‪‎यादें‬ – 11

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

एक राजा था। दुष्ट और महामूर्ख था। एकबार एक साधु ने उसे दिव्य वस्त्र दिया और कहा कि ये ऐसा वस्त्र है, जो सिर्फ उसी व्यक्ति को नजर आयेगा, जिसकी आत्मा में छल-कपट न हो, जो अच्छा व्यक्ति हो। ऐसा कह कर उसने राजा के सारे कपड़े उतरवा दिये और उसे दिव्य वस्त्र पहना दिया।

राजा ने खुद को देखा तो वो संपूर्ण रूप से नंगा खड़ा था। वो सोच ही रहा था कि साधु से कहे कि बाबा मै तो नंगा दिख रहा हूँ, पर उसे याद आया कि ऐसा कहते ही ये साबित हो जायेगा कि उसके मन में छल-कपल है, वो दुष्ट है। वो साधु की ओर देख ही रहा था कि साधु ने कहा कि तुम बेहद स्मार्ट और दिव्य नजर आ रहे हो। न यकीन हो तो अपने मंत्रियों और सैनिकों से पूछ लो।

राजा ने मंत्रियों की ओर देखा। मंत्रियों ने देखा कि राजा नंगा है, लेकिन कौन कहे कि वो नंगा है। ऐसा कहने का सीधा अर्थ कि उसे वो दिव्य वस्त्र नजर नहीं आ रहा और जिसे वो दिव्य वस्त्र नजर नहीं आ रहा, वो तो छली-कपटी है। सबने कहा, महाराज अद्भुत वस्त्र है। आप दिव्य लग रहे हैं।

राजा खुश हो गया। अब वो नंगा ही रहने लगा, नंगा ही घूमने लगा। सबको उसकी नग्नता नजर आती, पर सब चुप रहते।

एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने गया। वो घोड़े पर सवार था, अचानक एक छोटे बच्चे की निगाह राजा पर पड़ी, वो राजा को देखते ही चिल्लाया, राजा नंगा है, राजा नंगा है।

राजा चौंका। इतना छोटा बच्चा और उसके मन में छल? मुमकिन ही नहीं। उसने बच्चे को बुलाया और उससे पूछा कि उसे क्या दिख रहा है।

बच्चे ने अपनी तोतली आवाज में कहा कि आप नंगे हैं। आपने कपड़े नहीं पहने।

राजा सच समझ गया।

फिर लंबी बातें हैं कि कैसे उसने अपने मन्त्रियों से बात की और उसे पता चला कि कोई इस डर से सच नहीं बोल पाया, क्योंकि कोई खुद को नापाक साबित नहीं करना चाहता था।

पर बच्चे तो बच्चे होते हैं। उनके मन पाक होते हैं। उनकी जुबान तोतली होती है। मुझ जैसे बच्चों की तो यादें भी तोतली होती है। 

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मेरी तोतली यादों में समाहित है, भविष्य का एक ऐसा पेशा, जिसमें मैं खुद भी आया। जो लोग पत्रकारिता पर शोध कर रहे हैं, जो लोग पत्रकारिता को समझना चाह रहे हैं, उनके लिए मेरी तोतली यादों में बहुत कुछ ऐसा मिल जायेगा जो उनके काम न भी आये तो राजा के दिव्य वस्त्र का सच उन्हें जरूर बता देगा। 

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दरअसल होता ये है कि हम अपनी यादों के सफर से जब भी गुजरते हैं, तो हम ये समझने की जहमत नहीं उठाते कि क्या वो यादें सिर्फ गुजरे हुए पल हैं, या फिर उन यादों का वजूद इतना गहरा है कि आप जो हैं, सिर्फ उन्हीं यादों के चलते हैं। हम और आप अक्सर अपने आस-पास घटने वाली हर घटना को सिर्फ समय की एक चाल मान कर उसे घटने देते हैं, बाद में हम उन्हें परिस्थितियों का विघटन मात्र मानने की भूल कर बैठते हैं। कई बार हम उसे नियती भी मान लेते हैं। अगर वो घटना देश और काल से जुड़ी है तो उसे इतिहासकार के हवाले कर देते हैं और घर परिवार की होती है तो उसे अपनी यादों में समाहित करके भूल जाते हैं।

