मृत्यु अटल है, जीवन सकल है

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

आज आपको एक न में ले चलता हूँ। 

अपने जीवन में मुझे एक बार ओशो से मिलने का मौका मिला।

ओशो हमेशा कहा करते थे कि मुझसे जीवन की बातें करो, मौत की नहीं। उनका कहना था कि मौत को तो उन्होंने देखा ही नहीं, जिसे देखा ही नहीं उसकी क्या चर्चा की जाये। उनका ये भी मानना था कि मौत जैसी कोई चीज होती नहीं है।  है। 

कबीर कहते थे कि संसार माया है। माया महाठगिनी है। आदमी संपूर्ण जीवन इस माया रूपी महाठगिनी के हाथों ठगा जाता है। ये सच है, जिसने इस संसार के सच को समझ लिया, उसके लिए जीवन को समझना आसान हो जाता है। 

दो साल पहले आज के दिन ही मेरी मौत हो गयी थी। मैं दफ्तर में बैठा था, जरूरी मीटिंग कर रहा था अचानक मुझे जरा बेचैनी सी हुयी, मुझे लगा एसिडिटी हो रही है। मैंने अपने साथियों से कहा कि तुम अगली मीटिंग की तैयारी करो और खुद दफ्तर से नीचे उतर आया। सामने दुकान से एक आइसक्रीम ली, आइस्क्रीम से मुझे राहत मिलती थी। मैं वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया। अभी आइसक्रीम खाने की शुरुआत भी नहीं की थी अचानक मुझे लगने लगा कि मेरी सांस थम रही है। घड़ी के हजारवें सेकेंड में मैंने अपने पूरे जीवन चक्र को वीडियो फिल्म की तरह चलते हुए देख लिया। 

मुझे अपने जन्म से लेकर आज दफ्तर की मीटिंग तक का एक-एक सीन साफ-साफ नजर आने लगा। मेरी सांस बंद होने में अभी सेकेंड के हजारवा हिस्सा बाकी था। बहुत देर तक तो मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है। 

सांस रुक रही थी, आइसक्रीम सामने पड़ी थी। दफ्तर में लोग दूसरी मीटिंग की तैयारी कर चुके थे, बस मेरा इंतजार हो रहा था। 

मैंने अपनी जेब से दिल्ली में रह रहे अपने बड़े भाई का बिजनेस कार्ड निकाला, सामने एक आदमी की ओर देखा और मेरा शरीर कुर्सी से नीचे गिर पड़ा। 

शरीर गिरा था, लेकिन मैं वहीं बैठा था। 

मेरे शरीर की सांस थम चुकी थी। मेरी बेचैनी खत्म हो चुकी थी। 

उस आदमी ने मुझे कुर्सी से गिरते हुए देख लिया था। वो मेरे पास आया और उसने मेरी नाक के पास हाथ ले जाकर ये समझने की कोशिश की कि शरीर सांस ले रहा है या नहीं। जाहिर है, सांस नहीं चल रही थी। उसने मेरे हाथ से वो कार्ड लिया, मेरी बेल्ट में लगे मेरे परिचय पत्र पर मेरा नाम पढ़ा और अपने मोबाइल से मेरे भाई को दिल्ली फोन मिला दिया। भाई से उसने पता नहीं क्यों पूछा कि सलिल सिन्हा को आप जानते हैं क्या? सारा संसार जानता है कि सलिल तो संजय के भाई हैं। उनकी जिंदगी हैं। उनकी जान हैं। खैर, मैं वहीं बैठा उसकी सारी गतिविधि देख रहा था। 

भाई ने उधर से क्या कहा, ये मैं तब नहीं सुन पा रहा था। 

उसने मेरे शरीर को उठाने की कोशिश की। वो समझ गया था कि शरीर का चक्र पूरा हो चुका है। कबीर की ठगिनी ने अपना काम कर लिया है। 

ओशो के मुताबिक जीवन का स्वरूप बदल गया था। 

मेरा शरीर सामने पड़ा था। मेरे भाई ने शायद मेरी पत्नी को फोन मिलाया था। पत्नी फोन नहीं उठा पायी थी, फिर भाई ने मेरे बेटे को फोन मिलाया। फिर कुछ ही मिनटों में फोन की घंटियाँ बजने लगीं और मेरे शरीर को अस्पताल ले जाया गया। मैं तब भी साथ-साथ था। मेरे दफ्तर के लोग भी मेरे शरीर के पास पहुँच गये थे। 

अस्पताल में डॉक्टर ने कुछ कोशिश की कि मैं दुबारा उस शरीर में समाहित हो जाऊं। लेकिन क्या आज तक कभी ऐसा हुआ है? 

