संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे एक जानने वाले कुछ ही दिनों में रिटायर होने वाले हैं। उनकी चिंता यह नहीं है कि वो रिटायर होने के बाद क्या करेंगे। उनका दुख यह है कि उन्होंने अपनी जिन्दगी का इतना बड़ा वक्त सिर्फ जीने की तैयारी में गुजार दिया। अब जब जीने की घड़ी आयी, तो उन्हें याद आ रहा है कि उनकी जिन्दगी तो निकल चुकी है। उन्होंने बरसों बाद खुद को आइने में देखा और पाया कि सिर से आधे बाल उड़ चुके हैं, बाकी जो बचे हैं, वो सफेद हो गये हैं।
आँखों पर चश्मा कब लगा उन्हें याद ही नहीं। शुगर की बीमारी तो कुर्सी पर बैठे-बैठे सबको हो ही जाती है, इसलिए जब डॉक्टर ने उन्हें इस बीमारी के होने के बारे में बताया था, तब उन्हें दस साल पहले भी अफसोस नहीं हुआ था।दोनों बेटों को अपनी हैसियत से अधिक खर्च कर उन्होंने पढ़ाया। एक बेटा फिलहाल कनाडा में है, दूसरा बैंगलोर में। दोनों की शादी हो चुकी है, दोनों अपनी जिन्दगी में मस्त हैं। अब जब अगले कुछ दिनों में मेरे जानने वाले रिटायर हो ही जाएँगे, तो उन्हें चिंता सता रही है कि वो अब करेंगे क्या?
खाली घर काटने को दौड़ेगा।
सच में बूढ़ा-बूढ़ी करेंगे क्या?
मैंने कहा कि बच्चों के पास चले जाइएगा, तो कहने लगे कुछ दिन के लिए तो जा सकते हैं, पर अब कहीं और एडजस्टमेंट मुमकिन नहीं। पुराने जमाने में पिता का घर होता था, बच्चे उसमें रहते थे। उसी घर में बच्चों की शादी होती थी, उसी घर में उनके बच्चे होते थे। दफ्तरों में जो स्थायी पता लिखा जाता था, वह यही पिता वाला घर होता था। बाकी तो अस्थायी पता हुआ करते थे। लोग किराये पर या सरकारी मकानों में रहते थे, और साल में कई दफा अपने स्थायी निवास की ओर भागते थे। पर अब तो हर किसी के पास अपना दो बेडरूम का फ्लैट है। आदमी लोन लेकर अपनी सारी जिन्दगी ईएमआई के चक्कर में काट देता है। ऐसा लगता है मानो आदमी सारी जिन्दगी उसी लोन की भरपाई के लिए कमाने में भागा जा रहा है।
आखिर में हाथ क्या मिलता है? अकेलापन, तन्हाई?
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नशे में डूबे एक आदमी को रात में प्यास लग आयी। वो अकेला अपने कमरे में सो रहा था। अचानक प्यास लगी, तो उसकी नींद खुली और उसने इधर-उधर टटोल कर पानी पीने के लिए लोटे को ढूंढ लिया। लोटा उल्टा रखा था।
नशेड़ी ने ऊपर से हाथ लगा कर लोटे को छुआ और बुदबुदाया कि ओह! लोटे का तो मुँह ही बंद है। पर जैसे ही उसने लोटे को उठा कर नीचे की ओर छुआ, वो फिर बुदबुदाया, हे भगवान! इसका तो पेंदा ही नहीं है।
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इस चुटकुले को पढ़ कर हँसिए मत। जो लोग जिन्दगी के नशे में होते हैं, उनके साथ ऐसा ही होता है। जब उन्हें प्यास लगती है, तो उन्हें ऊपर ढक्कन लगे और नीचे बिना पेंदी के लोटे ही मिलते हैं। ऐसे में वो तय नहीं कर पाते कि क्या करें। वो उस लोटे को वहीं छोड़ कर फिर से भटकने लगते हैं किसी और लोटे की तलाश में। जिन्दगी भटकने का नाम नहीं है। जिन्दगी जीने का नाम है। जो हर कदम पर जिन्दगी को जीते हैं, उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि कल जब नौकरी से मुक्ति मिलेगी, तो वो क्या करेंगे। अरे वो अब तक जीते आये हैं, आगे भी वही जिएँगे।
जिन्दगी को जीना मन की गति है। तन की गति नहीं। जो तन की गति में जीवन तलाशते हैं, उनके हिस्से कुछ नहीं आता।
तो देर किस बात की?
आप भी तैयार हो जाइए, जिन्दगी को जीने के लिए। जितने दिन भी जिन्दगी जीने को मिले, जीने लगिए। और लोटा को सीधा करके उसके सच को समझने की कोशिश कीजिए कि न तो उसका मुँह बंद है, न उसकी पेंदी खुली है। जरूरत मन की आँखें खोलने की है, और कुछ नहीं।
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जीवन में एक बैलेंस को बनाए रखना जरूरी है। जिन्दगी जीने की तैयारी बेशक करनी चाहिए, लेकिन जिन्दगी जीते हुए।
(देश मंथन, 16 सितंबर 2015)