थ्रिल जिंदगी में तलाश करें, मौत में नहीं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

 “कुछ हिल रहा है। लग रहा है चक्कर आ रहा है। अरे ये देखो ऊपर लटका पंखा भी हिल रहा है। हाँ, हाँ दीवार पर टंगी फोटो भी हिल रही है। भागो, भूकम्प आया है।” हमारे देश में भूकम्प का इतना अनुभव सबके पास है। उसके बाद शुरू होता है टीवी पर खबरों का खेल। पानी की हिलती हुई बोतल, हिलता हुआ पंखा, भागते हुए लोगों को दिखाने की होड़ मच जाती है। कुछ देर में हमारे पास भूकम्प से जुड़ी तस्वीरें आने लगती हैं और हम दिखाने लगते हैं, गिरी हुई इमारतें, उसमें फंसे हुए लोग, मलबों में दबे हुए लोग, चीख-पुकार, करुण-क्रंदन। 

कल नेपाल और भारत में भूकम्प से धरती हिली। वही सब हुआ, जिसे मैंने बयाँ किया है।

पंद्रह साल पहले गुजरात में ऐसा ही भूकम्प आया था। तब मैं जी न्यूज में रिपोर्टर था।

दिल्ली में ही मैंने गुजरात के भूकम्प को महसूस किया था और मैंने भी वही सब किया था, जिसकी चर्चा मैंने की है। फिर उसी दिन मैं भूकम्प की रिपोर्टिंग करने गुजरात चला गया। वहाँ से मैंने तबाही की बहुत सी तस्वीरें दिल्ली भेजीं। मलबों में दबी लाशों की ढेरों कहानियाँ लिखीं। अपनी पीठ थपथपायी कि मैं सचमुच कितना बड़ा रिपोर्टर हूँ। 

फिर मैं वहीं अहमदाबाद में देवकी की लाश से मिला। उसके दो बच्चों की लाशों से भी मिला। अपनी ही पत्नी और दोनों बच्चों की लाशों को नहीं पहचान पाने वाले हितेन भाई शाह से भी मिला। उनसे मिलने के बाद अहमदाबाद के मानसी कॉम्पलेक्स में फंसी और ढेरों लाशों से मिला। एक-एक लाश की कहानी सुनी। कोई सुबह 26 जनवरी की परेड देखने की तैयारी में लगा था, कोई छुट्टी का दिन समझ कर देर तक सो रहा था। बहुत से बच्चे अपने-अपने स्कूल जाकर ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा’ गाने की तैयारी कर रहे थे और ठीक पौने नौ बजे धरती हिली और चारों ओर चीख-पुकार मच गयी।

अहमदाबाद में उन लाशों की कहानियों को सुनने के बाद पहली बार मुझे अहसास हुआ कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा को बतौर पत्रकार रिपोर्ट करने की हमारी ट्रेनिंग कितनी बदसूरत है। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि बतौर रिपोर्टर हिंदुस्तान में मौत को हम थ्रिल की तरह देखते हैं, लाशों को सनसनी समझते हैं। हमारे नेता भूख से होने वाली मौत की गिनती भले कम कर दें, ट्रेन दुर्घटना में मरने वालों की संख्या मिटा दें, लेकिन भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा में वो भी चाहते हैं कि गिनती बढ़ जाए। आखिर ये एक प्राकृतिक आपदा है, इसमें होने वाली किसी मौत की जिम्मेदारी उन पर नहीं आती। 

ओह! मैं मौत की सनसनी पर लिखने बैठा था, लेकिन मुझे हर पल ये याद रहता है कि पता नहीं क्यों भूकम्प, तूफान और दूसरी आपदाओं में कभी कोई नेता नहीं मरता, उनके मकान नहीं गिरते।हाँ, तो 26 जनवरी, 2001 को गुजरात में आए भूकम्प में भी किसी नेता का मकान नहीं गिरा था। कोई बड़ा उद्योगपति भी नहीं मरा। मरे मिडल क्लास लोग, गरीब लोग। गरीब लोगों ने तो भुज जैसे शहर में अपने मकान खुद बनाये थे, गिर गये, लेकिन अहमदाबाद में जिन मिडल क्लास लोगों के मकान गिरे, उसे बनाने वाले शहर के उद्योगपति थे। कइयों में नेताओं के पैसे भी लगे थे। मानसी कॉम्पलेक्स, अक्षर अपार्टमेंट जैसे ढेरों अपार्टमेंट गिर गये थे, लेकिन मजाल जो किसी नेता के मकान में दरार भी पड़ी हो।