एक बार आदमी जब अपने शरीर को छोड़ कर उससे बाहर निकल जाता है, फिर उसमें समाहित नहीं हो सकता। 

लोग बिलख रहे थे। 

मेरे शरीर को लोगों ने मेरे घर में पहुँचा दिया। 

क्या कमाल की बात थी? मैं सुबह दफ्तर के लिए जब निकल रहा था, तब मैंने अपनी पत्नी से कहा था कि आज का दिन इस घर में आखिरी दिन है। सच यही था। उसी दोपहर मेरी पत्नी उस घर को बदल कर दफ्तर के पास वाले घर शिफ्ट करने की तैयारी कर चुकी थी। ऐसा अक्सर होता था, जब मैं घर बदलने की पूरी तैयारी करके खुद दफ्तर चला जाता और मेरे पीछे से पूरा घर बदल लिया जाता। फिर शाम को मैं नए घर में आता।

ये पहली बार हुआ था कि घर बदलने के फैसले के बाद मैं अपने पुराने घर में ही लौटा था। 

मैं चुपचाप वहीं बैठा रहा। लोग आते रहे-जाते रहे, मेरे शरीर से लिपट कर रोते रहे। 

दोपहर तक मेरा भाई दिल्ली से पुणे तक मेरे उस फ्लैट में चला आया। वही भाई जिसे बुलाने के लिए मैंने उसका बिजनेस कार्ड अपनी जेब से निकाल कर उस आदमी के हाथ में दिया था। 

बड़ी अजीब सी स्थिति थी। मैं न तो कुछ कह पा रहा था, न कुछ कर पा रहा था। मैं चुपचाप वहीं बैठ कर तमाशा देख रहा था। मैंने अपनी माँ की मौत पर, पिता की मौत पर और न जाने कितनी मौतों पर ये सब देखा था। मैं चाह तो रहा था कि सबको बता दूँ कि इस अधम शरीर की परवाह मत करो। यही सच है। सभी के शरीर का सच इतना ही है। 

मैं यहाँ रुकता हूँ। दो साल बीत चुके हैं, मेरे शरीर को खत्म हुये। 

मेरा भाई बहुत परेशान था। मुझे उसकी चिंता हो रही थी। पर मैं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं था। 

फिर किसी तरह मैंने भाई को उकसाया कि तुम अपने लिए रिश्तों का नया संसार बनाओ। वो फेसबुक पर गया, और उसने एक काल्पनिक संसार से खुद को जोड़ लिया। उसने हजारों लोगों का परिवार खड़ा कर लिया। ये दरअसल मेरी इच्छा थी। मैंने अपने भाई के जरिए खुद को आपसे जोड़ लिया।

मेरा शरीर सामने जमीन पर पड़ा था। 

माया महाठगिनी का नाता मुझसे टूट चुका था, लेकिन जब तक मेरा शरीर था, उसका अस्तीत्व भी था। मुझे मरे हुये आपकी भाषा में कई घंटे बीत चुके थे। तारीख तो वही 2 अप्रैल थी। भाई ने पूरी कहानी साल भर बाद आपको सुनाई थी- 

एक सच वो भी है। मैं आपको उसके आगे की कहानी भी कभी सुनाऊंगा कि फिर क्या हुआ। मैं कहाँ गया, क्या हुआ। बहुत आश्चर्चजनक संसार है, इस संसार से परे। मैं पूरी कहानी कभी सुनाने बैठ गया तो आप हैरान रह जायेंगे। 

मैं सुनाऊंगा, पूरी कहानी। 

पर अभी तो आप 3 अप्रैल की उस कहानी को सुनिये। मेरे भाई की जुबानी-

***

मेरे भाई को मरे हुए 20 घंटे बीत चुके थे। आज की ही तारीख थी। 

लाश रात भर मुर्दा घर में रखी गयी थी। उसका पोस्टमार्टम होना था। 2 अप्रैल को मैं भाई की तबीयत खराब होने की खबर को सुन कर जब पुणे पहुँचा था, तब घर के ड्राइंगरूम में उसकी लाश रखी थी। मैं उसकी मौत के चार घंटे बाद ही पुणे पहुँच गया था। मेरे पहुँचने की औपचारिकता के सिर्फ आधे घंटे बाद उसके दफ्तर के लोग, मेरा बेटा और उसका बेटा और भाई का साला लाश लेकर सरकारी अस्पताल पहुँचे थे। 

किसी ने कहा था कि बिना पोस्टमार्टम के मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा और बिना मृत्यु प्रमाण पत्र के लाश जलाने की अनुमति नहीं मिलेगी। मुझे नहीं पता कि मैं उस समय भाई के साथ मुर्दा घर क्यों नहीं गया था। मैं खामोश बैठा था। 

