एल्फ्रेड नोबल, पत्रकार :
सोसाइटी के एक फ्लैट में शर्मा अंकल, आंटी रहते हैं। पचहत्तर से ज्यादा उम्र होगी। एक बेटा, एक बेटी है। बेटे को दो बेटियाँ और बेटी खुद भी हाल ही में नानी बनी हैं।
यानी शर्मा अंकल आंटी परनाना, परनानी बन चुके हैं और भरा पूरा परिवार है उनका। पर शायद केवल जुबानी। शायद केवल कहने को। बेटा अमरीका, कनाडा नहीं रहता, बल्कि मयूर विहार में रहता है और बेटी भी बगल के बाल्को अपार्टमेंट्स में। दूरी चंद फासलों की हैं पर मिटाये नहीं मिटती। जब समय मिलता है बच्चे आ जाते हैं मिलने। पर कम्बख्त आज समय है किसके पास। मेरे पास भी नहीं। कल कई दिनों के बाद रुचि और हम उनसे मिलने गये। होली में हम उनसे मिलने न जा सके थे तो वो नाराज भी थे सो उन्हें मनाने।
उनके पास पूरी जिंदगी की कहानी है। कैसे उन्होंने कृषि भवन में निदेशक रहते हुए काम किया, दुनिया की सैर की, इंदिरा गांधी संग फोटू खिचायी, कैसे 1950-60 के दशक में उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया। आकाशवाणी जाते थे आदि आदि। उनकी जिंदगी अब कहानी बन चुकी है, जिसे वो कहना चाहते हैं पर सुनने को कोई तैयार नहीं। वक्त किसी के पास नहीं। अब तो पोते पोतियाँ भी दादा दादी, नाना, नानी की कहानिया नहीं सुनते। स्कूल जाते हैं, ट्यूशन जाते हैं, डांस और म्यूजिक क्लास जाते हैं और इसके बाद वक़्त मिला तो रिश्तेदारों (दादा-दादी, नाना-नानी) के पास जाते हैं।
कल रात बात करते करते उनकी दीवाल घडी का अलार्म बजा। रात के बारह बज चुके थे। हमने कहा कि काफी रात हो गयी हैं, अब हमें जाना चाहिए। आपके सोने का समय हो गया होगा। पर उन्होंने जो कहा वो बहुत ही मार्मिक था और महानगरीय जीवन का कटु सत्य।
“हम तो बात करने के लिए तरसते हैं। तुम लोग आ जाते हो तो समय गुज़र जाता है। वरना वैसे भी रात अकेली आती है। नींद नहीं लाती। डेढ़ बजे तुम्हारी आंटी के लिए चाय बनाता हूँ और फिर दोनों चाय पीते हैं।”
“पर इससे आपकी हेल्थ खराब हो जायेगी अंकल।”
“अस्सी का होने जा रहा हूँ, अब किसके लिए, क्यूँ हेल्थ की चिंता करूँ?”
रात भर जेहन में सवाल चलता रहा, क्या हम और हमारी जमात अपने बुजुर्गों के गुनहगार नहीं है? क्या अपनी ज़िन्दगी में हम इतने मगन हो गए हैं है कि हमें भान भी नहीं कि हमारे आस पास एक नहीं हजारों शर्मा, मिश्रा, उपाध्याय, गुप्ता, हक़ आदि आदि हैं जो हर दिन जिंदगी को झेलते हैं, जिनका वक्त काटे नहीं कटता और खामोशी से मौत का इंतजार करते हैं? क्या यही हैं उनकी नियति?
शायद नहीं!
(देश मंथन, 21 मार्च 2014)