संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
एक ठाकुर साहब थे। ठाकुर साहब की घनी-घनी मूंछें थीं।
एक दिन ठाकुर साहब ने देखा कि गाँव का एक साधारण सा नौजवान अपनी लंबी-लंबी मूछों पर ताव देता हुआ चला जा रहा है। ठाकुर साहब ने उसे बुलाया और पूछा, “मूछों पर ताव काहे दे रहा है बे? कौन जात है?”
“लालाजी हूँ।”
“अबे लाला लोग कब से मूछों पर ताव देने लगे? जा मूछें कटवा कर आ। मूछें तो ठाकुरों की शान हैं।”
“नहीं कटवाता। मेरी मूछें हैं, चाहे जैसे रखूँ।”
“कटवाता है कि निकालूं तलवार?”
“लो जी मूछों पर तलवार? तो ठाकुर साहब ऐसा कीजिये कि कल फैसला हो ही जाये कि मूछें किसकी शान होंगी। कल हम गाँव के उस मैदान में तलवार लेकर मिलते हैं और जो जीता वो मूछें रखेगा, जो हार गया उसकी मूछें गईं।”
“मंजूर है, लाले।”
“और हाँ, ठाकुर साहब, अब कल तो हममें से कोई एक ही जिंदा रहेगा। तलवार युद्ध में तो एक की मौत तय है। चाहे आप या फिर मैं। तो क्यों नहीं हम अपने परिवार वालों को पहले मार दें, ताकि हम में से किसी एक की मौत हो, तो उन्हें दुख न हो।”
“मंजूर है।”
“तो ठीक है। मैं अपनी पत्नी-बच्चे को मार कर कल वहीं मिलता हूँ।”
“मैं भी अपनी पत्नी बच्चे को मार कर कल वहीं मिलता हूँ।”
अगले दिन लालाजी मैदान में पहुँचे। ठाकुर साहब भी मूछों पर ताव देते हुए पहुँचे।
“क्यों ठाकुर साहब अपनी पत्नी और बच्चों को सलटा दिये?”
“हाँ लाले। और तूने?”
“ठाकुर साहब हमने बहुत सोचा। बहुत सोचा तो यही लगा कि मूछें तो ठाकुरों की शान होती हैं। मेरा क्या है, मैं अपनी मूछें अभी काट लेता हूँ।”
और लाले ने मूछें काट लीं।
इस तरह ठाकुर साहब मूछों की लड़ाई जीत गये।
***
बहुत छोटे अहंकार के कारण हम गंवाने को तैयार हो जाते हैं, पर मूछें कटाने को नहीं। मुझे लगता है कि शान की जंग में परिवार गंवाने की जगह मूछों को कटवा लेना बेहतर विकल्प है, बजाये इसके कि रिश्तों को काट दिया जाये। आज मैं उन सबसे गुहार लगा रहा हूँ, जो अहं की जंग जीतने के लिए अपनी खुशियों को हार जाना कबूल करते हैं। मैं बताना चाहता हूँ कि कुछ युद्ध हार जाना ही दरअसल जीत जाना होता है।
जो रणछोड़ होना जानते हैं, वही असली योद्धा होते हैं।
(देश मंथन, 18 मार्च 2015)