संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैं अपनी माँ से पूछा करता था कि माँ, आपकी शादी पिताजी से कैसे हुई?
माँ अपनी शादी को ईश्वरीय विधान बताती। कहती कि भगवानजी आये थे और उन्होंने सब तय कर दिया। बहुत से बच्चों की तरह मेरे मन में भी कौतूहल जगता कि माँ की शादी वाली तस्वीरों में मैं कहीं क्यों नहीं हूँ? माना कि मैं छोटा बच्चा रहा होऊँगा और मुमकिन है कि सो रहा होऊँगा, पर एक दो तस्वीरों में तो मुझे होना ही चाहिए था।
मुझे लगता है कि सभी बच्चे एक न एक बार माता-पिता की शादी की कहानी उनके मुँह से जरूर सुनते हैं।
मेरा बेटा भी बहुत छोटी उम्र में एक बार मुझसे पूछ बैठा था कि पापा तुम्हारी शादी कैसे हुई थी। मैंने भी उसे ईश्वरीय विधान समझा दिया था। पर जब वो बड़ा हुआ तो एक दिन बैठ कर उसे मैंने पूरी कहानी जस की तस सुनाई कि मैं कैसे तुम्हारी मम्मी से मिला और फिर हमारी शादी हुई।
वैसे तो सबकी शादी की कहानी में थोड़ा फिल्मी टच होता ही है, लेकिन मेरी कहानी तो पूरी फिल्मी थी।
पिछले साल मैंने अपने एक होने की पूरी कहानी आपको सुनायी थी। मैंने सुनाया था कि कैसे हम भविष्य में ये वाला गाना गुनगुनाने की तैयारी फटाफट कर बैठे थे-
“एक हो गये हम और तुम
तो उड़ गई नींदें रे
और खनकी पायल मस्ती में तो
कंगन खनके रे…
हम्मा, हम्मा, हम्मा, हम्मा, हम्मा
है पहली बार मिले
तुम पे दम ये निकले
तुम पे ये जवानी धीरे-धीरे
मद्धम मचले रे
हम्मा, हम्मा, हम्मा, हम्मा, हम्मा”
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खैर, अब जब मेरे बेटे की शादी हो जाएगी, मैं दादा बन जाऊँगा और मेरे बेटे का बच्चा मुझसे पूछेगा कि दादा जी आपने दादी से शादी कैसे की, तो मैं उसे फिर ईश्वरीय विधान की कहानी सुनाऊँगा। मैं उसे बताऊँगा कि कैसे तुम्हारी दादी ने सोलह सोमवार के व्रत किए, भगवान शंकर को प्रसन्न किया और फिर वो मुझसे मिली। मुमकिन है तब वो शिशु मुझसे पूछ बैठे कि आपने कौन सा व्रत किया था?
अगर उसने ये सवाल कर दिया तो मेरे सामने दुबारा ‘हम्मा-हम्मा-हम्मा’ करने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचेगा, क्योंकि किसी ईश्वरीय कहानी में पति की ओर से पत्नी को पाने के लिए व्रत वाली कोई कहानी मुझे नहीं याद आ रही।
पर जब वो बड़ा हो जाएगा, तो मेरे पास अपनी शादी के विषय में सुनाने को वही कहानी होगी, जिसे पिछले साल मैं आपको सुना चुका हूँ।
अब उसमें सिर्फ कुछ शब्द बदल सकते हैं, सच वही रहेगा। तब तक वही रहेगा, जब तक हम रहेंगे।
पिछले साल की तुलना में हमारे परिवार में कई हजार सदस्य बढ़ चुके हैं। मैं जानता हूँ कि आप हमारे विवाह की पूरी कहानी पढ़ चुके हैं। दो तीन सौ बार मेरे मुँह से सुन चुके हैं। लेकिन आज विवाह की सालगिरह है, इसलिए फिर वही कहानी लाया हूँ…।
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तारीख- 20 अप्रैल
प्रेम भी अग्नि के समान होता है। प्रेम की लकड़ियाँ जब तक धधकती हैं, कहीं कोई धुआँ नहीं होता, आँखों में जलन नहीं होती और न हीं कहीं कड़वाहट होती है। लेकिन जब प्रेम की अग्नि बुझने लगती है तो मन में कड़वाहट भरने लगती है। आँखें धुएँ से बंद होने लगती हैं।
मुझे नहीं पता था कि क्या होने जा रहा है। मैं बस इतना समझ पा रहा था कि बचपन में बड़ी दीदी की सहेली बेबी दीदी को देख कर पाँच-छह साल की उम्र में मेरे मन में शादी की जो चाहत जागी थी, वो आज पूरी होने जा रही है। शादी हो जाएगी, फिर मैं क्या करुँगा, कैसे रहूँगा, कैसे संभालूंगा खुद को, कैसे संभालूंगा उस लड़की को जो आज मेरी जीवन भर की संगिनी हो जाएगी, कैसे रिश्तों की इन कड़ियों में शामिल करुँगा अपने छोटे भाई को, अपनी बहनों को, मुझे कुछ नहीं पता था।
भोपाल से दिल्ली आते वक्त मैं अपने लोहे के बक्से को साथ लेता आया था। उसमें मेरी ढेरों यादें रखी थीं। मेरे छिटपुट प्रेम की ढेर सारी यादें। किसी की तस्वीर तो किसी का पत्र। मैंने अपने छोटे भाई से कहा कि उस लोहे के बक्से को खोल कर उसमें से मेरी सारी यादों को मिटा दो।
भाई ने पूछा, “क्यों?”
