सकारात्मक सोच से उम्मीदों को बल दें

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

कंगना रनावत मेरी दोस्त हैं। पिछले दिनों जब वो मुझसे मिली थीं, तब उन्होंने कहा था कि आप मेरी आने वाली फिल्म ‘कट्टी बट्टी’ देखिएगा। आप फिल्म देख कर रो पड़ेंगे। मैं जानता हूँ कि कंगना बहुत शानदार एक्ट्रेस हैं और उन्होंने अपनी ऐक्टिंग के संदर्भ में मुझसे ऐसा कहा था। 

कल मैं पुणे में था और वहाँ एक मॉल में घूमते हुए मेरी निगाह अचानक फिल्म ‘कट्टी बट्टी’ के पोस्टर पर पड़ गयी और मैं फिल्म देखने चला गया। 

बॉलीवुड के ढेर सारे लोग मेरे जानने वाले हैं। तमाम फिल्मी हस्तियों से मैं मिलता रहता हूँ और मैं बहुत सारी फिल्में इसलिए देख लेता हूँ, ताकि जब कभी उनसे मुलाकात हो, तो मैं उनसे उसके बारे में बात कर सकूँ। 

मैं फिल्म की समीक्षा नहीं लिखता। मुझे हमेशा लगता है कि बेचारे इतनी मेहनत से फिल्म बनाते हैं और कोई समीक्षक चार शब्दों में उनके किए पर पानी फेर जाए, यह उचित नहीं। इसलिए मेरा यकीन कीजिए मैं आज भी फिल्म की कहानी, उसकी अच्छाई या बुराई पर नहीं लिख रहा। मैं आज भी आपको यह नहीं बताना चाह रहा कि फिल्म की कहानी क्या है, लेकिन इतना अपराध जरूर मुझसे होने जा रहा है कि मैं फिल्म के कुछ हिस्से पर अपनी आपत्ति जताने जा रहा हूँ, इसलिए अगर फिल्म का क्लाइमेक्स आपको पता चल जाए या न चाहते हुए भी आपको लगे कि आपके बिना देखे मैंने आपको कहानी बता दी है, तो आप मुझे आज माफ कर दीजिएगा।

फिल्म में जो है सो है। पर फिल्म की कहानी में यह दिखाया जाता है कि कंगना रनावत को कैंसर है और वो मर रही हैं। दरअसल कंगना रनावत को एकदिन यूँ ही पता चलता है कि उन्हें कैंसर हो गया है और दर्शकों से पूरी हमदर्दी बटोरने के लिए फिल्म बनाने वाले ने उसमें दिखाया कि कुछ दिनों में अचानक उनके बाल गिरने लगते हैं और सिर के बाल गिरना मतलब मृत्यु की घड़ी आ गयी।

बस यहीं मुझे आपत्ति है। 

कैंसर एक बीमारी है। कभी किसी फिल्म, साहित्य या बातचीत में उस सच का झूठ इस तरह नहीं प्रस्तुत करना चाहिए, जिसका असर बहुत से लोगों पर नकारात्मक पड़ सकता है। कैंसर की संवेदना पर कई फिल्में बन चुकी हैं। ‘आनंद’, ‘मिली’, ‘अँखियों के झरोखें से’ और ‘कल हो न हो’, जैसी फिल्मों में इस बीमारी के इमोशनल पहलू को खूब भुनाया गया है, लेकिन इनमें भी इसे गलत ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया है। फिल्म में बीमारी की संवेदना का पूरा ख्याल रखा गया है। 

लेकिन ‘कट्टी बट्टी’ में निर्देशक ने जिस तरह इस बीमारी को प्रस्तुत किया है, उनकी नासमझी पर मैं हॉल में रो पड़ा। कंगना ने मुझसे कहा था कि आप यह फिल्म देख कर रो पड़ेंगे।

आप मुझे माफ कीजिएगा, अगर आपने यह फिल्म देखने का मन बनाया हो और मेरी तरफ से आपको फिल्म का अंत पता चल रहा हो तो। लेकिन मैं क्या करूँ? कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसे लेकर मैं बहुत संवेदनशील हूँ। मेरी माँ कैंसर नामक बीमारी से मरी थी। उसकी बीमारी के समय ही ‘अँखियों के झरोखें’ से रिलीज हुई थी। मैं फिल्म की नायिका को कैंसर से मरते देख आया था और मैंने माँ को जो कहानी सुनाई थी, उसमें मैंने उनसे झूठ कहा था कि हीरोइन ठीक हो गयी। 

