संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज मेरी कहानी पढ़ने से पहले आप वीडियो पर क्लिक करके इस बच्ची के साथ अपना एक रिश्ता कायम कर लीजिएगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्ची का नाम शिवानी है या संध्या। पर फर्क पड़ता है उन लोगों की कोशिशों से जो ऐसे बच्चों की आवाज बनने को तत्पर होते हैं।
अपनी जबलपुर यात्रा में पहली बार मैं स्पेशल बच्चों के स्कूल उनसे मिलने गया। स्वर्गीय श्री आर. के. तन्खा जी के नाम पर चल रहे इस स्कूल में मैं पहली बार शिवानी से मिला।
शिवानी सुन नहीं सकती। क्योंकि वो सुन नहीं सकती, इसलिए बोल भी नहीं सकती।
मूक-बधिरों के विषय में यह जानकारी मेरे लिए नई थी कि इन बच्चों के गले में कुदरती तौर पर बोलने के सारे तंतु बिल्कुल ठीक होते हैं, फिर भी वो जीवन में कभी बोल नहीं पाते, सिर्फ इसलिए क्योंकि वो सुन नहीं सकते। ऐसे बच्चे जिन्होंने जिन्दगी में कभी कोई आवाज सुनी ही नहीं, वो जन्म से ही बोलना नहीं जानते। शिवानी भी उन्हीं बच्चों में से एक है। क्योंकि वो सुन नहीं पाती, इसलिए बोलती ही नहीं। उसे पता ही नहीं कि उसके पास आवाज है।
आर के तन्खा जी के नाम पर जबलपुर में चल रहे विशेष बच्चों के इस स्कूल में कोई डेढ़ सौ बच्चे पढ़ते हैं।
इस स्कूल में आकर मैं पहली बार जाना कि ऐसे बच्चे जो सुन और बोल नहीं पाते, वो अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर चिड़िया के पँख की तरह उन्हें हवा में लहराते हैं, और यह उनकी तरफ से ताली बजाना होता है। हम हथेलियों की करतल ध्वनी से अपनी खुशी जाहिर करते हैं, वो पँखों की तरह उंगलियों के स्पंदन से अपनी खुशी का इजहार करते हैं।
मेरे मोबाइल फोन के कैमरे में कैद हर तस्वीर की एक कहानी है।
कहानी जिन्दगी की। कहानी संघर्ष की। कहानी मानवता की। और कहानी प्रेरणा की।
जबलपुर से राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा जी और रोटरी क्लब के सौजन्य से चल रहा यह स्कूल सिर्फ एक स्कूल नहीं, यह आर्थिक मूल्यों पर मानवीय मूल्यों की जीत का एक उदाहरण है।
एक ओर जहाँ हम दूसरों की आवाज मिटा देने की दुनिया में जी रहे हैं, वहीं कोई उनकी आवाज बना बैठा है जिनके साथ ईश्वर ने ही अन्याय कर दिया है। मैं अगर आज भी रिपोर्टिंग कर रहा होता तो यकीन मानिए कि मेरा कैमरा हर रोज इस स्कूल में जाता और यहाँ पढ़ रहे स्पेशल बच्चों की एक-एक गतिविधियों को कैद कर उन्हें हम सब की जिन्दगी से जोड़ देता।
मैं जानता हूँ कि इस स्कूल में बच्चों को सामान्य जिन्दगी से जोड़ने की विद्या सिखाई जाती है। उन्हें उठना, बैठना, चलना, चित्र बनाना के अलावा ढेरों विद्या सिखाई जाती हैं। उन्हें बताया जाता है कि उनके सामने रोजमर्रा की जिन्दगी में क्या-क्या तकलीफें आ सकती हैं। वो तो सब सीख जाते हैं, सीख जाएंगे।
पर काश कोई स्कूल हमारे लिए भी होता, जहाँ हमें बताया जाता कि इनका असली दर्द क्या है। हम कैसे इनके साथ कदमताल करें। हम कैसे इन्हें आत्मसात करें।
काश हमें स्कूल में पढ़ाया गया होता कि जो बच्चे जन्म से बधिर होते हैं, वे मूक भी होते हैं। काश हमें बताया गया होता कि वो अपनी हथेलियों को जब हवा में लहराते हैं, तब वो अपनी खुशी जता रहे होते हैं। काश हमें बताया गया होता कि जब वो अपनी उंगलियों को घुमा रहे होते हैं, तब वो कुछ कह रहे होते हैं।
आज मैं इतना ही कह कर रुकना चाहता हूँ कि ये स्पेशल बच्चे तो सब सीख रहे हैं, पर एक विद्यालय ऐसा भी खुलना चाहिए, जहां हम भी कुछ सीख सकें।
मैंने अमेरिका में ऐसे स्पेशल बच्चों को पूरी तरह आत्मनिर्भर होते हुए देखा है, तो यह भी देखा है कि लोगों का नजरिया उनके विषय में बहुत सकारात्मक होता है और वो इसलिए क्योंकि वहाँ के लोगों को इनकी तकलीफ, इनकी मुश्किलों के विषय में पढ़ाया और बताया जाता है। ये लोग उनके लिए न तो कौतूहल का विषय होते हैं, न हमदर्दी के।
पर हमारे यहाँ?
हमारे यहाँ ए, बी, सी, डी की पढ़ाई होती है। डॉक्टरी और इंजीनियरी की पढ़ाई होती है। लेकिन मानवता का कोई पाठ या उसकी कोई किताब सिलेबस में है ही नहीं। हम रिश्तों की कहानियाँ नहीं पढ़ते। हम मशीन बनाने का पाठ पढ़ते और पढ़ाते हैं, आदमी बनने का नहीं।
पर ऐसे स्कूलों में आ कर लगता है कि कहीं कोई तो है, जो रोशनी का चिराग लेकर चल रहा है।
(देश मंथन 21 अगस्त 2016)