“क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी भाभी जब घर आये तो उनके मन में मेरे पिछले जीवन की यादों की कोई सुलगती हुई गीली लकड़ी आँखों में कड़वाहट भर दे।”
“मुझे नहीं लगता कि बक्से में ऐसा कुछ है। पुरानी यादें मिटाने की जरूरत उन्हें पड़ती है जिनके विवेक की चादर फटी होती है। जिनके विवेक की चादर फटी होती है, वो एक ओर से ढकने की कोशिश करते हैं तो दूसरी ओर से उघड़ जाता है। और आपके बक्से में कुछ है तो इस बक्से की चाबी आप भाभी को दे दीजिएगा। कह दीजिएगा कि जो है, यही है, खुद देख लो। फिर वो जो चाहे सोचें, जो चाहे समझें। मैं आपकी यादों को मिटाने के हित में नहीं। आपकी यादें कागजों और तस्वीरों से मिट जाए, इसकी कोई अहमियत ही नहीं। अहमियत इस बात की होगी कि आज 20 अप्रैल के बाद आपकी यादों में कौन होगा।”
“तुम तो फिलॉसफर बन गये हो।”
“भाई किसका हूँ? और सुनिए भैया, जिस सच को छिपाने की कोशिश की जाती है, वो झूठ से ज्यादा भयंकर होता है। झूठ में तो आदमी गिर कर टूटता है लेकिन छिपे हुए सच में आदमी टूट कर गिरता है।”
“वाह! क्या बात कही है। संजय सिन्हा आज से अपने छोटे भाई को अपना गुरु मानते हैं। झूठ में तो आदमी गिर कर टूटता है, लेकिन छिपाए गए सच में आदमी टूट कर गिरता है। कितनी गहरी बात कह दी मेरे भाई आज तुमने। तो तय रहा कि मेरा बक्सा वैसे ही रहेगा। उसमें पड़ी मेरी यादें जस की तस पड़ी रहेंगी। उसमें से सविता कि चिट्ठी कभी मैं बाहर नहीं निकालूंगा। निधि की तस्वीरें भी हमारे एलबम में वैसे ही पड़ी रहेंगी। लेनिनग्राद में मिली येलेना को हम अपनी सामान्य यादों में शामिल कर लेंगे। आईआईएमसी में मिली मंजू की चर्चा हम खुलेआम करेंगे। जो है यही है, जो नहीं है, वो भी यही है।”
अपने बक्से की चिंता से तो मैं बाहर आ चुका था, लेकिन अभी तक होने वाली पत्नी नहीं आई थी। जो समय तय था वो बीत चुका था। मेरा मन कई तरह की आशंकाओं से घिरा था। कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई। कहीं घर वालों ने उसे कमरे में बंद तो नहीं कर दिया।
मेरी स्थिति विचित्र थी। मन में कई तरह के ख्याल आ रहे थे। लग रहा था कि 19 की रात मैं सोया और 20 की सुबह बहुत बड़ा हो गया हूँ। मन भीतर से छटपटा रहा था। मेरी छोटी बहन अपने पति और अपनी तीन महीने की बिटिया के साथ मेरे विवाह की गवाह बनने घर पहुँच गयी थी। मैंने उनका स्वागत किया। लेकिन मैं शांति की चादर ओढ़े हुए भीतर से बहुत अशांत था। पटना में जब कभी गंगा के किनारे जाता और घाट के किनारे जब उसमें अपने पाँव डालता तो महसूस होता कि उपर तो शीतलता बह रही है, लेकिन भीतर का पानी गर्म है। मैं शांत था, लेकिन अशांत था। मेरी बहन ने पूछा, भैया परेशान हो क्या? मैंने कहा, नहीं। और चुपचाप मकान मालकिन आंटी के कमरे में उनके बिस्तर पर जाकर लेट गया।
