राकेश उपाध्याय, पत्रकार :
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक-ठुमुक प्रभु चलहिं पराई। निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।
बाल चरित अति सरल सुहाए, सारद सेष संभु श्रुति गाए।
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहीं राता, ते जन बंचित किए बिधाता।।
तुलसी बाबा से अच्छा बाल चरित्र का वर्णन कौन कर सकता है। प्रभु को कौसल्या जी बुलाती हैं, प्रभुजी ठुमुक-ठुमुक कर भाग चलते हैं। वेदों ने जिस तत्व को नेति नेति कहकर पुकारा, जिसका अंत शिव नहीं जान सके, उन्हें माता हठपूर्वक दौड़ कर पकड़ती हैं। धूसर धूरि भरे तन आए…भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाए.। तुलसी बाबा प्रभु की बाल लीला सुनाते हैं। देखो तो वह प्रभु कैसे अयोध्या की मिट्टी में धूल तन पर लपेट कर घुटनों के बल भागते हैं। मुँह में दही भात लगा है, जूठन से चेहरा लिपटा है, किलकारी मार कर वह इधर-उधर माँ को दौड़ाते हैं।…इस सरल भोली और मनभावन बाललीला पर तो सब न्यौछावर। आज सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों का ज्ञान इस बालरूप को देखकर भावविह्वल हुआ जाता है। तुलसी दास कहते हैं, जिन्हें संसार में रह कर भगवान स्वरूप बच्चे अच्छे नहीं लगते, उनसे बड़ा भाग्यहीन कोई नहीं।
रामचरित मानस की इसी भावना को मशहूर शायर निदा फाजली ने अपने अंदाज में बयाँ किया था कि घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए। तो बच्चों की खुशी से बढ़ कर कोई मजहब नहीं, न मंदिर और ना ही मस्जिद। इसीलिए कहा गया है कि बच्चों की जो देखभाल करे, वो समझो भगवान की ही बंदगी कर रहा है।
श्रुतियों ने कहा है-माता शत्रु, पिता वैरी, येन बालो न पाठितः। वो माता-पिता शत्रु हैं जो अपने बच्चों को सही ढंग से पढ़ाते-लिखाते नहीं। खैर ये तो अतीत के भारत का मंत्र है, सवाल वर्तमान भारत के तंत्र को लेकर खड़ा है, लाखों-करोड़ों बच्चों की जिंदगी को आज भी मूलभूत सुविधाओं की दरकार है, बुनियादी शिक्षा का हाल देखकर रूह काँप रही है। हमें किस ओर देश को ले जाना था, कहाँ लेकर आ गए? किंतु भरोसा अभी शेष है।
खैर, इस चिंतन का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा। पंडित अद्वैत शंकर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। पूरे एक महीने हो गए उन्हें ननिहाल गए हुए। वाराणसी से अब वह अपनी बहन आयूरा और माँ के साथ शिवगंगा से लौट रहे हैं। उन्हें लेने दिल्ली स्टेशन जाना है, मन में हुलास उठता है सोच-सोच कर कि महीने बाद मिलेंगे तो पहचानेंगे कि नहीं? जब एक महीने पहले मुझे छोड़ कर वो वाराणसी जा रहे थे तो धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ कर चलती ट्रेन के कोच के शीशे पर दोनों हाथ जमाए भावुक से हो गये थे। मैं खिसक रही ट्रेन के साथ उन्हें देखते हुए शीशे के बाहर तब तक चलता और कुछ दूरी तक दौड़ता रहा जबतक कि ट्रेन की गति मेरी प्रतिस्पर्धा की होड़ से बिल्कुल ही बाहर नहीं चली गयी। उनके चेहरे की रोने वाली भाव भंगिमा की स्मृति तब से हर रात को सोते वक्त मेरी आँखों में नाचती है, क्योंकर इतनी प्रीति-क्योंकर इतना खिंचाव-लगाव। क्या पिता-पुत्र का नाता या ये हर जीवधारी की ह्रदयगुहा में समाया वह अमर भाव-संकेत है जिसमें परम तत्व की खोज के बगैर जिंदगी की यात्रा यूँ अधूरी कि जो गति तेरी, वो गति मेरी।
