वादे इसीलिए करते हैं ताकि उन्हें पूरा कर सकें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मेरे दफ्तर में कल एक लड़की मेरे पास आयी और उसने मुझसे पूछा कि आप किसी की शादी में शामिल होने पटना गये थे? 

“हाँ, मैं अपनी एक दोस्त के बेटे की शादी में शामिल होने पटना गया था।” 

“आप मेरी शादी में नहीं आये थे। पिछले महीने मेरी शादी में नहीं आने की वजह यही बतायी थी कि आप आमतौर पर शादियों में शामिल नहीं होते।”

मुझे याद आया। मेरे दफ्तर में काम करने वाली उस लड़की की शादी पिछले महीने दिल्ली में ही हुई थी। वो काजू की बरफी का एक डिब्बा और सुंदर सा कार्ड लेकर मुझे निमंत्रण देने मेरे पास आयी थी। उसने मुझसे बार-बार अनुरोध किया था कि मैं उसकी शादी में जरूर आऊँ। मैंने उससे कोई वादा नहीं किया। हाँ, इतना जरूर कहा था कि कोशिश करुँगा, पर साथ ही यह भी कहा था कि मैं आमतौर पर शादी के फंक्शन में शामिल नहीं होता। 

लड़की मेरी बात से कुछ निराश जरूर हुई थी, लेकिन समझ रही थी कि सचमुच आमतौर पर मैं शादियों के फंक्शन में नहीं जाता। वो बहुत दिनों से मेरे साथ काम कर रही है, उसे तकनीकी रूप से मेरी इस आदत के बारे में पता भी था। 

पिछले दस सालों में दफ्तर के कई लोगों की शादी हुई है। मैं इक्का-दुक्का शादियों में तो गया हूँ, पर ज्यादातर शादियों में नहीं गया। 

खैर, अभी मसला ये नहीं था कि मैं शादियों में क्यों नहीं जाता, अभी मसला ये था कि मैं किसी की शादी में शिरकत करने के लिए इतनी दूर गया, न सिर्फ गया बल्कि दो-तीन दिन मैं दफ्तर से छुट्टी पर भी रहा। 

जब तक बहुत जरूरी न हो, मैं दफ्तर से छुट्टी नहीं लेता। जब तक बहुत जरूरी न हो, मैं यात्रा करना टालता हूँ। जब तक बहुत जरूरी न हो, मैं किसी फंक्शन में जाने से भी खुद को रोकता हूँ, खास कर शादी में। 

वो लड़की मेरे सामने बैठी थी। उसे यह जानने में बहुत दिलचस्पी थी कि वो कौन सी बात होती है, जो आदमी को ऐसा कुछ करने पर मजबूर कर देती है जो आम तौर पर वो नहीं करता। वो हैरान थी कि पिछले महीने हुई उसकी शादी में पूरा दफ्तर मौजूद था, सिवाय संजय सिन्हा के। पर अभी तो वो यही जानना चाह रही थी कि मैं एक शादी में गया, ऐसा क्यों?

उसकी बात सुन कर मैं कहीं खो गया। मुझे अपने पिता की सुनाई एक कहानी याद आ रही थी। 

***

एक बार युद्ध में फँसे एक सैनिक ने अपने दोस्त की आवाज सुनी कि दोस्त तुम कहाँ हो, मुझे बचाओ।

सैनिक के कानों में आवाज पड़ी और उसने अपने कमांडर से पूछा कि क्या वो उस कैंप तक चल कर जाए, जहाँ उसका दोस्त फँसा हुआ है। कंमाडर ने कहा, “नहीं। तुम मत जाओ। बाहर गोलियाँ चल रही हैं, और उस कैंप पर तो पूरी तरह उनका कब्जा हो चुका है। तुम्हारे जाने का कोई फायदा नहीं। तुम्हारे दोस्त को गोली लग चुकी है, वो बचेगा नहीं।”

सैनिक बैठ गया। फिर उसके कानों में आवाज आई, “दोस्त, तुम कहाँ हो? आओ, मुझे बचाओ।”

सैनिक से नहीं रहा गया। उसने अपने कमांडर से कहा कि उसे जाना ही पड़ेगा। 

कमांडर ने बहुत रोका। बार-बार कहा कि तुम मत जाओ। कोई फायदा नहीं है। पर सैनिक नहीं माना। वो किसी तरह उस कैंप तक पहुँच ही गया। 

कुछ देर बाद वो लौट कर वापस अपने कैंप तक पहुँचा। दुश्मनों की तरफ से लगातार गोलियाँ चल रही थीं। वापसी पर कमांडर ने बहुत चिढ़े मन से उससे पूछा कि क्या हुआ तुम्हारे दोस्त का? 

सैनिक ने बताया कि वो नहीं रहा। 

कमांडर ने कहा, “मैंने तुम्हें पहले ही बताया था कि वो नहीं बचेगा। तुम मत जाओ। बेकार में तुमने अपनी जान मुश्किल में डाली।”

सैनिक ने कहा, “नहीं, कमांडर। मेरा जाना सही था। मैं जब वहाँ पहुँचा, तो वो जीवित था। मुझे देखते ही वो खुश हो गया। उसने मुझसे कहा कि मुझे विश्वास था कि जब तुम मेरी आवाज सुनोगे, तो तुम मुझसे मिलने जरूर आओगे। 

हम दोनों बचपन के दोस्त थे। हमने कभी एक-दूसरे से वादा किया था कि जब भी हम में से कोई एक दूसरे को इतनी शिद्दत से आवाज देगा, तो वो उससे मिलने जरूर जाएगा।”

***

मैं जिस शादी में शामिल होने गया था, वहाँ जाना बेशक शादी समारोह में नहीं जाने के मेरे ही फैसले के खिलाफ था। पर मैंने बहुत साल पहले अपनी दोस्त से ये वादा किया था कि चाहे मैं जहाँ रहूँ, मैं आपके दोनों बच्चों की शादी में जरूर आऊँगा। कई साल पहले मेरी दोस्त की बेटी की शादी हुई थी, तब भी मैं वहाँ गया था। अब बेटे की शादी थी, तो भी मैं गया। 

जिस दोस्त के घर मैं शादी में शामिल होने पहुँचा था, उस दोस्त को 18 साल पहले किए मेरे वादे पर पूरा यकीन था कि मैं आऊँगा। 

जिस दिन मेरी दोस्त ने अपने बेटे की शादी तय की थी, पहला फोन मेरे पास आया था। 

“संजय, आप आएँगे न?” 

***

मेरे दफ्तर की लड़की अपनी आँखों के भीगे कोर पोंछ रही थी। उसने धीरे से कहा, “समझ गई, सर।”

वादे इसीलिए किए जाते हैं ताकि उन्हें पूरा किया जा सके। 

(देश मंथन, 23 जनवरी 2016)

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