संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
जब मैं छोटा था, तब माँ मुझे कहानियाँ सुना कर सुलाया करती थी। उन्हीं ढेर सारी कहानियों में से एक आज मुझे याद आ रही है।
पूरी कहानी सुनाऊंगा। यह भी बताऊंगा कि आज इस कहानी के याद आने की वजह क्या है। पर पहले अपने एक परिजन की उस चिंता पर चर्चा जरूरी है जो उन्होंने मुझे लेकर जताई है। मेरे एक बेहद खास परिजन का कहना है कि मैं अपना दिल फेसबुक पर खोल कर रख देता हूँ। यहाँ कितने होंगे, जो मन ही मन मुझसे इतना जलते होंगे कि उनका बस चले तो संजय सिन्हा का सारा ऐशो-आराम दो मिनट में छू-मंतर करवा दें और फिर मजदूरी करवाएँ मुझसे। उन्होंने लिखा है कि बड़ा पेंच है जिन्दगी में। दोस्तों के भेष में दुश्मन होते हैं और जिन्हें हम कभी दुश्मन समझते हैं, वो दोस्त निकलते हैं।
मेरे परिजन की चिंता जायज है।
खैर, मैं बात कर रहा था माँ की सुनाई एक कहानी की।
एक बार दो व्यक्ति एक कमरे में सो रहे थे। पहला व्यक्ति सपना देख कर रोनी सूरत बना रहा था। वो सपना देख रहा था कि उसके घर में किसी ने आग लगा दी है। उसकी जिन्दगी भर की कमाई उसकी नजरों के सामने धू-धू करके जल रही है।
दूसरा आदमी, जो ठीक उसके बगल में सो रहा था, वो मुस्कुरा रहा था। वो सपना देख रहा था कि बहुत सुंदर लड़की से उसकी शादी हुई है। शादी के बाद वो नये घर में उसके साथ रहने गया है। और यह सब देखते हुए वो मुस्कुरा रहा था।
जिस वक्त दोनों व्यक्ति सो रहे थे, वहाँ एक और व्यक्ति था, जो चुपचाप बैठा हुआ था। वो जागा हुआ था। वो दोनों को नींद में रोते और मुस्कुराते हुए देख रहा था, पर वो समझ रहा था कि दोनों सो रहे हैं, सपना देख रहे हैं।
जो व्यक्ति नींद में अपने जलते हुए घर को देख कर रो रहा था, वो जिन्दगी की हकीकत से कोसों दूर था। सत्य तो यही था कि उसका घर नहीं जल रहा था। पर वो नींद में था और नींद में एक अज्ञात भय ने उसे जकड़ रखा था।
जो व्यक्ति अपना नया घर देख कर नींद में मुस्कुरा रहा था, वो भी जिन्दगी की हकीकत से कोसों दूर था। घर बनाने के लिए जिस मेहनत और लगन की दरकार होती है, वो उसे अंजाम नहीं दे रहा था, पर नींद में उसे यह सब बहुत आसान दिख रहा था, इसलिए वो हँस रहा था।
क्या विडंबना है? जिसका लुट रहा था, उसका नहीं लुट रहा था। पर वो रो रहा था क्योंकि नींद में था। जिसका जुड़ रहा था, उसका जुड़ नहीं रहा था। पर वो हँस रहा था क्योंकि वो भी नींद में था।
पर तीसरा व्यक्ति जो वहीं, उसी कमरे में चुपचाप बैठा था, वो न हँस रहा था, न रो रहा था। वो इसलिए न हँस रहा था, न रो रहा था क्योंकि वो जागा हुआ था।
जो जागा हुआ था, वो खोने और पाने दोनों के सच को समझ रहा था।
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माँ कहती थी कि आदमी जब जागा होता है, तो न उसे हर्ष होता है, न उसे कोई शोक होता है। हर्ष और शोक दोनों नींद की चीजें हैं। जब आदमी सोया होता है, तभी वो डरा होता है, तभी वो कुछ बिना मशक्कत के पा भी सकता है। इसलिए तुम कभी किसी बात का न तो शोक करना, न हर्ष करना। जिस दिन तुम ऐसा करने लगोगे, तुम समझ लेना कि तुम नींद में हो।
पर मैं नींद में नहीं हूँ। मुझे अपना सत्य पता है।
जिन्हें मुझसे कोई उम्मीद है, उनकी उम्मीदों पर मैं अगर खरा नहीं उतरा तो वो मुझे गाली देने लगेंगे, इसकी भी परवाह मुझे क्यों करनी चाहिए?
जिन्होंने रिश्ते सिर्फ इसलिए जोड़े क्योंकि कभी काम आएँगे, या इसलिए तोड़ गये कि ये तो काम नहीं आने वाले, दोनों ही लोग सोए हुए हैं। सोए हुए लोगों की क्या चिंता करूं।
मैं तो जागा हूँ। बस बनते-बिगड़ते चेहरे देख रहा हूँ।
(देश मंथन, 26 मई 2016)