संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
पहली बार जब मैं ट्रेन में सफर कर रहा था तब पिताजी के साथ सबसे ऊपर वाली बर्थ पर बैठा था।
मैं नीचे देख रहा था कि कई लोग बहुत देर से खड़े थे। कुछ लोग फैल कर बैठे थे, वो चाहते नहीं थे कि कोई और वहाँ बैठे। हालाँकि इतनी जगह थी कि दो लोग अभी भी आराम से उस सीट पर बैठ सकते थे, लेकिन पहले से वहाँ बैठे लोग नहीं चाहते थे कि कोई और उनकी सीट को साझा करे, इसलिए सीट पर मौजूद सभी यात्री सांस फुला कर, पेट निकाल कर, हाथ-पाँव ऊपर कर इस तरह बैठे थे कि कोई और उसमें घुस ही नहीं पाये।
एक आदमी बहुत देर से खड़ा था। वो बुदबुदा रहा था, “इतनी जगह है, लेकिन लोग चाहते ही नहीं कि कोई और बैठ सके, इसीलिए ऐसे ऐंठ कर बैठे हैं। उस बर्थ पर जितने यात्री थे, सब के सब आपस में एकदूसरे से परिचित नहीं रहे होंगे, लेकिन उनके बीच एक अघोषित एकता सी हो गयी थी।
ट्रेन वाराणसी से मुगलसराय पहुँची। एक यात्री उतरा। जैसे ही एक यात्री उतरा, वो यात्री जो इतनी देर से बुदबुदा रहा था कि लोग किसी को अपने साथ समाहित नहीं करना चाहते, लपक कर उसकी जगह बैठ गया।
ट्रेन चल पड़ी। अभी भी वहाँ इतनी जगह थी कि दो लोग और उस पर बैठ सकते थे।
लेकिन मैंने देखा कि अब तक बुदबुदाने वाला वो आदमी अपना पेट फुला कर, पाँव उठा कर कुछ उसी तरह बैठ गया था, जिससे कोई और वहाँ न समाहित हो सके।
ये एक ऐसी घटना थी जिसे मैंने पहली बार ट्रेन यात्रा में देखी और फिर कई बार भोगा।
ये आदमी की फितरत होती है कि वो जब मंजिल पर पहुँच जाता है, तो नहीं चाहता कि कोई और वहाँ तक पहुँचे। आदमी के क्रमिक विकास का शायद सबसे दुखद पहलू यही है।
आप हैरान होंगे, लेकिन हैरानी की कोई बात नहीं। मैं जानता हूँ कि आप भी इस सच से गुजरे हैं।
अगर सच में ‘सहकारी’ कुछ होता है तो इसे हंसों से बेहतर किसी ने नहीं समझा।
और हम मनुष्य? बिल्कुल नहीं।
आज मैं चाहूँ तो अपने पत्रकारीय अनुभवों को उड़ेल सकता हूँ कम्यूटर की-बोर्ड पर। मैं लिख सकता हूँ कि मेरी आँखों ने राजनीति से लेकर सिनेमा, टीवी, पत्रकारिता और दूसरी विधाओं में कैसे साँस फुला कर, पेट निकाल कर, पाँव ऊपर कर सफलता की सीट पर कुछ इस तरह कुंडली मार कर बैठे लोगों को देखा है कि दूसरे मुसाफिरों को जगह होने पर भी जगह नहीं मिली। जिन मुसाफिरों ने येन-केन-प्रकारेण ये जगह पा ली, उन्होंने भी वही किया जो उनसे पहले वाले कर रहे थे।
यही वजह है कि राजनीति, सिनेमा, टीवी, मॉडेलिंग और पत्रकारिता में किस्मत आजमाने वालों से मैं कहता हूँ कि यहाँ टैलेंट नहीं, मौके का दाँव लगता है। जिनका दाँव लग गया, उन्हें तो सीट मिल जाती है; जिनका नहीं लगा, वो सारी जिंदगी सिर्फ उम्मीद से रह जाते हैं।
(देश मंथन, 06 अप्रैल 2015)




संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 