पर सच ये है कि कुछ लोग परिस्थितियों को रचते हैं, बाकी लोग उसे भुगतते हैं। चंद ईश्वरीय घटनाओं को छोड़ दें, तो बाकी सारी घटनाएँ, जिन्हें हम भुला देते हैं, वो दरअसल आपकी जिन्दगी में रासायनिक किरणों की तरह चुपचाप ऐसे घुस चुकी होती हैं, जिसका असर तो होता है, लेकिन किरणें नज़र नहीं आतीं।

आज मैं दीदी को याद नहीं करुँगा, विमला दीदी को भी याद नहीं करुँगा। आज मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट आपके सामने सिर्फ ये याद दिलाने के लिए प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, ताकि आपको याद आए जय प्रकाश नरायण से हुई मेरी वो मुलाकात। उसके बाद कल, परसों मैं कोशिश करुँगा कि आपको ये बता पाऊँ कि आजादी के आंदोलन से लेकर इमरजंसी के बीच में पत्रकारिता कैसे पूरे देश की जिन्दगी में केमेस्ट्री की अदृश्य मगर खतरनाक किरण बन कर चुपचाप घुसती चली गयी और किसी को पता भी नहीं चला कि कब पत्रकारिता राजनैतिक दलालों के हाथ का खिलौना बन गयी।

मेरे परिजनों में से बहुत से लोग पत्रकार भी हैं। यहाँ कुरेदी जाने वाली मेरी यादों पर मुझे वो माफ करेंगे, जब मैं ये बताऊँगा कि जिस पेशे को उन्होंने सीने से लगाये रखा, वो दरअसल उनका शौक या पैशन नहीं था, वो वक्त के हाथों में कठपुतली की तरह खेलते हुए वहाँ तक पहुँचे और खुद को तुर्रम खाँ मानने की भूल करते रहे।

दरअसल समय की न दिखने वाली खरतरनाक किरणों ने उन्हें कब अपना शिकार बनाया उन्हें पता भी नहीं चला। खास तौर पर हिन्दी के ज्यादातर लोग जो जेपी आंदोलन के दौरान इस धन्धे में आये, वो आज भले इतराते फिरें कि उन्होंने अखबार चलाया, खबरें बनाईं, देश की दिशा बदल दी, पर सच ये नहीं है। सय ये है कि वो जीवन भर खुद से झूठ बोलते रहे। दरअसल उनकी पढ़ाई लिखाई ही ठीक से नहीं हुई और चन्द नेताओं के हाथ के खिलौना भर बन कर वो रह गये।, मेरी यादें तोतली हैं और तोतली यादों को आप गंभीरता से लें या न लें, पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसका मन साफ है।

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तो आज पढ़िए जेपी से एक बच्चे की मुलाकात की कहानी, जिसे मैंने पिछले साल यही लिखा था।

फिर बच्चे का क्या है, क्या पता कल वो नई कहानी लेकर यहाँ चला आये और इमरजंसी काल के तमाम पत्रकारों को याद दिला दे कि आपने जिसे अब तक दिव्य वस्त्र समझा था, वो दरअसल कभी दिव्य था ही नहीं। पर कल की बात कल। आज तो जेपी से मुलाकात की मेरी कहानी-

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11 मार्च, 2014

यकीनन पढ़ा आपने भी होगा प्रोफेसर हिगिंस के बारे में, लेकिन मैंने आत्मसात किया।

शहर में किसी नेता का भाषण हो और मैं वहाँ ना जाऊँ, तब ऐसा हो ही नहीं सकता था। जनता पार्टी इन्दिरा गाँधी को ध्वस्त कर चुकी थी और ऐसा लग रहा था कि इन्दिरा के जाते ही देश में राम राज्य आ जायेगा। बेरोजगारी मिट जाएगी, भ्रष्टाचार का नामोनिशान खत्म हो जायेगा। महँगाई छू मन्तर हो जायेगी।