मुझे बताया गया कि भाई की लाश के पोस्टमार्टम के लिए पुणे के उस सरकारी अस्पताल में हजार मनुहार करने पड़े थे। चपरासी से लेकर ना जाने किस-किस को सौ, दो सौ रुपये की रिश्वत खिलानी पड़ी। डॉक्टर साहब नहीं थे, जाहिर है लाश रात भर वहीं पड़ी रहनी थी और अगली सुबह जब ‘साहब’ नाश्ता पानी करके आते तब उसका पोस्टमार्टम होता। यही हुआ। मैं शांत था। मैं कुछ नहीं बोल रहा था। कोई मुझे कुछ बता भी नहीं रहा था, लेकिन अगली सुबह मेरे पास छोटे भाई के साले का फोन आया कि भैया यहाँ बहुत परेशानी हो रही है। ये लोग लाश नहीं दे रहे। किसी से सिफारिश करानी होगी। 

मैं पत्रकार था। छोटे भाई का साला इस बात से वाकिफ था कि मैं एसपी, कलेक्टर, मंत्री को फोन कर सकता हूँ। मैंने किसी परिचित पुलिस वाले को फोन भी किया। रोते हुए अपने भाई की लाश पाने की गुहार लगायी। 

हमारे दफ्तर का लोकल रिपोर्टर भी वहाँ लगा हुआ था और न जाने कितनी सिफारिशों और किस-किस को रिश्वत खिलाने के बाद मेरा भाई वापस लाया गया।

उसे घर नहीं लाया गया, नीचे पार्किंग में लिटाया गया। 

मैंने एक दिन पहले अपने भाई की लाश देखी थी। उससे चार दिन पहले अपने भाई से मिला था, बात की थी और आज फिर उसकी क्षत-विक्षत लाश देख रहा था। आँखें बंद थी, वहाँ से खून रिस रहा था। शरीर पूरी तरह बंधा हुआ था, पर चारों ओर चीर फाड़ के निशान बयाँ कर रहे थे कि जिस डॉक्टर ने पोस्टमार्टम किया था उसने बहुत बेरहमी से सबकुछ किया था। मुझे भाई की बंद और पिचकी हुई आँखों को देख कर एक पल के लिए संदेह भी हुआ कि कहीं डॉक्टरों ने भाई की दोनों मासूम आँखें चुरा तो नहीं लीं। आखिर पोस्टमार्टम के बाद आँखों से खून रिसने का क्या मतलब? लाश मृत्यु के पाँच घंटे के भीतर अस्पताल पहुँच गयी थी, तो क्या इतनी चीर फाड़ में कई अंगों की चोरी की गयी होगी? ये मेरा संदेह है। ये मेरे भाई के लिए मेरे प्यार से उपजा संदेह है। मैंने कभी तहकीकात नहीं की, लेकिन एक मानव शरीर के पोस्टमार्टम के लिए जिस तरह सरकारी मुर्दाघर में गिद्ध रूपी मनुष्यों का झुंड उसे लूटने के लिए टूट पड़ता है उसमें कुछ भी मुमकिन है। 

मैं भाई की लाश देख रहा था और सोच रहा था कि ये पुणे शहर कितना अच्छा था, लेकिन जिस पुणे शहर को मैं भारत का सबसे आदर्श शहर मान रहा था वो मुझे संसार का सबसे क्रूर शहर नजर आ रहा था। 

मैं पहली बार महसूस कर रहा था कि जिस शरीर, प्राण और जीवन को मैं अपना मान रहा था वो तीनों अपने नहीं होते। ये तीनों चीजें किसी और के हाथों संचालित होती हैं। तभी तो मेरा भाई मेरा होकर भी वहाँ मेरा नहीं था। 

हम उसे जलाने के लिए ले जा रहे थे। जाते हुए मैं चप्पल पहनना भूल गया था और जहाँ हमने गाड़ी पार्क की वहाँ से पचास कदम दूर श्मशान घाट तक जाते हुए मेरे पाँव जल उठे थे। फूल से प्यारे अपने भाई को मैं जलाने को तत्पर था, लेकिन अपने पाँव की जलन बर्दाश्त कर पाने में असमर्थ था। 

और सुनिये – जिस भाई के लिए मैं सुबह शाम भाई-भाई-भाई कह रहा हूँ, उस भाई को जला कर आने के पाँच मिनट बाद ही मुझे भूख लग आयी थी। मुझे तुरंत खाने की दरकार थी। पता नहीं कहाँ से खाना आया था, लेकिन भाई की लाश जलने के मिनटों बाद ही मैं भोजन कर रहा था। 

