संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मैंने एक नयी साइकिल खरीदी है। गियर वाली साइकिल मैंने दुकान में देखी और खरीद ली। हालाँकि पत्नी ने मुझे साइकिल खरीदते देखकर टोका भी था कि क्या करोगे? मैंने उसकी तरफ गंभीर नजरों से देखा और कहा कि तुम्ही तो कहती हो कि वजन बढ़ रहा है, तो अब साइकिल खरीद लूँगा और इसे चलाऊँगा। अब यह मत पूछना कि साइकिल चलाने से वजन कम होता है क्या?
पत्नी मुस्कुराई। उसने कहा, “साइकिल चलाने से तो वजन कम होता ही है। खरीदने से नहीं होता है।”
मैं सकपकाया। मैंने कहा, “जब मैं कुछ ऐसा करने चलता हूँ, जिससे मेरा व्यायाम हो, तो तुम मीन-मेख निकालने लगती हो।”
“संजय, तुमने साल भर पहले फिटनेस फर्स्ट जिम की सदस्यता ली थी, करीब साढ़े तीन हजार रुपये हर महीने फीस लेते हैं, वो लोग। तुमने वहाँ एडमिशन लेने के बाद स्पोर्ट्स जूते खरीदे, टीशर्ट, पैंट और ढेरों चीजें खरीदीं, जो जिम के लिए जरूरी होती हैं। पर तुम याद करो कि अभी तक कुल चार बार तुम वहाँ गये हो।”
अब मुझे लग रहा था कि जैसे मेरी चोरी पकड़ी गयी हो। बात सही थी, मैंने फिटनेस फर्स्ट की मेंबरशिप ली थी कि रोज सुबह उठ कर घंटा भर ट्रेड मिल पर दौड़ूँगा और पतला हो जाऊँगा। फिटनेस फर्स्ट वालों के साथ लंबा करार कर आया था, अब हर महीने वो क्रेडिट कार्ड से पैसे काट लेते हैं और मैं रोज सोचता हूँ कि आज जरूर जाऊँगा पर रोज टल जाता है।
“चलो माना कि मैं जिम नहीं जाता। लेकिन अगर यह साइकिल मैं खरीद लूँगा, तो फिर मुझे जिम जाने की जरूरत ही नहीं। मैं इसे अपनी सोसाइटी में गोल-गोल चलाऊँगा। तुम तो जानती ही हो कि सुबह उठ कर मुझे अपने फेसबुक परिजनों को गुडमॉर्निंग कहना होता है, तो अब मैं देर रात दफ्तर से लौटने के बाद साइकिल चलाऊँगा। मेरा यकीन करो।”
पत्नी मेरी ओर देख कर बस मुस्कुराती रही। फिर उसने कहा कि ठीक है, अगर तुम वाकई इसे चलाओगे, तो फिर खरीद लो।
और मैं गियर वाली उस सुंदर-सी साइकिल को खरीद लाया। साइकिल खरीद कर इनोवा कार के पीछे की सीट खिसका कर उसमें खड़ी कर दी और घर ले आया। अब मैं मन बना चुका था कि रोज रात में दफ्तर से लौटने के बाद सोसाइटी परिसर में कम से कम पाँच किलोमीटर साइकिल चलाऊँगा।
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करीब आठ सौ साल पुरानी बात है। बगदाद नामक शहर में चालीस चोरों का गिरोह रहता था। वो चोर कई-कई दिनों तक चोरी करते थे और एक गुफा में सारा माल लाकर जमा कर दिया करते थे। एक दिन गाँव के एक लकड़हारे की निगाह उन चोरों पर पड़ी। उसने छुप कर देखा कि ये लोग पहाड़ी गुफा के पास जाकर खुल जा सिमसिम बोलते हैं और गुफा से पत्थर हट जाता है।
चोर जब भीतर अपना सारा माल रख कर चले गए, तो वो लकड़हारा वहाँ गया और उसने खुल जा सिमसिम बोला और जैसे ही गुफा का पत्थर हटा, वो भीतर घुस गया। वहाँ उसे ढेरों चीजें नजर आईं। हीरे-जवाहरात, सोना-चाँदी। वो उनमें से कुछ माल उठा कर चलता बना।
अब यह मत पूछिएगा कि उस लकड़हारे का नाम क्या था? अरे वही तो था अलीबाबा।
अब उसका रोज का काम हो गया। चालीस चोर माल लाकर रखते, अलीबाबा उसमें से थोड़ा-थोड़ा उठा कर चुपचाप ले आता।
जब मैं यह कहानी बचपन में पढ़ रहा था, तब मेरे मन में दो सवाल उठते थे।
एक तो यह कि कहानी लिखने वाले ने चालीस चोरों के चरित्र को बहुत नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, दूसरा, वो सारे चोर कई-कई दिन मेहनत करके चोरी करते और फिर यहाँ इस गुफा में लाकर सारा माल जमा कर देते, तो फिर वो उनका भोग कब कर पाते थे?
