राजनीति में शुचिता के सवाल

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संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय : 

राजनीति में शुचिता और पवित्रता के सवाल अब हवा हो गये लगते हैं। जोर अब सादगी, शुचिता और ईमानदारी पर नहीं है। आप हमसे अधिक भ्रष्ट हैं, यह कहकर अपने पाप कम करने की कोशिशें की जा रही हैं। समाज इस नजारे को भौंचक होकर देख रहा है। देश के हर राज्य में ऐसी कहानियाँ पल रही हैं और राजनीति व नौकरशाही दोनों इसे विवश खड़े देख रहे हैं। भ्रष्टाचार की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण चयनित है। हमारे और तुम्हारे लोगों की जंग में देश छला जा रहा है।

सवाल यह भी उठने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में अब शुचिता और नैतिकता की अपेक्षा करना बेमानी है। जनता भी यह मानकर चलती है कि काम होगा तो भ्रष्टाचार भी होगा,सब चलता है, कौन पाक-साफ है, बिना लिए-दिए आजकल कहाँ काम होता है। जनता की यह वेदना एक हारे हुए हिन्दुस्तान की पीड़ा है, जिसे लगने लगा है कि अब कुछ नहीं हो सकता। उसे लगने लगा है कि देवदूत न तो बैलेट बक्से से निकले हैं न ही वे वोटिंग मशीनों से निकलेंगें। फिर रास्ता क्या है। क्या एक अच्छा समाज बनाने, एक ईमानदार समाज बनाने, एक शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन का सपना भी छोड़ दिया जाए? जाहिर तौर पर नहीं। ईमानदारी, शुचिता और पवित्रता के गुण एक नैसर्गिक गुण हैं। इनकी अधिकता ही किसी भी समाज और राष्ट्र को आदरणीय बनाती है। इसलिए प्रत्येक समाज और राष्ट्र यह प्रयास करता है कि वह बेहतरी की ओर बढ़े। उनके सार्वजनिक जीवन मूल्यों के आधार पर चलें।

समाज में समरसता और समभाव का वातावरण हो। धन के बजाए नैतिक शक्ति को आदर मिले। इसीलिए समाज को मूल्यों पर चलने, मूल्यों को जीने की सीख दी जाती है। अपने पाठ्यक्रमों और दैनिक जीवन में भी इन मूल्यों के अंश डालने की कोशिशें यत्नपूर्वक की जाती हैं। धर्मों और पंथों की छाया में जाएँ तो वे भी यही कहते और बताते हुए दिखते हैं। इसलिए इस पूरे वातावरण से निराश होने के बजाए, उजालों की ओर बढ़ना जरूरी है। भारत जैसे देश में जहाँ मूल्यों का इतना आदर रहा है और तमाम राजपुत्रों ने मूल्यों के लिए अपने पद और सिंहासन छोड़कर जंगलों और गाँवों का रूख किया है, उस समाज में ऐसे प्रकरण हैरत में डालते हैं। राम, बुद्ध, महावीर सभी राजपुत्र हैं किन्तु वे समाज में मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता के शिखरों को छोड़ते हैं। ऐसा समाज जहाँ संत-विद्वानों ने अपनी विद्वता से समाज को आलोकित किया है, वहाँ के सार्वजनिक जीवन में निरन्तर आ रही गिरावट चिन्ता में डालती है। इसका सबसे कारण यह है कि हमने जो व्यवस्थाएँ ग्रहण की हैं वे हमारी नहीं है। जो संविधान रचा वह हमारी परंपरा का नहीं है। जो शिक्षा हम ले और दे रहे हैं वह हमारी परंपरा से नहीं है। ऐसे में समाज में भारतीय जीवन मूल्य और भारतीय जीवन शैली कैसे स्थापित हो सकती है। 