मुझे याद है, माँ की भी मौत हुई थी तब भी लाश जलने के कुछ ही देर बाद हम सब लोग फिर खाना खा रहे थे। 

पिताजी मरे थे तब भी यही हुआ था। मतलब ये कि भूख हर बार विवश करती रही कि ये जीवन है, इसे ऐसे ही चलना है। 

कल को मैं नहीं रहूंगा तब भी कोई ऐसे ही मुझे जला कर खाना खायेगा। कोई रोयेगा, कोई आँसू पोछेगा। कोई समझना चाहेगा, कोई समझायेगा। हर मौत के बाद आसपास कोई न कोई ज्ञानी मिल ही जाता है, जो ये बताता है कि किसी भी मनुष्य की आयु क्या होगी, यह समय या वर्ष के आधार पर निर्धारित नहीं होती। बल्कि ये श्वासों की निश्चित संख्या के आधार पर तय होती है। जब ये संख्या समाप्त हो जाती है, तब किसी परिस्थिति के निमित्त, प्राण देह का साथ छोड़ देते हैं। इसलिए मन में ये विश्वास होना चाहिए कि निमित्त चाहे जो भी हो, लेकिन तय सांसों के बाद प्रियजन का एक पल भी जीवित रहना संभव नहीं।

ऐसी ज्ञान की बातें घर का कोई सदस्य करने लगता है, पड़ोसी करने लगते हैं या पंडित करने लगते हैं। मर चुके भाई के जीवित भाई को सांत्वना देने के लिए शायद ऐसी बातें परंपरा बन गयी हैं। मतलब ये कि हर व्यक्ति में ‘ज्ञान’ होता है, लेकिन वो प्रकट होता है दूसरों की मौत पर दूसरों को सांत्वना देने के लिए।

मेरा भाई जल रहा था, और मुझे लग रहा था कि मैं जल रहा हूँ। फिर अगले पल मैं भोजन कर रहा था। मेरा भाई आज से साल भर पहले था, आज नहीं है, फिर भी इस एक साल में एक भी ऐसा दिन नहीं हुआ जब मैंने भाई के नाम पर उपवास किया हो। 

ना कभी माँ के नाम पर, ना पिताजी के नाम पर। 

तो मेरा प्यार क्या मेरे लिए सिर्फ एक छल है? क्या ये जानते हुए भी सबको एकदिन इस संसार को छोड़ देना है, इस उम्मीद में हूँ कि अभी मेरी बारी नहीं। अभी बहुत दिन हैं। सब मर जायेंगे, लेकिन मैं नहीं मरुंगा। क्या हम सभी यही सोचते हैं? 

कमाल है, तब तो सचमुच प्यार एक ‘छल’ ही है। वर्ना जिस डॉक्टर ने मेरे भाई के शव को देने में आना कानी की थी उससे मैं मिन्नतें क्यों करता कि तुम उसकी लाश लौटा दो। मुझे तो याद है कि छठी कक्षा में भाई का दाखिला होना था और स्कूल का प्रिंसिपल पिताजी को दौड़ा रहा था कि इस अधिकारी से दस्तखत करा के लायें, उस अधिकारी से दस्तखत करा लायें तो एकदिन मैं पहुँच गया था प्रिंसिपल के कमरे में और उससे कह कर आया था कि आज मेरे भाई को एडमिशन नहीं मिला तो कल तुम्हें दूसरी मंजिल से नीचे फेंक दूंगा और उसी दिन मेरे भाई का एडमिशन हो गया था। जब मैं दसवीं में पढ़ रहा था, साल भर पहले आज के दिन मैं गिड़गिड़ा रहा था, मेरे भाई की लाश लौटा दो। उसने लाश लौटायी थी, लेकिन भाई की आँखों का खून मुझे आज तक नहीं भूला है। जिस तरह मैं अपनी भूख नहीं भूल पाया, जिस तरह मैं अपनी नींद नहीं भूल पाया, उसी तरह कुछ भी नहीं भूला हूँ। मुझे याद रहेगा मेरी पत्नी का बिलखना, मेरे बेटे का बिलखना, उसके बेटे का बिलखना और ये भी याद रहेगा कि इन यादों का कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ होता है तो बस यही कि सचमुच आदमी होता है और फिर नहीं होता है। आदमी आता है, आदमी चला जाता है।

जाने वाला चला जायेगा, हमारी भूख खत्म नहीं होगी। कभी नहीं। 

हर बार कोई न कोई कृष्ण गीता का पाठ पढ़ा जायेंगे, और हर बार अर्जुन मान जायेगा। 

ना कोई मरता है, ना कोई मारता है… 

(देश मंथन, 02 अप्रैल 2015)

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