संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दो दिनों से प्रेम पर लिख रहा हूँ।
क्या हो गया है मुझे?
मैंने आपको बताया था न कि जब भी मैं प्रेम पर लिखता हूँ, मेरे पास संदेशों की झड़ी लग जाती है। लोग अनुरोध पर अनुरोध भेजते हैं कि मैं इस विषय में और लिखूँ। कई लोग तो मेरी ही प्रेम कहानियों को दुबारा सुनने की मंशा जताते हैं।
मैंने कई लोगों को बताया है कि मैंने अपनी सारी कहानियाँ यहाँ फेसबुक पर उड़ेल कर रख दी हैं। फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पुरानी कहानियाँ नहीं मिलतीं, इसलिए मुझे दुबारा उन्हें लिखना चाहिए। मेरी महिला परिजनों ने कई बार अनुरोध किया है कि दुनिया के उत्तरी ध्रुव की अपनी यात्रा की कहानी उनसे दुबारा साझा करूं।
पर आज मुझे अपनी ही एक परिजन की बात को आगे बढ़ाने का मन कर रहा है। परसों की मेरी पोस्ट पर Sonu lamba ने कमेंट किया था कि लड़कों के लिए बहुत ज़रूरी है ये समझना कि लड़कियाँ प्रेम में कब ‘हाँ’ कह रही हैं, कब ‘ना’।
मैंने लिखा था कि लड़कियाँ कोमल होती हैं और उनके दिल को मान-सम्मान और प्रेम से ही जीता जा सकता है। मेरे ऐसा लिखने पर किसी ने टिप्पणी की कि लड़कियाँ जब ‘ना’ कहती हैं तो इसका मतलब ‘हाँ’ होता है।
बस यहीं सोनू लांबा जी ने बात पकड़ ली और उन्होंने लिखा, “कुछ लोग कमेंट कर रहे हैं कि लड़कियों की ‘ना’ का अर्थ ‘हाँ’ होता है। जी नहीं, जीवन सिनेमा नहीं। असल जिन्दगी में ‘ना’ का मतलब ‘ना’ होता है और किसी भी पुरुष को उस ‘ना’ को समझना चाहिए। उसकी इज्जत करनी चाहिए।”
इतना लिखने के बाद सोनू जी ने मुझसे गुहार लगाई,“संजय भैया आप इस पर भी एक पोस्ट लिखिए, ताकि कुछ लोग समझ पाएँ कि ‘ना’ का मतलब ‘ना’ होता है, और ना कहने वाली लड़कियों के पीछे पड़ना छोड़ दें।”
मैं सोनू जी का मर्म समझ गया था।
मैं समझता हूँ कि हमारे देश में सचमुच लड़कियों के साथ रिश्तों को लेकर लड़कों को ठीक से शिक्षित नहीं किया जाता। हालाँकि ये ज़िम्मेदारी माँ-बाप की होती है कि वो लड़के और लड़कियों को यह समझाएँ कि दोनों दो अलग तरह के शरीर और दो अलग तरह के मन के लोग होते हैं। दोनों के लिए जरूरी है कि दोनों एक-दूसरे को समझें।
जब हम छोटे थे, तब यह शिक्षा घर से मिलती थी कि घर में बहनें हैं, मुझे कब सिर्फ बनियान पहन कर नहीं बैठना चाहिए, या बाथरूम से सिर्फ तौलिया लपेट कर बाहर नहीं निकलना चाहिए। बहनों को यह शिक्षा मिलती थी कि कब दुपट्टा के साथ ही घर के बाकी परिजनों के सामने आएँ। हम भाई-बहनों को यह सिखाया गया था कि लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के सामने किस तरह पेश आना चाहिए, आचरण में किस तरह की मर्यादा का पालन करना चाहिए।
यह ज्ञान परवरिश का हिस्सा था।
मैंने देखा है कि जिन घरों में लड़के और लड़कियाँ साथ पलते हैं, उनकी परवरिश उन बच्चों की तुलना में थोड़ी अलग होती है, जहाँ सिर्फ लड़के या लड़कियाँ होती हैं।
खैर, अभी बात हो रही थी ‘ना’ की। अभी बात हो रही थी ‘इनकार’ की। ना और हाँ की बारीक लकीर में अतंर नहीं कर पाने वाले कई लड़कों को मैंने मुश्किल में फँसते देखा है। सोनू लांबा के इतना कहने में बहुत दर्द छिपा है कि लड़के जब लड़कियों की ‘ना’ को ठीक से नहीं समझ पाते और उनका पीछा करते रहते हैं, तो लड़की के लिए जिन्दगी कितनी मुश्किल भरी हो जाती है।
आज मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ। हालाँकि मैंने पहले भी ये कहानी आपको सुनाई है। पर आज ‘हाँ’ और ‘ना’ के अंतर को समझने के लिए मुझे ये कहानी बहुत प्रासंगिक लग रही है।
दो दोस्त थे। दोनों में दाँत काटी रोटी वाली दोस्ती थी।
एक दोस्त की माली हालत अच्छी थी, दूसरे की थोड़ी ख़राब। जिसकी माली हालत ठीक थी, उसके पास एक घोड़ा था।
एक दिन गरीब दोस्त को अपने बेटे की शादी के लिए एक घोड़े की जरूरत पड़ी। सबने उससे कहा कि तुम घोड़े का इंतजाम कहीं से कर लो। पर उसने कहा कि मेरे दोस्त के पास घोड़ा है, मैं पहले उससे बात करूंगा।
लोगों ने कहा कि चाहे तुम्हारे बीच जितनी दोस्ती हो, वो तुम्हें अपना घोड़ा नहीं देगा।
पर दोस्त को यकीन था कि उसका दोस्त उसे मना नहीं करेगा।
इसी उम्मीद में वो अपने दोस्त के पास गया और उसने उससे कहा कि उसे एक दिन के लिए घोड़े की जरूरत है। उसके दोस्त ने कहा, “ओह! तुमने पहले नहीं कहा, घोड़ा तो आज ही मेरे ससुराल वाले ले गये हैं। तुमने पहले मुझसे कहा होता तो मैं ससुराल वालों के पास घोड़ा नहीं भेजता। तुम्हें ही देता।”
आदमी उसकी बात पर यकीन करके बाहर निकला ही था कि घर के आँगन से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज आई।
आदमी पलटा। दोस्त के पास दुबारा पहुँचा और उसने कहा कि मित्र तुम तो कह रहे थे कि तुम्हारा घोड़ा ससुराल वाले ले गये हैं। फिर आँगन से घोड़े की हिनहिनाने की आवाज कैसी?
घोड़े वाला दोस्त मुस्कुराया। कहने लगा, “तुम्हें मेरी भाषा समझ में नहीं आई। घोड़े की भाषा तुरंत समझ में आ गयी?”
असल बात यही है। आदमी अगर अपने दोस्त के कहे को समझ पाता कि वो उसे अपना घोड़ा नहीं देना चाह रहा, तो उसे घोड़े की हिनहिनाहट सुनाई ही नहीं देती।
रिश्तों में जरूरी होता है सामने वाले के भाव को समझना। जो यह समझ पाते हैं, वो रिश्ते निभा पाते हैं। जो नहीं समझ पाते वो खुद भी दुख पाते हैं, सामने वाले को भी दुख देते हैं।
(देश मंथन 29 जुलाई 2016)