रोम-रोम में बसी है माँ

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

स्कूल में जब सारे बच्चे बात-बात पर विद्या कसम खा लेते थे, तब भी मैं विद्या कसम नहीं खाता था।

बच्चे हाथ में किताब लेते, सिर से लगाते और कहते कि मेरी सारी विद्या खत्म हो जाए जो मैंने एक बात भी झूठ कही हो। मेरी क्लास का गोलू दोपहर में क्लास छोड़ कर फुटबॉल खेलने रमना मैदान निकल गया था, और जब अगले दिन टीचर ने बुला कर पूछा, उसने फट से कह दिया कि मास्टर साहब, कल अचानक पेट में बहुत दर्द होने लगा था। मैंने संजू को बताया था और फिर घर चला गया।

मैं चौंका, मुझे बताया था? कब?

मास्टर साहब ने कहा कि तुम झूठ बोल रहे हो। मास्टर साहब के मुँह से इतना निकलना था कि गोलू ने सामने पड़ी किताब को उठाया और माथे लगा कर बोला, “विद्या कसम, मास्टर साहब। मैंने रत्ती भर भी झूठ बोला हो, तो मैंने आजतक जितना पढ़ा है, सब गायब हो जाए।”

गोलू ने इतना भोलू मुँह बना कर विद्या कसम खायी थी कि मास्टर साहब को यकीन करना ही पड़ा। पर उसके विद्या कसम खाने से मुझे एक फायदा हुआ कि मुझसे गवाही नहीं ली गयी।

लंच ब्रेक में मैंने गोलू को घेर लिया।

“तुमने मेरा नाम क्यों लिया?”

“यार, सामने तुम दिख गये, तो तुम्हारा नाम ले लिया।”

“लेकिन मास्टर साहब मुझसे पूछ बैठते तो मैं तो कह देता कि तुमने मुझे नहीं बताया था।”

“तुम ऐसा नहीं बोलते। मैं जानता हूँ कि तुम न तो कभी विद्या कसम खाते हो, न विद्या कसम खाए व्यक्ति को झुठला सकते हो।”

बात सही थी। मैंने बताया न कि मैं कभी विद्या कसम नहीं खाता था। इसकी वजह मेरे मन में इस डर का होना नहीं था कि मेरी विद्या चली जाएगी। इसकी वजह यह थी कि मेरी माँ का नाम विद्या था और मैं माँ को खो देने से डरता था।

मैंने कभी विद्या कसम नहीं खायी, फिर भी माँ भगवान जी के पास चली गयीं। लेकिन एक सत्य यह भी है कि मैंने कभी कसम नहीं खायी, इसलिए माँ भगवान जी के पास जा कर भी मेरे पास रह गयीं। मेरे साथ रह गयीं।

“गोलू, तुम इस तरह झूठ बोलते ही क्यों हो?”

“यार, कल अपना फुटबॉल का मैच था। अब मास्टर साहब तो जाने नहीं देते। इसलिए झूठ बोलना पड़ा।”

“पर झूठी कसम खाना तो ठीक बात नहीं। मान लो तुम्हारी विद्या चली ही जाए तो?”

“नहीं जाएगी। मैंने जो झूठ बोला, उसके पीछे मेरी नीयत भी तो देखो। अगर फुटबॉल का मैच जीतूंगा, या बड़ा होकर स्कूल के लिए, देश के लिए खेलूंगा तो मेरे स्कूल का ही नाम तो रौशन होगा। तब यही मास्टर कहते फिरेंगे कि उन्हें तो गोलू में बचपन से ही प्रतिभा दिखने लगी थी। पर मैं एक दिन खेलने के लिए छुट्टी माँग लूँ, इन्हें मंजूर नहीं। इसलिए मैंने झूठी कसम खा ली।”

***

कल मदर्स डे था।

पूरा फेसबुक रंगा था माँ को दी जाने वाली शुभकामनाओं से। सबने अपनी-अपनी माँओं को महान बताया।

