खुद को बदलते हैं, तो संसार बदल जाता है

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

वाह-वाह क्या बात है।
मेरे दफ्तर की एक महिला कर्मचारी मेरे पास आई और बात-बात में कहने लगी कि जिन्दगी बहुत उलझ गयी है।

मैं कप्म्यूटर पर अपने काम में व्यस्त था। वो बोल रही थी, मैं सुन रहा था। मुझे कुछ जरूरी मेल भेजने थे, इसलिए मैं उसकी बातों को सुनता हुआ आधे-अधूरे मन से ही हाँ-हाँ कर रहा था।
मेरे केबिन में मेरा एक जूनियर भी कुछ काम के सिलसिले में बैठा था। महिला कर्मचारी बोले जा रही थी कि घर में सबको अपने हिसाब से ढालना बहुत मुश्किल होता है। कोई किसी की बात सुनता ही नहीं। यहाँ तक कि बच्चे भी बड़े हो गये हैं और मनमानी करते हैं।
मैंने उसकी इतनी सी बात सुनी और सिर हिला कर कहा, “हाँ, आजकल ये आम समस्या है। कोई किसी के हिसाब से नहीं बदल सकता।”
महिला कर्मचारी मेरे जवाब से खुश हुई और आगे बताने लगी कि सर दफ्तर में भी लोगों से डील करना आसान नहीं। किसके मन में क्या है पता ही नहीं चलता। ये समझ पाना भी मुश्किल है कि कौन दोस्त है, कौन दुश्मन।
मैं मेल टाइप करता हुआ हाँ-हाँ करता रहा।
वो बोल रही थी, “जिन्दगी बहुत उलझ सी गयी है। मैंने बहुत कोशिश की कि उसकी सोच बदल जाए, इसकी की सोच बदल जाए। पर कोई किसी के चाहने से नहीं बदलता। ऐसे में जिन्दगी बेमानी ही लगती है।”
मैं अभी भी हाँ-हाँ ही कर रहा था। मेल की आखिरी लाइन लिखी जानी थी। यहाँ वो महिला कर्मचारी मुझसे पूछ रही थी कि लोगों की सोच क्यों नहीं बदलती? क्यों कुछ लोग आपकी कोई बात सुनने को राजी नहीं होते?
मैं उसके सवालों को सुन रहा था, मन ही मन सोच रहा था कि क्या जवाब दूँ। ये तो घर-घर की कहानी है। कौन किसके समझाने से समझता है। मैं सोच रहा था कि इतना कह कर उसे चुप करा दूँ कि कोई किसी के कहने से नहीं बदलता। तुम इस विषय में परेशान मत हो। यह एक आम समस्या है।
मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही मेरे केबिन में बैठा जूनियर, जो अब तक एकदम चुप था, उसने धीरे से कहा, “मैडम, कोई किसी के कहने से नहीं बदलता। दरअसल किसी को बदलने की जरूरत ही क्यों हो? बेहतर तो यही होगा कि आप लोगों के हिसाब से खुद को बदलें। आप बदलेंगी, जग बदल जाएगा।”
कप्म्यूटर पर मेरी उंगलियाँ चल रही थीं, टकाटक-टकाटक।
जैसे ही मेरे कानों में बात बड़ी कि कोई किसी के कहने से नहीं बदलता, दरअसल जरूरत खुद को बदलने की होती है, आप लोगों के हिसाब से बदलें, आप बदलेंगे, जग बदल जाएगा, मेरा यकीन कीजिए, मेरी उंगलियाँ रुक गईं। संजय सिन्हा एकदम हतप्रभ रह गये।
ओह! कितनी बड़ी बात कही उसने।
दरअसल समस्या यही है कि हम चाहते हैं कि लोग हमारे हिसाब से बदल जाएं। सब हमारे हिसाब से सोचना शुरू कर दें। सब वही करें, जो हम चाहते हैं।
पर ऐसा नहीं होता है। और जब ऐसा नहीं होता है तो जिन्दगी दुखदायी लगने लगती है। जीवन बेमानी लगने लगता है। पर अगर हम खुद को सामने वाले के हिसाब से बदल लें, तो वाकई जिन्दगी आसान हो जाएगी।
मैं अपनी कुर्सी पर मुड़ा।
मैंने महिला कर्मचारी की ओर देखा और धीरे से कहा, “यही है सही जवाब।”
बात सुनने में आसान न लगे, पर हकीकत यही है कि जब हम खुद को बदलते हैं, तो संसार बदल जाता है। और जब संसार बदल जाता है, तो जिन्दगी आसान हो जाती है।
(देश मंथन 17 जून 2016)

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