संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दीदी की शादी थी। एक रात पहले घर के सामने सड़क पर टेंट लगाया जा रहा था। कुर्सियाँ बिछायी जा रही थीं। हल्की-हल्की सर्दी थी। पिताजी, चाचा, मामा, मौसा, फूफा, ताऊ जी सब वहीं डटे थे। किसी को कोई जिम्मेदारी नहीं दी गयी थी, सब के सब अपनी जिम्मेदारी समझ रहे थे।
माँ, बुआ, चाची, मौसी सब रसोई में जुटी थीं। कहीं पूड़ी तली जा रही थी, कहीं आलू उबल रहा था। माँ चाय में चीनी मिला रही थी और उसे कप में उड़ेल कर हम बच्चों को पकड़ाती जा रही थी, “जाओ बाहर पिताजी, चाचा, मौसा सबको एक-एक कप पकड़ाते आओ।
घर से रसोई, रसोई से बाहर टेंट तक के इस सफर का एक-एक पल हम सबके लिए रिश्तों की खुशबू में नहाया हुआ था।
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उन दिनों हमारे शहर में शादी के लिए बैंक्वेट हॉल नहीं हुआ करते थे। किसी के घर शादी का मतलब होता था, सामने सड़क को घेर लेना। वहाँ टेंट लगता, जमीन पर दरी बिछायी जाती, कुर्सियाँ लगतीं, शादी में जयमाल के लिए दो बड़ी-बड़ी चौकियों को बिछा कर स्टेज बनता, उस पर सोफानुमा कुर्सियाँ रखी जातीं और सामने ढेर सारी कुर्सियाँ बिछा दी जाती थीं। बड़े से ड्रम में पीने के लिए पानी भर दिया जाता, पत्तल मंगा दिये जाते और यही फाइनल तैयारी होती थी, बारात के स्वागत की।
बारातियों का स्वागत जब होता, तब होता। मेरे लिए शादी से एक रात पहले का वो समय कभी न भूलने वाला दृश्य था। हर आदमी आधी रात तक तैयारी में लगा था। मौसा जी बता रहे थे कि यहाँ से कुर्सियाँ बिछानी शुरू करो। फूफा जी टेंट वाले को समझा रहे थे, “अबे, ऊपर ठीक से ठोक नहीं तो रस्सी खुल गयी तो सारा तंबू नीचे हो जाएगा।”
फूफा जी वकील थे, पर पता नहीं कैसे उन्हें तंबू लगाने का भी अनुभव था।
पिताजी कम बोलते थे, वो चुपचाप वहीं कुर्सी पर बैठ कर सबकुछ होते हुए देख रहे थे। चाचा बार-बार इधर से उधर दौड़ते। कभी हवाई को कुछ कहते, कभी बत्ती वाले से बातें करते। उस शादी में ताऊ जी बहुत दूर से आये थे और इकलौते ऐसे रिश्तेदार थे जो रेल गाड़ी से नहीं, अपनी अंबेसडर कार से आये थे। हम बच्चों के लिए ताऊ जी गाड़ी वाले ताऊ थे। हमारे संबोधन का असर दूर-दूर तक था।
मुझे चाय पकड़ाती हुई माँ कह रही थी, “ये बिना चीनी वाली चाय गाड़ी वाले ताऊ जी को देना।”
मैंने कुछ कहा नहीं, पर मन ही मन सोच रहा था कि गाड़ी वाले ताऊ जी को बिना चीनी वाली चाय क्यों?। हो सकता है, चीनी खत्म हो गयी हो। ताऊ जी सबसे बड़े हैं, इसीलिए उन्हें बिना चीनी वाली दी जा रही है। जो बड़ा होता है, सबसे पहले उसके हिस्से को ही काटा जाता है। वही यह सह सकते हैं। वो घर के सबसे बड़े रिश्तेदार हैं, और माँ जानती है कि वो सब समझते भी हैं, इसीलिए उन्हें अगर चाय में चीनी नहीं मिली, तो वो नाराज भी नहीं होंगे।
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मैंने जिन्दगी में कई शादियाँ देखी हैं। ढेर सारे पारिवारिक उत्सव को मैंने महसूस किया हूँ। पर दीदी की शादी से पहले की वो रात मेरे जेहन में रिश्तों के बारात के रूप में दर्ज है। किसने किसे निर्देश दिया है कि तुम ये करो, तुम ये करो। किसी ने नहीं। लेकिन सबके सब कुछ न कुछ कर रहे हैं। दीदी सहेलियों में घिरी है। कोई उसके बाल बना रहा है, कोई पाँव में आलता लगा रहा है।