मैं जानता हूँ कि सबकी माँएँ महान होती हैं। पर सबके बेटे महान नहीं होते। मैं कई लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने फेसबुक पर भले माँ-माँ की गुहार लगायी, पर वो घर में माँ को देखना तक नहीं चाहते। कई लोगों ने तो अपनी माँ को ओल्ड एज होम में डाल दिया है। कई लोगों की माँ हैं, पर वो सिर्फ फेसबुक पर जिन्दा हैं। ऐसे में माँओं के नाम समर्पित उनकी कविताएँ, उनके गद्य, उनके विचार माँ पर आ-आ कर रुकते हुए नजर आए।

कई लोगों ने मुझसे पूछा भी कि मैंने माँ की स्तुति में कोई पोस्ट क्यों नहीं डाली?

आज मुझे दो बातें कहनी हैं।

पहली बात तो ये कि जिन लोगों ने कल माँ को फेसबुक पर याद किया उन्हें मैं दिल से प्रणाम करता हूँ। चाहे एक दिन के लिए ही सही, पर जिसने भी माँ को इज्जत बख्शी, वो मेरी तरफ से बधाई का पात्र है। उन्होंने अगर मुझे झूठा गवाह भी बनाया कि वो अपनी माँ को सचमुच बहुत प्यार करते हैं, उन्हें मान देते हैं, अपनी बीवी के डर से उन्हें कमरे में बंद करके मरने के लिए नहीं छोड़ दिया है, तो मेरा यकीन कीजिए कि मैं उस झूठ को सच मान लूँगा। मैं इसलिए उनके कहे को सच मान लूँगा क्योंकि इस आभासी संसार में झूठ ही सही, पर उन्होंने माँ को याद तो किया।

माँ को याद करना, उन्हें मान देना, दोनों मुझे बहुत अच्छे गुण लगते हैं।

दूसरी बात, कल मुझसे कई लोगों ने पूछा कि संजय सिन्हा, रोज माँ-माँ की रट लगाने का क्या फायदा, जब मदर्स डे पर तुमने माँ को याद ही नहीं किया?”

मैं बहुत हैरान हूँ यह सोच कर मैंने कल अपनी माँ को याद क्यों नहीं किया? क्या मुझे अपनी माँ को किसी एक दिन याद करने की जरूरत है? क्यों?

***

राधा से मिलने उद्धव गोकुल गये थे। राधा ने उद्धव से कहा था कि अपने कान्हा से कहना कि वो हमें याद रखें। उद्धव ने राधा से कहा था कि कान्हा से मैं यह नहीं कह सकता। राधा ने सुबकते हुए पूछा था, क्यों उद्धव? क्या तुम मेरा इतना सा संदेश मेरे कान्हा तक नहीं पहुँचा सकते?

उद्धव ने राधा के संग सुबकते हुए कहा था, “राधा, याद उसे किया जाता है, जिसे हम भूल जाते हैं।”

राधा मुस्कुरा उठी थीं।

उद्धव जब वहाँ से चलने को हुए तो राधा ने उनका हाथ पकड़ कर यही पूछा था, “उद्धव, क्या भविष्य में जब संजय सिन्हा से कोई पूछेगा कि तुमने मई के दूसरे रविवार को मनाए जाने वाले अंग्रेजी त्योहार पर माँ को क्यों नहीं याद किया, तो भी क्या तुम्हारा जवाब यही होगा कि याद तो उसे करते हैं, जिन्हें हम भूल जाते हैं?

“हाँ, राधा। संजय सिन्हा से यह पूछना भी कुछ वैसा ही होगा, जैसे कान्हा से तुम्हारे विषय में कुछ कहना। जैसे तुम कान्हा के रोम-रोम में बसी हो, बसी रहोगी युगों-युगों तक, वैसे ही संजय सिन्हा के मन में माँ बसी है, बसी रहेगी, युगों-युगों तक। और मैं जो कह रहा हूँ राधा, तुम उस पर यकीन करना। विद्या कसम।”  

(देश मंथन, 10 मई 2016)

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