संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
ये बात ठीक से याद नहीं कि सबसे पहले किसने मुझे ये समझाया था कि हिन्दुस्तान में तीन ही नौकरी ऐसी हैं, जिनमें असली दबदबा है।
पहली नौकरी पीएम की, दूसरी सीएम की और तीसरी डीएम की। हमारे साथी कहा करते थे कि पीएम के पास देश चलाने का पावर होता है, सीएम के पास राज्य चलाने का और डीएम के पास जिला चलाने का। अगर राजाओं वाली जिन्दगी जीनी हो तो आईएएस बन जाओ और जीवन भर मौज करो।
पीएम और सीएम तो बन नहीं सकते, हाँ पढ़ाई करके डीएम बना जा सकता है।
कल मैंने छत्तीसगढ़ के आईएएस अधिकारी अमित कटारिया के बहाने इस बात पर चर्चा करने की कोशिश की कि प्रधान मन्त्री के सामने उनके काला चश्मा पहनने की घटना को तूल देने की जगह उसे माफ कर दिया जाना चाहिए।
मेरे ऐसा लिखने पर कि ‘उसे माफ कर दिया जाना चाहिए’, कई लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। किसी ने पूछा कि आपका मातहत अगर आपके सामने काला चश्मा पहन कर आये तो क्या आपको बुरा नहीं लगेगा? किसी ने पूछा कि अगर उसे माफी मिल गई तो फिर तो ये नजीर बन जायेगा कि कोई भी किसी के सामने कैसे भी चला आये। कई तरह के सवाल उठे। किसी ने अमित कटारिया को हीरो ठहराया, किसी ने विलेन।
दरअसल जिन दिनों मैं स्कूल में पढ़ रहा था, देश इमरजंसी की आग से गुजर रहा था। जिस शहर में मैं बड़ा हो रहा था, वहाँ जयप्रकाश नारायण का छात्र आन्दोलन पनप रहा था। अगर आपलोग चाहेंगे तो मैं यादों के झरोखों में जाकर जयप्रकाश नारायण के उस आन्दोलन की हर तारीख को यहाँ कम्यूटर पर उकेर सकता हूँ और आपको बता सकता हूँ कि कैसे जेपी के उस आन्दोलन ने देश के लाखों नौजवानों को निकम्मा बना कर छोड़ दिया। कैसे हम जैसे बच्चों के मन में सरकारी नौकरी के प्रति नफरत पैदा हो गई। सब लिख सकता हूँ, बल्कि सब लिखा जाना चाहिए।
खैर, मैं सरकारी नौकरी नहीं करूँगा, ये तय हो चुका था। पिताजी सरकारी अधिकारी थे, उनका हाल मैं देख रहा था। मामा के पास पढ़ने गया तो उनके आईपीएस होने की दुर्दशा देख कर सिहर ही उठा था। तो तय था कि मैं किसी सरकारी नौकरी में नहीं जाऊँगा। लेकिन मेरे साथ पढ़ने वाले बहुत से साथी सिविल सर्विसेज में गये और मन लगा कर काम कर रहे है। मैंने बहुत करीब से जब उन्हें फॉलो किया तो पाया कि कोई अगर वाकई देश के लिए अपने हिस्से से कुछ करना चाहे तो उसके पास सचमुच सिविल सर्विसेज में जाकर करने को बहुत कुछ है। ये सच है कि सरकारी तन्त्र उसके हाथ मरोड़ते रहते हैं, लेकिन ये भी सच है कि एक आईएएस अधिकारी अपना सूटकेस अगर तैयार रखे कि शाम को कहीं और तबादले पर चला जाऊँगा, समझौता नहीं करूँगा, तो कोई उसका कुछ बहुत बिगाड़ भी नहीं पाता है। इन सब बातों पर चर्चा करूँगा, लेकिन पहले चर्चा करना चाहता हूँ उन लोगों की टिप्पणियों पर, जिन्होंने कल मेरी पोस्ट पर लिखा कि आप नहीं जानते कि ये कलेक्टर अपने मातहतों और अपने जिले में कितना आतंक मचाते हैं।
ये तो आप जानते ही हैं क भारत में सिविल सर्विसेज अंग्रेजों की देन है। आजादी से पहले इस सर्विस का नाम था इंपीरियल सिविल सर्विसेज। अंग्रेजों का शासन यहाँ था, लेकिन मुट्ठी भर अंग्रेज ही यहाँ शासन के लिए थे। मुट्ठी भर अंग्रेज कैसे पूरे मुल्क पर अपनी तरह का शासन कर पाते। यही सोच कर 1858 में उन्होंने भारत में इंपीरियल सिविल सर्विसेज की शुरुआत की। इस सेवा के नाम पर उन्हें ऐसे लोगों को तैयार करना था, जो बेशक होते तो भारतीय लेकिन उनकी सोच अंग्रेजी होनी चाहिए थी। इस सेवा में आने के लिए उन्होंने बहुत कठोर शर्तें रखीं। बल्कि शुरूआत में तो ऊँची पोस्ट सिर्फ अंग्रेजों के