संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरे लिए नानी के घर जाने का मतलब सिर्फ परियों की कहानियाँ सुनना नहीं था।
नानी के घर जाने का मतलब पढ़ाई से छुट्टी, दिन भर मटरगश्ती और हम उम्र मामाओं और मौसियों के साथ गपबाजी।
अब ऐसा भी नहीं कि नानी गाँव जाने का मतलब सिर्फ मेरे लिए ऐसा था, सबके लिए नानी घर जाना करीब-करीब ऐसा ही होता है। मेरे बचपन का बहुत सा हिस्सा नानी के घर बीता है। मेरी कई नानियाँ थीं। ये सारी नानियाँ माँ की चाचियाँ थीं।
मुझे बचपन में लगता था कि माँ कितनी भाग्यशाली है, उसकी कितनी सारी माँ हैं। बात उन दिनों की है, जब मेरी अपनी नानी मेरे आईपीएस मामा के साथ दिल्ली या वहाँ रहती थीं, जहाँ उनकी पोस्टिन्ग हुआ करती थी। ऐसे में तब उनसे बहुत कम ही मिलना हो पाता था लेकिन माँ की चाचियाँ हम सबको इतना प्यार करती थीं कि हमें कभी लगा ही नहीं कि माँ की कोई दूसरी असली माँ भी है।
खैर, मुझे नानी के आगे ननिहाल का बखान करने की जरूरत नहीं है। मुद्दे की बात पर जितनी जल्दी आ जाऊँ उतना बेहतर होगा। बात ये है कि अपने ननिहाल में ही एक दफा मेरा अपनी असली नानी से मिलना हो गया। मैं नानी गाँव गया हुआ था, और वहाँ माँ की लंबी, छरहरी गोरी माँ उन दिनों आयी हुई थीं। मैं उनसे मिला तो वो बहुत खुश हुईं। हालाँकि वो नानी की चाचियों की तरह बहुत नहीं बोलती थीं, लेकिन उन्होंने मुझे अपनी छाती से लगा कर खूब प्यार किया। मुझे लगता है कि मैं अपनी उस नानी से बहुत दिनों बाद मिल रहा था, ऐसे में इतना प्यार तो बनता ही था। पर मेरे लिए सबसे दिलचस्प और दुखद वाकया उसी नानी के साथ हुआ। जिस दिन नानी को वापस मामा के पास जाना था, सभी बच्चे उनके पाँव छू रहे थे और वो सबको आशीर्वाद और एक रुपये का नोट दे रही थीं। जब मेरी बारी उनके पाँव छूने की आई तो उन्होंने मुझे भी रुमाल से एक रुपये का नोट निकाल कर दिया और कहा कि मिठाई खा लेना। मेरी उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन मुझे पता नहीं क्यों लगा कि अगर मैं नानी से एक रुपये न लूँ तो वो मुझे कम से कम पाँच रुपये देंगी। और ऐन वक्त पर जुबाँ पर सरस्वती जी सवार हो गईं।
मैंने नानी से कहा, “नानी मैं पैसे नहीं लूँगा।”
मुझे पूरी उम्मीद थी कि नानी कहेंगी कि ये कम है तो तुम पाँच रुपये लो, लेकिन ये क्या? नानी ने एक बार मेरे मुँह से सुना कि मैं पैसे नहीं लूँगा, वो खुश हो गईं। उन्होंने मेरे माथे को चूमते हुए कहा, “ये सबसे अच्छा बेटा है। राजा बेटा है। देखो पैसे नहीं लेता।” और उन्होंने एक रुपये का नोट वापस रुमाल में खोंसते हुए मुझे एक बार और चूम लिया।
फिर मेरे छोटे भाई की बारी आयी तो उन्होंने उसे भी दुलार करते हुए वही एक का नोट पकड़ा दिया। भाई एक रुपये पाकर बहुत खुश हुआ, लेकिन पाँच के नोट के चक्कर में मेरा एक रुपया चला गया था। मैं मन ही मन बहुत उदास हुआ। फिर मैं नानी को रेल गाड़ी में बिठाने के लिए स्टेशन तक गया और मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता रहा, “हे भगवान! नानी को बुद्धि दो और वो अपने इस नाती को पाँच का एक नोट तो बतौर आशीर्वाद देती जाएँ।” पर भगवान ने सुनी नहीं और नानी ने मुझे पाँच तो छोड़िए एक का वापस लिया नोट भी नहीं दिया। उल्टे ट्रेन में बैठते-बैठते फिर गले से लगा कर कहा कि ये सबसे अच्छा बच्चा है।
अरे, अच्छे का मैं क्या करूँ।
बहुत मन मार कर घर लौटा। मेरे हम उम्र मामा लोग एक रुपये में पूरी पिकनिक की तैयारी कर रहे थे। भाई तो नानी के स्टेशन जाते ही दो लेमन चूस, एक कॉमिक बुक ले आया था और अभी भी उसके पास अठन्नी बची थी और मैं अभागा, लालच में खुशियाँ गँवा बैठा था।
