‘पात्र’ को बड़ा करें

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मुझे एकदम ठीक से याद है कि पड़ोस वाली बेबी दीदी शादी के बाद घर लौट आयी थीं। 

उनके दुखों की कोई सीमा नहीं थी। शादी के बाद ससुराल में उनकी सास से बनी नहीं और उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। ये वही बेबी दीदी थीं जो मुझ पर असीम प्यार लुटाया करती थीं। 

बेबी दीदी ससुराल से मायके आयी थीं और एक दिन मेरी माँ के पास बैठ कर अपनी दुख भरी कहानी उनसे साझा कर रही थीं। वो माँ के सामने बैठ कर अपने बीते दिनों को याद कर रही थीं और कह रही थीं कि शादी के बाद उनकी सारी खुशियाँ कहीं खो गयी हैं। 

***

माँ के पास कहानियों का कोई अंत नहीं था। माँ की आवाज बहुत मीठी थी और वो धीरे-धीरे बोलती थी। माँ कुछ ऐसी थी कि मुहल्ले की सारी महिलाएँ अपनी बातें उनसे साझा किया करती थीं। पिताजी दस बजे के पहले दफ्तर चले जाते। हम बच्चे भी सुबह-सुबह स्कूल निकल जाते। फिर दोपहर का खाना बनने तक माँ व्यस्त रहती। पर एक बार दोपहर का खाना बन गया, पिताजी घर आकर खाना खाने के बाद दुबारा दफ्तर निकल गए, तो माँ एकदम फ्री हो जाती। 

हम स्कूल से लौट आते। माँ सबको खिला कर दिसंबर की इसी सर्दी में घर के बाहर मेन गेट के पास कुर्सी निकाल कर बैठ जाती। माँ के साथ कई और महिलाएँ बैठी होती थीं। वहीं सारी महिलाएँ हाथों में कुछ न कुछ काम लिए एक दूसरे से अपनी कहानियाँ साझा करती थीं। सर्दियों में माँ का पसंदीदा काम था ऊन के गोले और दो डंडियाँ हाथ में लिए कुछ न कुछ बुनते रहना। कभी वो मफलर बुनती, कभी दस्ताने। 

मुहल्ले की कई महिलाएँ तो वहीं बैठ कर सब्जियाँ छीलतीं या काटतीं। यानी रात के खाने की तैयारी भी वहीं शुरू हो जाती। 

मैं अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता, छुपन-छुपी खेलता, कबड्डी  खेलता। 

जब बेबी दीदी की शादी नहीं हुई थी, तब वो भी कभी-कभी हमारे साथ छुपन-छुपी और कबड्डी खेला करती थीं। पता नहीं क्रिकेट से उन्हें क्यों नफरत सी थी। 

पर कबड्डी उनका प्रिय खेल था। 

खैर, आज मैं बेबी दीदी की चर्चा उनके कबड्डी प्रेम के लिए नहीं कर रहा। आज तो मुझे उनकी शादी के बाद उन पर टूट पड़े दुखों के पहाड़ की कहानी सुनानी है।

तो, उस दिन दोपहर के खाने के बाद माँ बाहर बैठने के लिए एक हाथ में कुर्सी और दूसरे हाथ में ऊन का गोला लिए बाहर निकल ही रही थीं कि बेबी दीदी आती दिख गयीं। 

अब बेबी दीदी दिख गयीं तो माँ तो रुकी ही, मैं भी रुक गया। 

मैंने कहा न कि बेबी दीदी मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। वो इकलौती ऐसी दीदी थीं जो कबड्डी खेलते हुए अगर मुझे पकड़ लेतीं तो भी मैं उनसे छूटने की कोशिश नहीं करता था। मैंने तो आपको बहुत पहले ये भी बता दिया था कि बेबी दीदी के सामने मैंने एक बार शादी का प्रस्ताव रखा था। मैंने ये बताया था कि उन दिनों संजय गाँधी का नसबंदी वाला कार्यक्रम चल रहा था और मैंने अपने दोस्तों से सुन लिया था कि जल्दी ही संजय गांधी शादी-ब्याह पर रोक लगा देंगे। मतलब शादी का सिस्टम ही बंद हो जाएगा। बाकियों के बारे में मुझे नहीं पता, लेकिन मुझे लगने लगा था कि मैं अभी इतना छोटा हूँ और मेरे बड़े होने तक अगर सचमुच शादी का सिस्टम बंद हो गया, तब मेरा क्या होगा। 

और मेरी इसी चिंता के बीच मुझे पहली बार ख्याल आया था कि दस साल बड़ी ही सही, पर बेबी दीदी ठीक रहेंगी मेरे साथ शादी के लिए। मैंने बहुत संजीदगी से उनके सामने ये प्रस्ताव एक दिन अकेले में रख दिया था। उन्हें यह भी बताया था कि अगर आप मुझसे शादी कर लें, तो दोनों का फायदा है। अगर बाद में सिस्टम बंद हो गया, तो आप भी कुंवारी रह जाएँगी, मैं भी।

बेबी दीदी बहुत हँसी थीं। 

एक दिन बेबी दीदी की शादी हो गयी। किसी दूसरे शहर के लड़के से हो गयी। मैं बहुत रोया था। बेबी दीदी जिसे नहीं जानती थीं, उससे उन्होंने शादी करना कबूल कर लिया था, पर मुझसे नहीं। 

वही बेबी दीदी माँ के सामने थीं। 

माँ के सामने आते ही दीदी ने पाँव छू कर उन्हें प्रणाम किया। फिर मुझे गले लगा कर खूब देर तक प्यार करती रहीं।

“कैसा है रे तू?”

