सबसे अभागा वो आदमी जिसके पास रिश्ते नहीं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मेरे दफ्तर में काम करने वाली एक महिला ने कल अपना इस्तीफा सौंप दिया। वो मुझसे मिलने आयी थी और बता रही थी कि उसे बहुत अफसोस है कि वो नौकरी छोड़ कर जा रही है, पर मजबूरी है। 

मैंने उससे पूछा कि ऐसी क्या मजबूरी है? 

महिला के साथ हुई बातचीत को मैं जस का तस आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। 

“सर, मेरे पति की तबियत ठीक नहीं रहती। काफी दिनों से वो अस्पताल में हैं। ऐसे में घर, दफ्तर, बच्चा, अस्पताल सब कुछ अकेले मैनेज करने में बहुत मुश्किल आ रही है।”

“आप छुट्टी ले लीजिए। इस्तीफा देने की क्या जरूरत है?”

“मेरी सारी छुट्टियाँ खत्म हो चुकी हैं। वैसे मैं चाहूँ तो बिना वेतन की छुट्टी भी ले सकती हूँ, लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि कुछ वक्त मुझे बच्चे के साथ गुजारना चाहिए, इसलिए मैंने तय किया है कि नौकरी नहीं करूंगी। बच्चे को नौकरानी के भरोसे कितने दिन छोड़ूंगी?” 

“बात तो सही है। बच्चे को माँ का साथ चाहिए होता है।”

“हाँ सर।”

“आपके पति की तबियत को क्या हुआ है?”

“पिछले दिनों एक एक्सिडेंट के बाद से कई समस्याएँ लगी हुई हैं। एक-एक कर नयी मुसीबतें आती जा रही हैं। और सबसे बड़ी बात ये है कि घर में कोई और नहीं है जो हमारी ममद कर सके। सारा कुछ अकेले ही मैनेज करना पड़ता है।”

“पैसे की कोई जरूरत हो तो बताइए।”

“पैसे की कोई मुश्किल नहीं। मुश्किल है अकेलापन। कोई रिश्तेदार या दोस्त भी ऐसा नहीं जो आ कर कुछ दिन रह जाए। बड़े शहरों में आदमी अकेला होता है, सर।”

“बड़े शहरों में? इससे क्या मतलब है आपका?”

“शादी से पहले मैं जिस छोटे शहर में रहती थी, वहाँ तो अड़ोसी-पड़ोसी आते रहते थे। लोग एक दूसरे के दुख-सुख में शामिल रहते थे। लोगों को लोगों का आसरा था। पर यहाँ तो अपने फ्लैट में टंगे रहो। मेरा फ्लैट 19वीं मजिल पर है और मुझे ठीक से ये भी नहीं पता कि मेरे सामने वाले फ्लैट में कौन रहता है। न वो आते हैं, न हम जाते हैं। सब अकेले-अकेले हैं।”

“और आपके रिश्तेदार?”

“सभी रिश्तेदार हैं। पर हमारा किसी से मिलना-जुलना नहीं। जब हम दिल्ली आए और अपनी रोज की जिन्दगी में मशगूल हो गये तो धीरे-धीरे रिश्तेदारों से हमारा मिलना-जुलना कम होता चला गया। एक तो ऐसा वक्त भी आ गया था कि कोई अगर हमारे घर बिना पूर्व सूचना के आ जाता, तो हमारे लिए उसे मैनेज करना बहुत मुश्किल हो जाता। ऐसे में धीरे-धीरे हम लोगों से कटते चले गए। जब तक सब ठीक था, हमें किसी की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। मेरे पति की नौकरी बहुत अच्छी थी, बेटा स्कूल जाने लगा था, मैं नौकरी करती हूँ, ऐसे में हमें लगा ही नहीं कि किसी की हमें कभी जरूरत पड़ेगी।”

“तो आपने खुद को अकेला कर लिया और दोष महानगर को दे रही हैं।”

“पर सर, सच्चाई तो यही है। बड़े शहरों में सब अकेले हैं।”

“नहीं। सब अकेले नहीं। मुझे देखिए मेरे पास इतने सारे लोग हैं।”

“हाँ, आपने तो फेसबुक पर इतना बड़ा परिवार बना लिया है।”

“मैं तो कहीं जाता हूँ, मुझे दस लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो मुझे रिश्तेदार की तरह प्यार करते हैं। भाई हैं, बहनें हैं, माँ हैं, दोस्त हैं, न जाने कितने रिश्तों को मैं यहाँ जी रहा हूँ। आप इन्हें काल्पनिक रिश्ते कहेंगी पर मेरे लिए ये हकीकत के रिश्ते हैं। रिश्ते तो आप किसी से बना सकती हैं। पर आपने और आपके पति ने अपने लिए वही जिन्दगी चुनी, जिसे आप जी रही हैं।”

“ये सच है, सर। मुझे भी लगता है कि हमने शुरुआत में खुद जीने के चक्कर में अपने सभी रिश्तों को खो दिया। जब हम अच्छी स्थिति में रहते हैं तो हमें किसी बाहरी का साथ अच्छा नहीं लगता। ‘हम और हमारे बच्चे’, बस इतने में सब समेट लेते हैं। तब हम रिश्तों की अहमियत नहीं समझते। हम संयुक्त परिवार की अहमियत नहीं समझे। परिवार क्या, हम किसी रिश्ते की अहमियत नहीं समझे। आज लगता है सबने हमें छोड़ दिया है। दरअसल हमने सबको छोड़ दिया था। अब कोई हमारे पास नहीं आता, मन बहुत करता है, पर यही लगता है कि किस मुँह से किसी को बताऊं कि क्या समस्या है।”

***

मैं आज जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वो एक समान्य घटना है। मगर एक-एक अक्षर सत्य है। कल मैंने उस महिला की आँखों में उदासी और अकेलेपन को महसूस किया। मैं उसकी आँखों में देख पा रहा था कि अकेलेपन का दंश क्या होता है। 

उसका पति बड़ी पोस्ट पर है। यकीनन उनके पास पैसों की कमी नहीं। सारी सुविधाएँ होंगी। ड्राइवर, नौकर, रसोइया सब होंगे। पर कोई ऐसा रिश्ता नहीं, जिससे वो अपना दुख साझा कर लें। न दोस्त, न रिश्तेदार। 

कल से मैं लगातार सोच रहा हूँ कि आदमी किस गुमान में खुद को इतना अकेला कर लेता है? 

मेरी माँ तो मुझे पास बिठा कर रिश्तों के इतने पाठ पढ़ाती थी कि मुझे लगने लगा था कि माँ मुझसे ये कहना चाहती है कि इस संसार में तुम चाहे कोई और कमाई करो न करो, पर रिश्तों की कमाई खूब करना। माँ कहती थी कि सबसे अभागा होता है वो आदमी जिसके पास रिश्ते नहीं होते। 

तो क्या उस महिला और उसके पति की माँओं ने उन्हें ये वाला पाठ नहीं पढ़ाया होगा? क्या वो सिर्फ बीए, एमए की पढ़ाई करते रह गए, जिन्दगी की पढ़ाई उन्होंने की ही नहीं? 

नहीं की होगी। यकीनन नहीं की होगी। की होती तो संजय सिन्हा के पास तीस हजार से ज्यादा रिश्तेदार हैं, उनके पास दस बीस ही होते, मगर होते जरूर।

(देश मंथन 24 जुलाई 2016)

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