संजय सिन्हा, संपादक, आजतक
1 मार्च, 1988
मालवा एक्सप्रेस तय समय पर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रुकी थी। उसमें से एक दुबला-पतला लड़का हाथ में लोहे का बक्सा लिए नीचे उतरा था।
उसके हाथ में इंडियन एक्सप्रेस की नौकरी वाली चिट्ठी थी, पर वो खुद तय नहीं कर पाया था कि वो यहाँ रुकेगा या दिल्ली घूम कर भोपाल लौट जाएगा।
वो लड़का, जिसे उसके पिता ने बहुत सोच समझ कर संजय नाम दिया था, उसके सामने जिन्दगी के ढेरों विकल्प थे, पर उसने चुन लिया था पत्रकारिता को अपने करियर के रूप में।
इतना बड़ा शहर, बेचारा कैसे रहता? बहुत मानसिक द्वंद्व की कहानी है, उस लड़के के दिल्ली में रहने की। कभी न कभी आपकी मुलाकात उस लड़के से मैं पूरी तरह कराऊंगा।
पर अभी तो मुझे जो याद आ रहा है, वो अजीब इत्तेफाक है। जिस साल मैं दिल्ली आया था, उस साल भी यह फरवरी 29 दिनों का था। उस दिन भी 29 फरवरी को सोमवार था। और जिस दिन मैं पहली बार नौकरी करने इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुँचा था, उस 1 मार्च को भी दिन था मंगलवार।
मतलब एक दिन पहले बजट का दिन गुजरा था।
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उस पहले दिन तो मेरा रिश्ता बजट से बिल्कुल नहीं रहा। पर अगले साल मैंने महसूस किया कि अखबार के दफ्तर में बजट की तारीख सबसे बड़ी तारीख होती है। पूरे दफ्तर में तब ऐसा माहौल रहता, मानों घर में शादी की तैयारी चल रही हो।
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मेरी मुश्किल यही है कि मैं लिखने तो बैठा था बजट की तारीख की यादों को, पर मन भटकने लगा है कहीं और।
कायदे से मुझे याद करना है अखबार के दफ्तर में बजट पेश होने वाले दिन के माहौल को और टीवी के दफ्तर में बजट वाले दिन के माहौल को। पर लिखते-लिखते मुझे उस बूढ़े बाप की कहानी याद आ गयी, जिसे किसी ने मुझसे साझा किया है।
मन में वो कहानी आयी और मेरा मन करने लगा कि आज वही कहानी सुनाता हूँ। अरुण शौरी, प्रभाष जोशी, बनवारी, राम बहादुर राय और अपने जनसत्ता के ढेरों साथियों की कहानी फिर कभी सुना दूंगा। हालाँकि दिन आज का ही ठीक था, क्योंकि आज से 28 साल पहले ही मैं जीवन का अर्थ तलाशता हुआ दिल्ली पहुँचा था। पर यादों का क्या है, फिर कभी।
मेरा यकीन कीजिए, जब भी सुनाऊंगा आपको अच्छा लगेगा। आपको अच्छा लगेगा उन लोगों के विषय में जानना, जिन्हें आप पढ़ते आए हैं, उनसे जुड़ी कहानियों को सुनना।
आपको यकीनन अच्छा लगता एक अखबार के दफ्तर में बजट के दिन की कहानी को सुनना और टीवी के दफ्तर में बजट की कहानी सुनना।
पहले हम बजट वाले दिन कुछ इस तरह दफ्तर जाते, जैसे हमें ही बजट पेश करने की जिम्मदारी मिली हो। खुद को वित्त मंत्री से कम हम नहीं समझते थे। मैं क्या सारे पत्रकारों के लिए बजट वाला दिन बहुत खास हुआ करता था। मुझे याद है कि कैसे एक-एक हेड लाइन के लिए खुद प्रभाष जोशी हमारे सामने बैठ जाते थे। अपने मोटे चश्मे से वो एजेंसी से आने वाली एक-एक कॉपी को पढ़ा करते थे।
तब हम बजट की बारीक बातें बिल्कुल नहीं समझते थे। हमारे दफ्तर में तब अर्थशास्त्र की थोड़ा-बहुत या जितनी भी समझ लीजिए जानकारी थी, वो अभय कुमार दुबे को थी। वही हमें बताया करते थे कि पैसा यहाँ से आएगा, वहाँ जाएगा।
हम लोग टैक्स के दायरे में थे ही नहीं, तो टैक्स कितना बढ़ा-घटा हमें फर्क नहीं पड़ता था। कार खरीदनी ही नहीं थी तो कीमत कम हो या ज्यादा हमें क्या लेना। उन दिनों अखबारों में ये भी छपा करता था कि बिंदी-टिकुली महँगी हुई, सस्ती हुई। पर अब कोई परिवार बिंदी-टिकुली की चिंता भी करता होगा, मुझे नहीं लगता। बजट मेरे लिए दफ्तर में उत्सव सा माहौल तो था, पर था बड़ा उबाऊ काम। मैं तो रिश्तों की भाषा समझता था। इसीलिए अपनी 1 मार्च की याद को भी दरकिनार कर मैं आपके पास लाया हूँ रिश्तों की कहानी।
आज मैं आप को जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उसमें बजट की बातें नहीं, पर रिश्तों की यादें खूब हैं।
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एक बार एक बहुत बूढ़े आदमी को उसका बेटा साथ लेकर एक रेस्त्राँ में पहुँचा।
वहाँ उसने उस बूढ़े आदमी को कुर्सी पर बिठाया। उनसे पूछा कि आप क्या खाएँगे? और खाना आने के बाद उन्हें अपने हाथों से खिलाने लगा। बूढ़ा आदमी ठीक से खाना नहीं खा पा रहा था। कुछ-कुछ उसके मुँह से बाहर गिर जाता।
रेस्त्राँ में आसपास बैठे लोग उसकी ओर हिकारत भरी निगाहों से देखते। पता नहीं कैसे-कैसे लोग अब इतने बड़े रेस्त्राँ में चले आते हैं।
पर उस बेटे पर उन बातों का कोई असर नहीं हो रहा था।
वो चुपचाप अपने पिता की खाना खाने में मदद करता रहा। उनके मुँह से खाना नीचे गिरता तो फौरन नैपकिन से उनका मुँह साफ करता।
लोग बातें बनाते रहे।
जब पिता ने खाना खा लिया तो बेटा उन्हें लेकर वाश रूम तक गया। उनके कपड़ों पर जो खाने के निशान पड़े थे, उन्हें उसने करीने से साफ किया। वापस टेबल पर आकर उसने बिल का भुगतान किया।
पूरे होटल में एकदम सन्नाटा पसरा था। लोग अपना खाना छोड़ कर उसे ही देखे जा रहे थे।
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बिल का भुगतान करने के बाद आदमी ने पिता को सहारा देकर कुर्सी से उठाया और चल पड़ा घर की ओर।
आदमी अभी बाहर भी नहीं निकला होगा कि एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने आवाज दे कर उसे बुलाया और पूछा कि तुम कुछ यहाँ छोड़ कर तो नहीं जा रहे?
आदमी ने कहा कि नहीं तो।
जिस व्यक्ति ने उसे बुलाया था उसने कहा, “तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो।”
आदमी ने हैरान होकर पूछा, “क्या?”
“तुम यहाँ तमाम बेटों के लिए एक सबक छोड़ कर जा रहे हो। तुम यहाँ ढेरों पिताओं के लिए एक उम्मीद छोड़ कर जा रहे हो।”
और पूरा रेस्त्राँ तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था।
(देश मंथन, 01 मार्च 2016)