मैं चुप रहा। बेबी दीदी ने थोड़ा-सा झुक कर मुझे अपनी छाती से लगा लिया था। वो शुरू से मुझसे अधिक लंबी थीं। शादी के बाद लग रहा था कि और लंबी हो गयी हैं, ऐसे में मुझे गले लगाने के लिए उन्हें झुकना पड़ता था। 

बेबी दीदी ने गले लगाया, मेरा सारा गुस्सा दूर हो गया। सोच रहा था, काश यह पल यहीं रुक जाता!

पर समय कब किसके लिए रुका है।

***

माँ बाहर नहीं गयी। बेबी दीदी के साथ वहीं बैठ गयी।

बेबी दीदी माँ के सामने धीरे-धीरे सुबकने लगीं। बताने लगीं कि उनका जीवन दुखों से भर गया है। 

माँ उनकी सारी बातें बहुत ध्यान से सुनती रही। मैं भी वहीं बैठ कर खेलने लगा। मेरा ध्यान उनकी बातों पर था, पर माँ और बेबी दीदी को लग रहा था कि मैं अपने खेल में व्यस्त हूँ। हालाँकि उनकी बहुत सी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही थीं। पर वो सास नामक किसी महिला की चर्चा बार-बार कर रही थीं। खैर उनकी कहानी बहुत अजीब सी थी, जो मेरे पल्ले पड़ ही नहीं सकती थी। एक तो महिलाएँ जब भी अपनी दर्द भरी कोई कहानी सुनाती हैं, तो वो बोलती कम, रोती ज्यादा हैं। पर कमाल की बात ये भी थी कि जो बातें मेरे पल्ले बिल्कुल नहीं पड़ रही थीं, माँ उन सभी बातों को ठीक से समझ रही थी। 

संसार में न जाने कितनी भाषाएँ हैं। पर एक भाषा आँसुओं की भी होती है। दुर्भाग्य से इस भाषा को समझने का हुनर भगवान ने सिर्फ महिलाओं को दिया है। महिलाएँ आखों में छिपे एक-एक कतरे को शब्दों में तब्दील करके उसे पढ़ सकती हैं। यहाँ तो बेबी दीदी जार-जार रोतीं और रुक-रुक कर अपनी कहानी बयाँ करतीं।

माँ बेबी दीदी के आँसू अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछती और कहती कि ये बातें होती रहती हैं। हर घर में होती हैं। सब ठीक हो जाएगा।

***

फिर माँ ने बेबी दीदी को एक कहानी सुनाई।

“एक बार एक आदमी एक साधु के पास गया और बोला कि वो मरना चाहता है। उसका जीवन दुखों से भरा पड़ा है। उसके मन में अब जीने की कोई इच्छा ही नहीं बची है।

साधु ने उसकी पूरी बात सुनी। फिर वो अपनी जगह से उठे और उन्होंने एक गिलास पानी में एक मुट्ठी नमक डाल कर उस व्यक्ति को पीने के लिए दिया। आदमी ने एक घूंट मुँह में डाला और थू-थू कर बैठा। 

साधु ने पूछा कि पानी कैसा लगा? 

आदमी ने कहा, “क्या महाराज, एकदम खारा पानी। एक घूंट भी पीना असंभव है।”

अब साधु ने दुबारा एक मुट्ठी नमक लिया और उस आदमी को लेकर पास के तालाब तक गये। वहाँ उन्होंने मुट्ठी भर नमक तालाब में डाल दिया और कहा कि तुम ये पानी पी कर देखो। आदमी ने पानी पिया। 

“पानी कैसा लगा?”

“बहुत मीठा।”

साधु ने उस व्यक्ति से कहा,”नमक दोनों पानी में उतना ही था। एक तुम्हें खारा लगा, क्योंकि पात्र छोटा था। जब पात्र बड़ा हो गया तो नमक होकर भी नहीं रहा। दुख उतना ही रहेगा। ये तुम्हें कितना आहत करता है, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि तुम खुद को कितना बड़ा कर लेते हो।”

***

बेबी दीदी माँ की ओर देख रही थीं। मैं बेबी दीदी की ओर। उनकी आँखों के पोर सूख गए थे। बेबी दीदी ने माँ को प्रणाम किया और चली गयीं। 

माँ बहुत देर तक वहीं बैठी रही। मैं माँ की कहानी को समझने की कोशिश कर रहा था। 

बहुत दिन बीत गये। मैं रोज सोचता कि माँ ने बेबी दीदी को क्या समझाने की कोशिश की होगी। 

बहुत साल बाद मैं बड़ा हो गया था। एक बार और बेबी दीदी से मिला। बेबी दीदी खुश थीं। मैं समझ गया कि बेबी दीदी ने पात्र को बड़ा कर लिया है। दुख हो कर भी नहीं था। 

यही है जीवन। ऐसे ही चलता है जीवन।   

(देश मंथन, 10 दिसंबर 2015)

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