संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
यह कहानी किसी की आप बीती हो सकती है।
मेरा एक परिचित मुझे बता रहा था कि उसकी पत्नी उसकी माँ को देखना नहीं चाहती। वो बार-बार कहती है कि तुम माँ को किसी रिश्तेदार के घर छोड़ आओ। उसकी पत्नी के लिए पति की माँ बोझ बन गयी है।
मेरा परिचित मुझसे राय माँग रहा था कि रोज की किचकिच से वो परेशान हो चुका है, उसे अब क्या करना चाहिए?
मैं उससे क्या कहता? यहीं मुझे याद आया कि किसी ने मुझसे एक कहानी कुछ दिन पहले साझा की थी।
मैं अपने परिचित को वो कहानी सुनाना चाहता था, पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं यह कहानी उसे सुना दूँ। माँ बेटे के रिश्ते की वो कहानी जब मैंने सुनी थी, मेरे हाथ पाँव ठंडे पड़ गये थे।
उस दिन गाड़ी में भी अपने परिचित की समस्या को सुन कर मेरे जेहन में वही कहानी दौड़ने लगी, और मेरे हाथ-पांव सुन्न होने लगे।
***
मेरी गाड़ी में बैठा मेरा परिचित मुझे झकझोर रहा था, क्या हुआ आपको? सब ठीक तो है न?
मेरी तंद्रा टूटी।
तंद्रा टूटी नहीं, मैं और गहरी तंद्रा में चला गया। मैं सोच में डूब गया कि क्या ऐसा भी होता है?
मैं जानता हूँ कि अब आप सोच रहे होंगे कि संजय सिन्हा मुद्दे पर क्यों नहीं आ रहे? क्यों वो पहेलियाँ बुझा रहे हैं? पर क्या करूं? हाल फिलहाल में जितनी कहानियाँ मैंने पढ़ी या सुनी है, उससे ये एकदम अलग सी है।
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पत्नी अपने पति से झगड़ रही थी कि बुढ़िया को कहीं ले जाकर छोड़ आओ। अब मुझसे नहीं सहा जाता। आखिर मेरी भी कोई जिन्दगी है। कब तक तुम्हारी विधवा बुड्ढी माँ के नखरे सहती रहूँगी। इतने साल हो गये शादी के, आज तक कभी चैन से नहीं रह पायी।
बेटा माँ की ओर देख रहा था। माँ चुप खड़ी थी।
आखिर में सहमति बन गयी कि माँ अब यहाँ नहीं रहेगी। उसे किसी न किसी आश्रम में जाना होगा।
बेटे ने माँ को गाड़ी में बिठाया और निकल पड़ा एक आश्रम की ओर। माँ चुप थी। सारे रास्ते चुप रही।
वो एक आश्रम ही था। माँ को उसने गाड़ी से उतारा, उसके सारे सामान भी उतारे। फिर बहुत कातर होकर उसने माँ से कहा, “माँ परेशान मत होना। तुम्हें यहाँ किसी चीज की तकलीफ नहीं होगी। माँ, तुम्हारा यहाँ मन भी लगा रहेगा।”
माँ खामोश थी। अचानक तेज कदमों से चलता एक पादरी वहाँ आया। उसने महिला की ओर देखा और रुक गया। उसने रुक कर माँ की आँखों में झाँका, और फिर हैरत में पड़ कर पूछा, “आप? यहाँ?”
माँ ने पादरी की ओर देखा। उसे पहचानने की कोशिश करने लगी। फिर उसने धीरे से सिर हिलाया, “हाँ, मैं यहाँ।”
बेटे ने पादरी की ओर देखा और पूछा, “आप लोग एक दूसरे को जानते हैं? चलो अच्छा हुआ, आप यहाँ माँ को मिल गये। माँ को बहुत अच्छा लगेगा, कोई तो परिचित मिला।”
पादरी ने बेटे की ओर देखा।
कहा, “हाँ बेटा मैं इन्हें जानता हूँ। कई साल पहले ये इसी आश्रम से एक अनाथ बच्चे को गोद लेकर गयी थीं। बहुत साल बीत गये। फिर ये यहाँ कभी नहीं आईं। आज आयी हैं, इन्हें देख कर बहुत अफसोस हो रहा है। जिस बच्चे को इन्होंने गोद लिया था, वो कहाँ है?”
एक गहरी खामोशी उस आश्रम में छा गयी थी।
पादरी ने फिर धीरे से पूछा, “कहाँ है आपका वो बच्चा? आपका तो अपना घर था, फिर इस आश्रम में कैसे?
माँ चुप खड़ी रही।
पादरी बोले जा रहा था। पता नहीं क्यों लोग संतान की चाहत भी रखते हैं।”
पादरी कुछ-कुछ बुदबुदा रहा था। उसके काँपते होंठों से स्पष्ट बोल नहीं फूट रहे थे।
माँ खामोश खड़ी थी।
अब बेटा भी खामोश था। धीरे-धीरे बुदबुदाता हुआ पादरी वहाँ से चला गया।
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पादरी के जाने के बाद माँ ने बहुत धीरे से कहा, “जाओ बेटा। तुम जी लो अपनी जिन्दगी।”
(देश मंथन, 15 अक्तूबर 2015)