेकिन एक बार और आखिरी बार उसे माफी दे दीजिए। 

(देश मंथन, 18 मई 2015)

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