ये जिंदगी भी जैसे रेलवे का प्लेटफार्म। लोग मिलते हैं, साथ चलते हैं, फिर बिछुड़ते हैं। भागती-दौड़ती, हंसती-गुनगुनाती तो कहीं गहरी उदासी, विदाई के वक्त भीतर तक हिला देने वाली वो रुदन भरी जिंदगी। तुलसी बाबा ने कहा है-बिछुरत एक प्राण हर लेहीं, मिलत एक दारुण दुख देहीं। प्रिय-अप्रिय की यही पहचान है कि एक के बिछुड़ने पर दुख तो दूसरे के मिलने पर दुख। बिछुड़न की कहानी भी अजब है, ब्रह्मांड रचयिता का ये अद्भुत खेल। समझना ही बड़ा मुश्किल। शहीद की जिंदगी जब बिछुड़ती है तो कैसा आवेग मन में उठता है। देश की सरहद पर जान देने वाले नौजवान भी तो किसी के कलेजे के टुकड़े होते हैं। ऐसे ही जिंदगी के प्लेटफार्म पर अपने बूढ़े पिता-राह तकती माँ, नई नवेली पत्नी, दूध मुंहे बच्चे और कच्ची गृहस्थी को दिल पर पत्थर रख कर वो छोड़ जाते हैं यही सोच कर कि अब शायद फिर कभी मिलने का वो वक्त आएगा भी या नहीं।
बनारस के अपने गाँव में अक्सर मैं अपने यदुवंशी दोस्त की जुबाँ से बिरहा टाइप ये गीत सुनता था, कुछ पंक्तियां नहीं भूलती हैं-
सोचा उ कइसन जवान रहें। जे जहान में नाम कमाइ के गइलें। माइ क नेह, बाबू का छाँह देसवा के नाते भुलाइ के गइलें। इ देसवा क खातिर सरहद पे जे जिनगी बिसारि के गइलें। सोचा उ कइसन जवान रहें।
कैसा रहा होगा वो शहीद। एक झटके में जिसने मातृभूमि की खातिर जिंदगी देने का फैसला कर लिया। माँ का प्यार, पिता की छांव को भूल कर जो दुश्मन से टकराने पहुँच गया। सरहद पर लड़ते-लड़ते अपनी जिंदगी जिसने एक पल में बिसार दी। उस जवान के बलिदान से बढ़कर और क्या चीज हो सकती है इस दुनिया में। देश तमगों की बरसात करे अब या कुछ और, लेकिन माँ-बाप और पत्नी-बच्चों की जिंदगी की छलछलाती आँखों को भला कौन सा तमगा दिलासा दे सका है कभी।
ऐसे में जब चारों ओर उदासी पसर जाती है तब दिलासा देती है वो आँखे, वो लोग जो जिंदगी के बहुत करीब होते हैं,जिनसे माटी और खून, पुरखों और परंपराओं, प्रेम और प्राण, गांव-देश-देह-देहात, देशज-संस्कृति और लोक-संस्कारों का रिश्ता जुड़ा होता है। पुरखों की विरासत तब दिलासा बन कर खड़ी होती है और वह तत्वज्ञान जीवन को संबल देने वाला दर्शन बनकर खड़ा होता है जिसमें मृत्यु फिर से जन्म लेने का महोत्सव होती है, जाने कौन जो चला गया, फिर से नयी चिंगारी बन कर किस रूप में कितनी संभावनाओं के साथ किसकी गोद में फिर से जन्म लेगा। पुनर्जन्म का यही तत्वज्ञान भारत के लोगों को संसार में सबसे अनूठा और सबसे शक्तिशाली दर्शन देकर अमरता का पथिक बना देता है जिसमें माँ से लेकर बच्चे-युवक और बुजुर्गों तक के माथे पर लाल लाल अंगार कहीं सिंदूरी रूप में तो कहीं तिलक बन कर सदा के लिए चिपक जाता है ये बताने के लिए कि इस अग्नि को जीवन में एक पल के लिए भी मत भूलना। यह अग्नि ही तुम्हारी आत्मा में ज्योति स्वरूप समायी है, तुम्हारा असल सृजन-महाश्रृंगार और यह अग्नि ही तुम्हारा प्राणतत्व, तुम्हारे जीवन की अंतिम मंजिल भी यही अग्नि। माथे पर प्रतीक रूप अग्नि यह तुम्हारा तिलक। इस तिलक को माथे पर लगाना तो हमेशा सोच कर लगाना, शोक-मोह त्याग कर लगाना और लगाना तो अपना सब कुछ राख समझ कर लगाना। इस अंगार रूपी तिलक को धारण करने का मतलब भलीभांति समझ लेना क्योंकि एक बार मनोमष्तिष्क पर अग्निमय हुए नहीं कि तुम्हारा सबकुछ भस्मीभूत, सब स्वाहा। व्यष्टि नहीं तब सब कुछ समाज और सृष्टि के हित के लिए।