मेरे मन में यह सवाल भी उठता कि असली चोर तो अलीबाबा है जो उन बेचारे चोरों के माल पर हाथ साफ कर रहा है, और जिन्दगी के मजे भी लूट रहा है। इतना ही नहीं कहानी लिखने वाले की निगाह में वह हीरो भी है।
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खैर, मैं साइकिल लेकर घर चला आया। अब साइकिल ले ही ली थी, तो एक शानदार हेलमेट भी मैंने खरीद लिया। जूते तो खरीदने ही थे। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। शायद एक महीना ही हुआ है। मैं रोज सोचता हूँ कि आज साइकिल चलाऊँगा। लेकिन दफ्तर से घर देर रात आता हूँ। सुबह समय होता ही नहीं। तो वो दिन अभी आया ही नहीं जब साइकल इनोवा से बाहर निकल पाये।
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हम सब ऐसा ही करते हैं। हम सब चोर हैं। हम सब पता नहीं सारा-सारा दिन कितनी मेहनत कर ढेर सारा सामान, सुख सुविधाओं की चीजें, पैसे सब जमा करते रहते हैं। हम यही सोचते हैं कि एक दिन हम उसका सुख भोगेंगे। पर वो एक दिन हमारी जिन्दगी में आता ही नहीं। अपनी मेहनत की कमाई हम बगदाद के चोरों की तरह गुफा में जमा करते जाते हैं। एक दिन कोई अलीबाबा आता है। वह आपकी कमाई की गुफा के आगे आकर खुल जा सिमसिम बोलता है और आपकी कमाई ले जाता है।
दुख कमाई चले जाने का नहीं। दुख इस बात का है कि वो अलीबाबा हीरो कहलाता है।
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मेरा कहा मानिए। आप एक बार मेरे कहने से फिर दोबारा अलीबाबा और चालीस चोरों की कहानी पढ़िए। अब तक आप जिन चालीसों से नफरत करते आये हैं, उनके प्रति आपकी सोच बदल जाएगी। आप उन बेचारों से हमदर्दी करने लगेंगे। नफरत आपको अलीबाबा से होगी।
आप मुझ पर भी तरस खाने लगेंगे कि सचमुच आपका संजय सिन्हा कितनी मेहनत करता है। रोज आपसे मिलने के लिए सुबह जागता है, फिर दफ्तर जाता है, वहाँ हजारों काम करता है, फिर उससे जो पैसे मिलते हैं, उनसे अपने लिए साइकिल खरीदता है और उसे इनोवा में पीछे बंद करके रखता है कि एक दिन वो उसे चलाएगा।
पर पता नहीं क्यों अब मुझे लग रहा है कि कोई अलीबाबा आएगा और मेरी साइकिल ले जाएगा। वैसे ही, जैसे अब तक सारा कुछ जाता रहा है।
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आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरी पत्नी जो कहेगी, वही करूँगा। अब अपनी मेहनत की कमाई मैं गुफा मे जमा करने पर नहीं खर्च करूँगा।
अब मैं जिन्दगी जीऊँगा, जीने की तैयारी में नहीं खर्च करूँगा।
मुझे उम्मीद है आप मेरी तरह नहीं करते होंगे। आप जिन्दगी जीते होंगे। अगर नहीं जीते तो आज से जीने लगिए। जितना कमाते हैं, उसे साथ-साथ एन्जॉवय कीजिए। नहीं तो कोई न कोई अलीबाबा आएगा और खुल जा सिमसिम कह कर धीरे-धीरे सब ले जाएगा।
(देश मंथन, 17 सितंबर 2015)