हिस्से ही आती थी। धीरे-धीरे उन्होंने उन भारतीयों को इसके लिए चुनना शुरू कर दिया जो इस परीक्षा में पास होने का दम रखते थे, जो इंग्लैंड ट्रेनिंग के लिए जाना चाहते थे। और इस तरह इस सेवा के नाम पर भारत में भारत के लोगों पर शासन करने के लिए उन भारतीयों को ही खड़ा कर लिया गया, जो अंग्रेजी ढंग से जीते थे। उनके तन और मन में ये बसा दिया जाता था कि तुम बाकी भारतीयों से श्रेष्ठ हो। तुम्हारा लालन-पालन, शिक्षा, सोच सब इन गरीब लोगों से कहीं बेहतर है। तुम कुलीन हो। तुम्हारा जन्म प्रजा बनने के लिए नहीं, राजा बनने के लिए हुआ है। ऊपर वालों की चाटना और नीचे वालों को काटना, ये उनकी ट्रेनिंग का हिस्सा बन गया। अंग्रेजी में इसे कहते हैं, ‘लिक अप, किक डाऊन।’ अर्थात जो तुमसे सीनियर है, उसके आगे घुटनों के बल बैठ जाओ, जो तुमसे जूनियर है, उसे आदमी समझो ही मत। इंग्लैंड में बैठे हुक्मरानों के राज में कभी सूर्यास्त ही न हो, इस बात की व्यवस्था थी आईसीएस परीक्षा।
कभी विस्तार से उन आईसीएस अधिकारियों के विषय में लिखूँगा, जिनसे मेरा पाला उनकी रिटायरमेंट के बाद पड़ा है। अभी तो इतना ही बता रहा हूँ कि आजादी के बाद इस सेवा के दो हिस्से हुए। एक बना आईएएस यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा और दूसरा बना सीएसपी यानी सिविल सर्विसेज ऑफ पाकिस्तान।
देश आजाद हो गया लेकिन सिविल सर्विसेज के नाम पर अंग्रेजी हुकूमत का पैटर्न नहीं बदला। देश बंट गया, लेकिन सोच नहीं बंटी। भारत और पाकिस्तान दोनों जगहों पर इन सेवाओं के अधिकारी मूल रूप से अंग्रेज बने रहे। जो इस सेवा में गया, वो मान बैठा कि उसका जन्म प्रजा बनने के लिए नहीं हुआ, बल्कि वो तो राजा है। इसीलिए कल कई लोगों ने मेरी पोस्ट पर टिप्पणी में लिखा कि संजय जी आपको नहीं पता कि ये कलेक्टर कितने अकड़ू होते हैं, उन्हें उनके किए की सजा मिलनी ही चाहिए।
बात सही भी है। लेकिन मुझे पूरे प्रसंग पर सिर्फ इतना ही कहना है कि जैसे पुराने कलेक्टरों की सोच में समस्या थी, वैसे ही हमारी सोच में भी समस्या है। 1947 में देश जरूर आजाद हुआ लेकिन उस दौर की पीढ़ी गुलामी के खौफ से आजाद नहीं हो पायी थी। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी भी उस गुलाम सोच से बाहर नहीं निकल पायी। हमारे हुक्मरान हमें बात-बात पर डराते रहे कि ठीक से रहो, नहीं तो अंग्रेज आ जायेंगे। मल्टीनेशनल कंपनी, अंग्रेजी शिक्षा जैसी बातों का इतना भय हमारे मन में पैदा किया कि हमें अंग्रेज गब्बर नजर आने लगे और मोटी तोंद वाले नेता अपने रहनुमा।
लेकिन हमारे बाद की यानी आज की पीढ़ी, जिसने आसमान में उड़ कर और नहीं तो गूगल मैप पर ही सही, सबकुछ देख लिया है वो असली आजाद पीढ़ी है। वो कहती है कि अब पूरी दुनिया एक होने की ओर अग्रसर है। अब आदमी किसी आदमी का नहीं, सिर्फ अपने अज्ञान का गुलाम होगा।
ऐसे में नई पीढ़ी को अंग्रेजों का डर नहीं रहा। पूरब और पश्चिम दोनों ओर के नौजवान राजा और प्रजा की मानसिकता से ऊब गए हैं। दोनों जीवन को साथ मिल कर जी रहे हैं, जीना चाहते हैं। ऐसे में बस्तर का कलेक्टर अगर पीएम के आगे चश्मा पहन कर चला गया तो इस पर हाय तौबा मचाने की जगह इस पर हाय तौबा मचाने की कोशिश करनी चाहिए कि कहीं हमें अपनी सिविल सर्विसेज ट्रेनिंग में बदलाव की जरूरत तो नहीं।
हमारे मन से पीएम, सीएम और डीएम के खौफ को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए। सबसे बड़े पापा, बड़े पापा और पापा के प्रति हम बच्चों के मन में नफरत की जगह प्यार कैसे पनपे इस पर सोचने की जरूरत है।
आप भी सोचिए, मैं भी सोचता हूँ।
(देश मंथन, 19 मई 2015)