उस दिन शहर में जगजीवन राम का भाषण था, और कहा जा रहा था कि जय प्रकाश नारायण आने वाले हैं । जगजीवन राम माइक पर लगे हुए थे, कह रहे थे, “कांग्रेस वाले कह रहे हैं कि जनता पार्टी सन्तरे की तरह है। ऐसे सन्तरे की तरह जिसका छिलका उतारो तो कई फाँक हो जायेंगे। मतलब ये कि पार्टी एक होकर नहीं रह सकती… मैं कह रहा हूँ कि सन्तरे का एक फाँक भी अगर कांग्रेस के मुँह में चला जाये तो उनका इलाज हो सकता है।”

गड़-गड़ तालियाँ बज रही थीं। मेरी आँखें जेपी को तलाश रही थीं। उसी जेपी को जिनके आंदोलन की शुरुआत में ही सुनयना दीदी की बदनामी हो गयी थी, और बेवजह, बेसमय उन्हें ब्याह दिया गया था। मैं जेपी का इंतजार करता रहा, लेकिन जेपी शायद तबीयत खराब होने की वजह से उस दिन नहीं आये।

फिर जब पटना गया तो अपनी क्लास के सीनियर दोस्तों से मैंने जेपी के बारे में बातचीत शुरू कर दी। मैं बिन दाढ़ी का था, लेकिन कई साल परीक्षा न दे पाने वाले जेपी के जो दाढ़ी वाले सैनिक परीक्षा और नौकरी के लिए बेताब नजर आ रहे थे, उन्हीं में से एक ने मुझे जेपी के घर का पता बताया।

अपनी साइकिल लेकर मैं चुपचाप जेपी के घर चला गया। वहाँ बहुत से लोग बैठे थे। जेपी लेटे हुए थे। मेरे जाते ही मुझसे पूछा गया कि किससे मिलना है। मैंने बेलाग कहा कि जेपी से। उन लोगों ने कहा कि जेपी बीमार हैं। मैंने कहा कि इतने लोग आ और जा रहे हैं, तो क्या ये लोग डॉक्टर हैं?

फिर कोई मुझे जेपी के पास ले गया। मैंने देखा एकदम पतले से जेपी लेटे हुए थे। रेडियो बज रहा था, और कई लोग वहाँ बैठे थे। दो-चार दाढ़ी वाले छात्र भी थे, जिनकी पढ़ाई छूट गयी थी।

उन्हीं बेरोजगार छात्रों में से कोई पूछ रहा था कि अब क्या करना है? जेपी खामोश थे। बीच में धीरे से उन्होंने कुछ कहा, लेकिन मैं सुन नहीं पाया। फिर कोई मुझे उनके एकदम करीब लेकर गया, मैंने जेपी के पाँव छूने की कोशिश की, तब तक जेपी ने मेरे सिर पर हाथ रख दिया था। ज्यादा कुछ उन्होंने नहीं कहा बस इतना कहा कि मन लगा कर पढ़ना।

मैं उलझन में था। जब दीदी की स्कूल में पढ़ाई चल रही थी तब जेपी ने छात्रों से आंदोलन का आह्वान किया था। हमारे शहर के सारे स्कूल, कॉलेज बन्द हो चुके थे। सबकी पढ़ाई लटक गई थी। स्कूल कॉलेज में सत्र साल दर साल देर से होने लगे। कई सत्र की परीक्षाएँ नहीं हुईं। जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। कोकाकोला जा चुका था, और उसकी जगह डबल सेवेन यानी 77 नाम का कोई सॉफ्ट ड्रिंक आ चुका था।

बहुत कुछ बदल चुका था। साथ ही बदल गया था दीदी की क्लास में पढ़ने वाले छात्रों का हाल। दीदी की पढ़ाई छूट चुकी थी, शादी हो चुकी थी और पिटाई होने लगी थी। उसकी क्लास में पढ़ने वाले बहुत से भैयाओं के चेहरे कुंठित होने लगे थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए?