बहुत सपनों और संकल्पों वाला नौजवान भी इस व्यवस्था में अवसर पाकर खुद को संभाल नहीं पाता और अपने स्थापित होने के लिए मूल्यों से समझौतों को विवश हो जाता है। हमारे राजनेता भी इसी के शिकार हैं। इस व्यवस्था में जैसे चुनाव हो रहे हैं, जिस तरह राजनीति निरन्तर महँगी होती जा रही है- उसमें क्या बिना काले घन, धन पशुओं और बाहुबलियों की मदद के बिना सफलता मिल सकती है? राजनीतिक दलों का वैचारिक आधार दरक गया है। वे कंपनियों में बदल रही हैं, जहाँ संसदीय दलों का व्यवहार बोर्ड रूम सरीखा ही है। ऐसे में राजनीतिक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों के साथ आ रही नई पीढ़ी भी समझौतों को विवश है, क्योंकि व्यवस्था उसे ऐसा बना देती है। राजनीति अगर समर्पण और समझौतों से प्रारंभ होगी तो वह जनता की मुक्ति में सहायक कैसे बन सकती है। आज के समय में महात्मा गाँधी, पं. दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, पुरुषोत्तम दास टंडन की राजनीतिक धारा सूख सी गयी लगती है। चुनावी सफलताएँ ही मूल्याँकन का आधार हैं। नैतिकता का मापदंड छीजता ही जा रहा है। राजनीति कभी इतनी बेबस नहीं थी। सत्ता और उसके समीकरण समझने में अब मुश्किलें आती हैं। सत्ता में होने के मूल्य और विपक्ष में होने के मूल्य अलग-अलग दिखते हैं। शार्टकट से जल्दी ज्यादा हासिल करने की भूख, पैसे और ताकत की प्रकट पिपासा से सारे वातावरण में एक अवसाद दिखने लगा है। लोग उम्मीदें लगाते हैं और छले जाते हैं। यह छल देश की जनता से ही नहीं, देश से भी विश्वासधात सरीखा है। एक लोकतन्त्र में अगर लोकलाज भी नहीं होगी तो लोकराज कैसे चलेगा? सत्ता बेपरवाह हो सकती है, किन्तु जनता के सपनों को कुचल को कोई भी राजनीति अंजाम को प्राप्त नहीं कर सकती।

आज की राजनीतिक और राजनीतिक दल लोगों को निराश कर रहे हैं। उनकी आपसी जंग से लोग तंग हैं। लोग चाहते हैं कि राष्ट्रीय मुद्दों पर, सार्वजनिक हित के सवालों पर, राष्ट्रहित के सवालों पर तो राजनीति एक हो। क्या राजनीतिक दलों और जनता के हित अलग-अलग हैं? क्या राष्ट्रहित और राजनीतिक दलों को हित अलग-अलग हैं या होने चाहिए? लेकिन कई बार लगता है कि दोनों की राह अलग-अलग है। राजनीति हिन्दुस्तान को समझने में विफल है। हिन्दुस्तान का मन उसे समझना होगा। लोगों के सपने, उनकी आकांक्षाएँ उन्हें समझनी होगी। यहाँ के किसान, युवा, महिलाएँ, बच्चे और समाज के हर वर्ग के लोग उम्मीदों से अपनी सरकारों और प्रशासन की ओर देखते हैं, लेकिन ये सारा का सारा तन्त्र कुछ लोगों की मिजाजपुर्सी में व्यस्त दिखता है। अपने जीवन के संघर्षों में फँसा भारतीय मन ऐसे में टूटता है। उसके टूटते हुए भरोसे को जोडना और बचाकर रखना सबसे जरूरी है। राजनीति और राजनीतिक दलों को जनता के मनोभावों को समझकर ठोस कदम उठाने होंगे। राष्ट्रीय विषयों पर एकजुट होकर न्यायपूर्ण, ईमानदार और शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन की स्थापना हमारा लक्ष्य होना ही चाहिए। अँधेरा जितना भी घना हो उजाले की ओर बढ़ने की लालसा उतनी ही तेज होती है। हम इस सत्य को स्वीकार कर आगे बढ़े और भारतीयता की स्थापना करें। यही भारतीय जीवन मूल्य हमें सब संकटों से निजात तो दिलाएँगे ही साथ ही पूरी दुनिया को एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकेंगे।

(देश मंथन, 27 जुलाई 2015)

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