मैं इधर से उधर फुदकता हुआ सोच रहा था, काश हम सब जीवन भर ऐसे ही एक साथ रहते। पिताजी, माँ, चाचा, चाची, ताऊ, ताई, बुआ, फूफा, मौसा, मौसी और हम सब बच्चे अगर एक ही घर में एक ही साथ रहते तो कितना अच्छा लगता।
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कल रात मैं दिल्ली से मथुरा पहुँचा।
यहाँ फेसबुक परिवार का मिलन समारोह है। हम सीधे मिलन स्थल तक पहुँच गए।
वहां Pavan Chaturvedi जी के साथ ढेरों फेसबुक परिजन मौजूद थे। आगरा से Ayub Khan पहले ही पहुँच कर सारी तैयारियों का जायजा ले रहे थे। उनके साथ निर्मल जी भी थे। और भी ढेरों लोग वहाँ काम को निर्देश दे रहे थे। “अभी कुर्सियाँ उलट कर रखो, सुबह तक ओस से भीग जाएँगी।”
कानपुर से Sunil Mishra सपरिवार पहले से मौजूद थे। सारी तैयारी हो रही थी।
हमारे साथ Shukla SN, Manu Laxmi Mishra, प्रमोद चौहान पत्नी समेत, Pranav Rawal, Sanjaya Kumar Singh, Ajay Sharma, Ranjana Tripathi, Monika Guneta, Surekha Sharma, और कई लोग मौजूद थे। रात के नौ बज चुके थे, हल्की सर्दी की सुगबुगाहट में मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं कई साल पीछे चला गया हूँ और एकबार फिर इधर से उधर दौड़ रहा हूँ।
मेरा पूरा परिवार एक साथ खड़ा है।
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मेरी नींद खुली। पवन भैया ने कहा, खाना खाने चलते हैं।
“इतने सारे लोग कहाँ चलें?”
“बृजवासी का खाना बहुत अच्छा है।”
“हाँ, वहीं चलते हैं।”
और फिर सभी कई गाड़ियों में बैठ कर पहुँच गये, बृजवासी के पास।
काश इस रात की सुबह न होती। कई साल बीत गये जब हम सारे परिजन एक साथ बैठ कर हँसते गाते चुटकुला सुनते-सुनाते खाना खा रहे थे। एक साथ तीस लोग।
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यही है परिवार। यही है रिश्ता।
आदमी इस संसार में अकेला आता है। अकेला चला जाता है। कोई न तो किसी के साथ आता है, न किसी के साथ जाता है। बस वो किसी के साथ सिर्फ रह सकता है। यह साथ रहना ही जिन्दगी है। यह साथ रहना ही रिश्ता है। जो इन रिश्तों के मर्म को समझ जाते हैं, उनकी जिन्दगी सुगम हो जाती है।
उनकी जिन्दगी खुशबुओं से नहा उठती है, ठीक वैसे ही जैसे कल मिलन स्थल पर बाँका से मथुरा पहुँची Jaya Pandey से मिल कर हम नहा उठे। हम खाना खाने निकल ही रहे थे कि अचानक हवा में खुशबू की लहर दौड़ पड़ी। मैंने देखा सामने नीली साड़ी में जया पांडे खड़ी हैं। आते ही वो गले से लग गईं।
“ओह! सर आप!” उनका बेटा पाँव पर झुक गया और मेरे मुँह से निकला, “खुश रहो।”
इन रिश्तों को क्या नाम दूँ?
न कोई मामा है, न मामी। न चाचा, ना चाची। न बुआ न फूफा। न मौसी, न मौसा। फिर कौन?
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माँ कहती थी, आसमान में मौजूद हर सितारों के नाम नहीं होते। पर वो होते तो सितारे ही हैं।
हर रिश्ते को नाम की जरूरत नहीं होती। बस जिनके लिए दिल धड़कता है, वो रिश्ते होते हैं। ये सारे रिश्ते ही तो हैं, जो आधी रात को मथुरा की सड़क पर एक दूसरे के लिए धड़क रहे हैं।
इन रिश्तों को निभाते रहिएगा। इन रिश्तों को जीते रहिएगा। ये एक अहसास है। जो इस अहसास को महसूस कर सकता है, जो इन्हें जी सकता है वही जिन्दगी को सही मायने में जी पाता है।
आइए आज हम सब मिल कर जीते हैं। जीने की तैयारी बहुत हो चुकी। अब जीना है। रिश्तों के साथ जीना है।
(देश मंथन, 21 नवंबर 2015)