शायद जेपी को सुनयना दीदी और उसकी क्लास के भैयाओं की कहानी पता चल गई होगी, तभी उन्होंने मुझसे कहा था मन लगा कर पढ़ना।

और मैं मन लगा कर पढ़ता रहा, तब तक जब तक माँ की मौत नहीं हो गयी। माँ की मौत के बाद मन पढ़ाई से हट गया था, लेकिन वहाँ भी अमिताभ बच्चन मेरी जिन्दगी में आ गये और कहा पढ़ो।

मैं सचमुच पढ़ने लगा।

क्लास में टीचर प्रोफेसर हिगिंस की कहानी सुना रही थी। अंग्रेजी की टीचर जब भी जॉर्ज बर्नाड शॉ के ड्रामा को पढ़ाती, तो बाकी छात्र मस्ती करते, लेकिन मैं उनके ड्रामा ‘पिगमेलियन’ को बहुत तन्मयता से सुनता। टीचर पढ़ाती हुई खो जाती और ऐसा लगता कि एलिजा डू लिटल की कहानी उनकी अपनी कहानी है।

टीचर पढ़ा रही थी कि कैसे प्रोफेसर हिगिंस ने इंग्लैंड में फूल बेचने वाली एक लड़की एलिजा को संभ्रांत लड़की में तब्दील करने का फैसला किया। ये प्रोफेसर का प्रयोग था कि अपनी विद्वता से वे किसी गंवार को संभ्रांत बना सकते थे।

फूल बेचने वाली लड़की प्रोफेसर के संपर्क में आने के बाद हाई क्लास की लड़की की तरह व्यवहार करने लगी, उनकी तरह बोलने लगी….

और एक दिन उसने प्रोफेसर से शादी का प्रस्ताव रख दिया। प्रोफेसर ने कहा कि शादी? असंभव।

एलिजा ने प्रोफेसर से सवाल पूछा कि आपके कहने पर मैंने अपना फूल बेचने का काम बन्द कर दिया, आपके कहने पर मैंने अपने समाज को छोड़ दिया, और आपके कहने पर मैंने ये संभ्रांत तरीका अपना लिया है। अब मेरा पिछला समाज मुझे अपने साथ नहीं पाता, और मुझे अस्वीकार कर चुका है। आपका असली संभ्रात समाज मुझे आज भी वही गंवार फूल बेचने वाली मानता है, ऐसे में मैं न तो घर की रही ना घाट की। अब क्या करूँ? आप शादी नहीं करेंगे तो कौन मुझसे शादी करेगा?

मुझे पक्का यकीन है कि उस दिन जब मैं जेपी से मिलने उनके घर गया था और दो-चार दाढ़ी वाले छात्र जब उनसे पूछ रहे थे कि अब क्या करना है…तो जेपी भी प्रोफेसर हिगिंस की तरह उलझन में रहे होंगे…कि सचमुच एलिजा का किया क्या जाए? जिनकी एक आवाज़ पर उन छात्रों ने अपना सबकुछ छोड़ दिया…उनके लिए जेपी के पास कोई जवाब नहीं था। और भविष्य में भी किसी जेपी के पास नहीं होगा, कभी नहीं होगा… कि आखिर उन एलिजाओं का किया क्या जाए जिसे वो उस समाज से निकाल कर नये समाज से जोड़ते हैं, सिर्फ अपने प्रयोग के लिए।

मैं भाग्यशाली हूँ, कि जब जेपी से मिला तो उन्होंने ये नहीं कहा कि पढ़ाई छोड़ दो, उन्होंने तो कहा था कि मन लगा कर पढ़ना। और मैं चाहे सेकेंड डिविजन ही लाता रहा, लेकिन पढ़ा मन लगा कर।

(देश मंथन, 03 जुलाई 2015)

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