खैर, मुझे चर्चा करनी थी अपनी रिपोर्टिंग की। तो, जब मैं भूकम्प में मरे लोगों की लाशों से मिला तो मुझे अहसास हुआ कि दरअसल हम पत्रकार सबसे ज्यादा असंवेदनशील हो गये हैं। हम लाशों की कहानी सुना कर लोगों को विचलित करने को अपना धर्म मानने लगे हैं। हम लोगों को डराने को अपनी रिपोर्टिंग मान बैठे हैं।

कल्पना कीजिए कि आप अमेरिका में हैं और वहाँ भूकम्प आया है तो आप क्या करेंगे। कल्पना कीजिए कि आप जापान में हैं और वहाँ भी भूकम्प आया है तो आप क्या करेंगे। आप अखबार के पन्ने पर एक भी लाश की तस्वीर नहीं देखेंगे। आप टीवी पर एक भी आदमी के क्रंदन को नहीं सुनेंगे। आप सिर्फ और सिर्फ इतना भर सुनेंगे और समझेंगे कि तबाही की इस घड़ी में अब क्या करें। जिन लोगों ने अपना सब कुछ खो दिया है, उन्हें कैसे ढाढस बंधाएँ। अपने बच्चों को कैसे समझायें कि तबाही की इस घड़ी में उन्हें क्या करना चाहिए। वहाँ इस बात की ट्रेनिंग होती ही है कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा में क्या करना चाहिए और आपके बच्चों को भी इस वक्त यही ट्रेनिंग दी जाती है कि ऐसी घड़ी में उन्हें करना चाहिए।

वहाँ के स्कूलों में ‘ए बी सी डी’ पढ़ाने के अलावा मनुष्य बनने क विषय को भी पढ़ाया जाता है। वहाँ ये नहीं पढ़ाया जाता कि भूकम्प आने पर हिलते हुए पंखों की तस्वीरें अपने मोबाइल में लेने में वक्त जाया किया जाए। वहाँ के लोगों को पढ़ाया जाता है, ऐसे मौकों पर अपनी रक्षा करने के बारे में और उनकी भी रक्षा कर पाने में बारे में, जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते। 

वहाँ के पत्रकारों को पढ़ाया जाता है कि लाशों को दिखा कर लोगों को विचलित नहीं किया जाना चाहिए। वहाँ पत्रकारों को ये बताया जाता है कि तबाही का मंजर नहीं होता, तबाही का नजारा भी नहीं होता। तबाही सिर्फ तबाही होती है। ऐसी घड़ी में चीख-पुकार और भूकम्प के अपने अनुभवों से अधिक महत्वपूर्ण होता है ऐसी आपदाओं को समझना और ऐसे मामलों पर संवेदनशील होना। मैंने पहले भी लिखा था, फिर लिख रहा हूँ कि 11 सितंबर, 2001 को जब अमेरिका में आतंकवादियों ने हमला किया था तब मैं अमेरिका में ही था। ये तो आपको भी पता ही है कि ओसामा के उस हमले में दस हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। पर उस हादसे में लाश की न तो एक तस्वीर मैंने देखी थी, न आपने देखी थी। सिवाय उन दो इमारतों में दो हवाई जहाजों घुसने की उस एक तस्वीर के सिवा आपके सामने और कोई तस्वीर नहीं थी।

न किसी का कोई अनुभव न किसी प्रत्यक्षदर्शी की कोई बाइट। 

बहुतों ने उस हादसे को देखा था। सबने यही कहा था कि ये विलाप की घड़ी नहीं, ये इस दुख से उबरने की घड़ी है। किसी ने अपने फोन से तबाही की एक भी तस्वीर किसी को भेजी हो, मुझे नहीं याद। 

गुजरात भूकम्प के बाद मैंने रिपोर्टिंग छोड़ दी थी। बतौर पत्रकार मानव मन को विचलित करने वाली खबरों को ज्यादा से ज्यादा वीभत्स बना कर पेश करने की मेरी गलती का प्रायश्चित। वहाँ से लौट कर पहली बार मैं समझा था कि जिस मौत की खबर को हम थ्रिल समझते हैं, वो दरअसल एक दस्तावेज भी होता है, अंतहीन दुखों का। पहली बार समझा था कि थ्रिल जिंदगी में तलाशनी चाहिए, मौत में नहीं।

(देश मंथन, 27 अप्रैल 2015)

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