बाद में सारे मामाओं ने मुझे ललचा-ललचा कर आइसक्रीम खायी। वो तो भला हो भाई का कि उसने बची हुई अठन्नी में मुझे हिस्सेदारी दी, वरना मेरे लिए उस बार नानी से मिलना बहुत भारी पड़ा था।
खैर, वो मेरी जिन्दगी का सबक था। ज्यादा के चक्कर में कम को छोड़ देना मूर्खता होती है। मैंने उस दिन उस एक रुपये को खोकर खुद ही सबक सीख लिया कि सचमुच ‘आधी छोड़ पूरी धावे, न आधी पावे न पूरी पावे’ वाली कहावत सही है।
वहाँ एक रुपया गँवा देने के बाद मैंने जिन्दगी को बहुत गंभीरता से लिया। मैं समझ गया कि जो जिन्दगी की छोटी-छोटी खुशियों से संतुष्ट नहीं होते, वो मेरी तरह दुखी होते हैं।
मेरा भाई और मेरी माँ की चाचियों की सारी संतानें उस एक रुपये में जिन्दगी के मजे लूट रही थीं, पर नानी का प्यारा नाती संजय सिन्हा उस खुशी से वन्चित रह गया। जो था उसे छोड़ कर जो नहीं था उसके पीछे भागने का नतीजा था कि कई-कई दिनों तक मुझे लगता कि किसी ने मेरी जेब से संपति निकाल ली है। आज मैं लाख दस लाख का नुकसान भी उठा लूँ तो उतना अफसोस नहीं होगा, जितना मुझे उस एक रुपये के नोट को याद करते हुए होता है। जब कभी मैं शेयर या दूसरे निवेश में नुकसान होता देखता हूँ तो मुझे लगता है कि ये तो उस एक रुपये के नुकसान से कम है।
जेहन में वो एक रुपया इस तरह बैठ गया कि मैं उसे कभी भुला नहीं पाया।
आज मैं आपको बताना चाहता हूँ कि जिन्दगी को भी मेरी नानी के एक रुपये की तरह लेना चाहिए। जब जहाँ छोटी सी खुशी भी मिले उसे जी लेना चाहिए। ये उम्मीद करना कि इतनी छोटी सी खुशी का क्या करूँ, बड़ी खुशी मिलेगी तो उसे जीऊँगा, बेवकूफी होती है। जो मिले उसे शिद्दत से ले लेना चाहिए।
और कुछ नहीं सोच सकते, तो यही सोच लेना चाहिए कि जो मिला वही मुकद्दर है, और मुकद्दर को स्वीकार कर लेना चाहिए। मैंने तो उस दिन के बाद से बहुत छोटी-छोटी खुशियों को ये सोच कर जीना शुरू कर दिया कि कहीं ये भी हाथ से न निकल जाये। कई दफा लोग मुझसे कहते भी हैं कि मैं बहुत कम में भी खुश हो जाता हूँ, सन्तुष्ट हो जाता हूँ। उनका कहना है कि मुझे अपनी प्यास बढ़ानी चाहिए। मुमकिन है वो सही कहते हों, लेकिन मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि मैंने तो बिना बोधि वृक्ष के नीचे बैठे की उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, जिसे प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ को पूरा राजपाट छोड़ना पड़ा था। उसे गौतम बनने के लिए कई वर्ष खर्चने पड़े थे। सब छोड़ कर उम्र के आखिर में उन्हें ये पता चला था कि इच्छा दुख का कारण है। अपन को तो नानी के एक रुपये ने समझा दिया था कि दुनिया में दुख है, दुख का कारण ज्यादा की इच्छा है। जो मिल जाए उसी से संतुष्ट होने वाले को न तो आर्थिक दुख होता है न मानसिक दुख।
जब अपनी माँ की माँ से ज्यादा की उम्मीद करके मुझे सिवाय दुख के कुछ नहीं मिला, तो किसी और से ज्यादा की उम्मीद क्यों की जाये। पैसा हो या प्यार, जो जितना दे उतने से संतुष्ट होने वाले मेरे छोटे भाई और मेरे मामाओं की तरह खुश रहते हैं। जो असंतुष्ट होते हैं, ज्यादा की चाहत में फँसते हैं, वो मेरी तरह दुखी होते हैं।
किसी महान व्यक्ति ने कहा है कि “इट इज नेवर टू लेट”, तो मेरे प्यारे परिजनों, सचमुच कुछ सीखने के लिए बहुत देर कभी नहीं होती। आज से भी अगर आपने जिन्दगी में जो मिला उससे संतुष्ट होने की विद्या सीख ली, तो जिन्दगी बहुत खुशहाल हो जायेगी। जो मिला उसे एन्ज्वॉय करना शुरू कर दीजिए, वर्ना नानी वो एक रुपया भी वापस रुमाल में खोंस लेंगी और तब सिवाय अफसोस करने के कुछ नहीं बचेगा।
(देश मंथन, 01 मई 2015)