भाई मेरे पास आया। उसने मेरे सिर को सहलाया। आप परेशान मत हों। हम सब आपको देख कर जीते हैं। आप हमारे लिए संसार के सबसे मजबूत स्तंभ की तरह हो। आपको इस तरह बेहाल देख कर तो कोई भी बैठ जाएगा। मैंने भाई की ओर मुस्कुरा कर देखा और कहा, “नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ। लेकिन पता नहीं कहाँ रह गयी वो? नहीं आयी तो फिर क्या होगा? सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी हैं।”
“ओह! आप भाभी के नहीं आने से परेशान हो? ये तो आपने ही बताया था कि जब उन्होंने आपसे पहली बार मिलने का जो समय दिया था उसके दो घंटे बाद वो पहुँची थीं। लड़कियों को सजने में समय लगता है। और भाई अपनी इस आदत को बदल लो, आज शादी के बाद आपके सामने हर रोज समय की इस पाबंदी को लेकर उलझनें आएंगी। लड़कियाँ सजने के बाद खुद को हजार बार निहारती हैं, इस हजार बार खुद को निहारने में उन्हें समय का पता ही नहीं चलता। तो आप इस तरह समय को लेकर मुँह फुलाते रहे, उदास होते रहे, तो बेहतर है शादी ही मत करो।”
मैंने भाई की ओर देखा। मुझसे चार साल छोटा मेरा भाई लड़कियों के विषय में कितना बड़ा ज्ञानी था। जो बात मुझे नहीं पता थी, उसे पता थी।
मैंने धीरे से कहा कि चलो मान भी लिया कि वो देर से आ जाएगी। लेकिन मेरे मन में एक दुविधा है, दुविधा भविष्य को लेकर।
“भविष्य? भविष्य क्या होता है? वो तो एक कल्पना है। अतीत होता है, वर्तमान होता है, भविष्य कुछ नहीं होता। आपका अतीत आपके उस लोहे के बक्से में बंद हो चुका है। मेरी मानो तो शादी के बाद उस बक्से को भाभी के घर रखवा देना। आपकी सास की निगरानी में वो बक्सा महफूज रहेगा। घर पर रखोगे तो रोज खोल-खोल कर उसे कुरेदोगे। वर्तमान सदा आपके साथ रहेगा। रही बात भविष्य की तो जो राम जी ने रचा होगा, वही होगा। बस। उठो, नहाओ, तैयार हो जाओ। जरा मैं भी तो देखूँ कि क्रीम कलर की सिल्क की शर्ट में मेरा भाई कैसा लग रहा है। मैं उठ खड़ा हुआ। तब तक पायल की छम-छम कानों में गूंजी। देखा तो मेरा भविष्य जो वर्तमान बनने जा रही थी, मेरे सामने खड़ी थी।
एक तरफ मेरा भाई था, दूसरी ओर मेरी जीवन संगिनी।
उसके बाद हम तीनों कभी जुदा नहीं हुए। मेरी पत्नी मेरे भाई की माँ बन गयी। सहेली बन गयी। बुरा हो उस मनहूस तारीख का, जब मेरा भाई हम दोनों को छोड़ कर चला गया। ऐसा लगा कि हमारे रिश्तों की कड़ी ही बीच से टूट गयी।
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मुमकिन है अपने फेसबुक के इस सफर में मैंने कुछ परिजनों को कभी नाराज किया हो। पर आप सबकी दुआओं की दरकार है मुझे। मेरे टूटते हुए संबल को बनाए रखने के लिए। मैं अपनी शादी की सालगिरह बेशक नहीं मना रहा, लेकिन आपके प्यार पर मुझे यकीन है। जैसे अपनी शादी के दिन मैं चिंतित हो कर बिस्तर पर ढुलक गया था और मेरा भाई मेरे पास आकर मुझे संबल प्रदान कर रहा था, वैसे ही आपका प्यार मुझे मजबूर करेगा एक दिन अपने शोक से बाहर निकलने के लिए।
(देश मंथन, 21 अप्रैल 2016)