जिसे वेदों ने कहा- इदं न मम्, इदम् राष्ट्राय तो उपनिषदों ने समझाया-
वायुरनलिम अमृतंअथेदम भस्मांतम शरीरम। ऊं क्रतो स्मर, क्रतम स्मर, क्रतो स्मर, क्रतम स्मर। (इसावास्योपनिषद)
(पंच तत्वों से बना यह शरीर चिता की चिंगारी के साथ मिट्टी, हवा, पानी, आग और गगन में देखो समा रहा है, हे आत्मत्व, अब अपने कर्म का चिंतन करो कि तुमने इस जीवन में किया क्या है।)
तो यही अग्नि हमारी थाती है, हर पीढ़ी के साथ आगे बढ़ती है, नया जन्म लेती है, बाल रूप में फिर से हंसती और मुस्कुराती है, गंगा-यमुना के मैदान में इस बालसुलभ दर्शन के सामने मृत्यु ने सदा ही माथा नवाया है क्योंकि यह लाल अंगार हर माथे पर तिलक बन कर सुशोभित होता है, और सबसे पहले मृत्यु को ही दूर ढकेलता है। यह तिलक रूपी लाल अंगार अमृतपुत्रों के महान जीवन दर्शन का सबसे मुखर प्रतीक है, इस नश्वर संसार को यही समझाने के लिए कि धधकती चिता में सब कुछ भस्म कर डालने वाली नाचिकेत-अग्नि आंखों के आगे रख कर जीवन जीना सीखोगे तो कभी शोक में नहीं पड़ोगे।
यमराज ने नचिकेता को इस अग्नि विद्या का ज्ञान दिया था-
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध, स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन्।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।
ओ रे नचिकेता, मैं उस अग्नि विद्या को तुझे बताता हूँ जिससे स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है, मुझसे वह ज्ञान सीख लो। यही अग्नि जो वेदविदों की ह्रदयगुहा में प्रतिष्ठित है, जिसे जान कर अनन्त स्वर्ग लोक प्राप्त करने का साधन मिल जाता है। ….वह जीवन मुक्ति दिलाने वाली अग्नि तुम्हारे नाम से इस संसार में विख्यात होगी।….तवैव नाम्नाः भवितायमग्निः अर्थात नाचिकेत अग्नि।
भारत के गाँवों ने इस अग्निमय जीवन-दर्शन को बखूबी समझा-जाना और जीवन में धारण किया है। इसीलिए बनकटी माई हों फिर अन्हवट बाबा या कामाख्या देवी या फिर संकटमोचन या काशी विश्वनाथ, बगैर अग्नि से निकले इस रक्त-पुष्प को माथे पर धारण किए कोई साधना-पूजा-पाठ पूर्ण नहीं होता। पंडित अद्वैत शंकर ने वाराणसी के ग्राम जीवन के प्रवास में इस नाचिकेत-अग्नि को भरपूर अंगीकार किया। मेरी ननिहाल से शुरू कर अपनी ननिहाल तक हर मंदिर के आगे लाल लाल तिलक धारण कर वाराणसी के तुलसी-आंगन में जम कर घुटनों के बल दौड़ लगायी। नानी की गोद में खेले, फिर नाना की गोद में झूमे। दादी-बुआ से मिले, मौसी की पायलगी की, मेरे मामा-मामी का जी हुलसाया, गाँव में हर बुजुर्ग आँख में मेरे बचपन को ताजा किया कि अरे रकेसवा क बेटवा हव। माँ और बहनों का पालना तो उनके बगैर अधूरा है ही।
(देश मंथन 08 जुलाई 2016)