फिल्म में हीरोइन ठीक हो गयी, यह सुन कर माँ का चेहरा खिल उठा था। उसने मुझे बुला कर बहुत बार पूछा था कि वो कैसे ठीक हो गयी। मैंने कहा था कि आजकल इस बीमारी का इलाज आ गया है और वो इलाज से ठीक हो गयी। मेरा यकीन कीजिए मेरे इस झूठ से माँ ने दो बार बिस्तर से उठ खड़ी होने की कोशिश की थी। 

खैर, आज मुझे उन यादों पर नहीं जाना।

आज मैं यह बताना चाहता हूँ कि मेरी माँ मर गयी, लेकिन उसके बाल जरा भी नहीं झड़े थे। मरने के दिन भी उसने कंघी की थी, बीच माँग में सिंदूर लगाया था और पूरी तरह तैयार हुई थीं। उसकी इच्छा थी कि जब ‘वो’ आखिरी घड़ी हो, तो मैं उस वक्त पास न रहूँ। पिताजी सामने रहें और इस तरह मरने से पहले के कई मिनट की तैयारी माँ ने खुद की थी। माँ ने घर के हर सदस्य से कह दिया था कि सभी लोग सुबह ही खाना खा लें, मुझसे कहा था कि मैं बैंक से पैसे निकाल लाऊँ और पिताजी से कहा था कि वो उनके मुँह में एक चम्मच पानी डालें। फिर माँ ने पिताजी के सामने हाथ जोड़े और चली गयी। 

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फिल्म के निर्माता-निर्देशक को यह सोचना चाहिए कि वो जो दिखलाते हैं, उसके बारे में यह कह कर वो बेशक खुद को बचा ले जाएँगे कि फिल्म में सब चलता है, लेकिन यह सही नहीं है। जब माँ को कैंसर हुआ था, तब भारत में इस बीमारी का बहुत इलाज उपलब्ध नहीं था। लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। पिछले दस सालों में कैंसर पर इतना शोध हो चुका है, इलाज इतना पुख्ता हो चुका है कि कैंसर के तमाम मरीजों के विषय में मैं ही जानता हूँ कि वो बिल्कुल स्वस्थ हो गये। 

माँ की बीमारी के समय शायद कीमोथेरेपी जैसा इलाज सहज उपलब्ध नहीं था। लेकिन आज यह सहज उपलब्ध है। मैं बता दूँ कि कीमोथेरेपी एक तरह की दवा होती है, जो शरीर में सेल्स के ग्रोथ को रोकने के लिए दी जाती है। क्योंकि शरीर के सेल्स रोकने के लिए ही यह दवा दी जाती है, इसलिए इसका प्रभाव बाल, नाखून आदि पर भी पड़ता है। क्योंकि बाल रोज बढ़ते हैं और कीमोथेरेपी के दौरान बालों का बढ़ना रुक जाता है, इसलिए बाल गिर जाते हैं। पर बालों का गिरना इसके इलाज का एक शुभ संकेत ही है। जैसे ही कीमो के डोज बंद किये जाते हैं, बाल दुबारा आ जाते हैं। 

ऐसे में बालों के गिरने को कैंसर का आखिरी स्टेज बताना, उन तमाम मरीजों को गलत जानकारी देना है, जो इस इलाज से गुजर रहे हैं। फिल्म में कंगना को एक बार भी कीमोथेरेपी से गुजरते हुए नहीं दिखाया गया है। बस डॉक्टर ने उन्हें बीमारी बताई और एक दिन बाथरूम में उनके बाल गिरने लगे और उन गिरते हुए बालों के इर्द-गिर्द इमोशन के आँसू लपेट दिए गये। कंगना अपने गिरते हुए बालों को देख कर बाथरूम का दरवाजा बंद कर लेती हैं और इस तरह दर्शकों को भावुक करने की कोशिश करती हैं कि ओह! अब वो पहले गंजी होंगी और फिर मर जाएँगी और फिल्म में ऐसा ही दिखाया भी गया है। 

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कंगना मेरी दोस्त हैं। मैं उनसे जरूर कहूँगा कि यह एक बीमारी और उसके इलाज का दुष्पचार है। कैंसर में बालों का गिरना इलाज की एक प्रक्रिया है, न कि मृत्यु का संदेश। कम से कम आज यह समझने की जरूरत है कि कैंसर सिर्फ एक बीमारी है और अब इसका इलाज होता है। फिल्म वालों को यह भी समझना चाहिए कि दर्शकों को अपने अभिनय से हंसाना और रुलाना कला है, लेकिन गलत जानकारी देना उन तमाम लोगों की भावानाओं से खिलवाड़ है, जो इसके दंश से गुजर रहे होते हैं। 

फिल्मकारों को सोचना चाहिए कि फिल्में समाज का आइना होती हैं। मैं कम से कम कैंसर के दस मरीजों की कहानी सुना सकता हूँ, जो पूरी तरह ठीक हो गये हैं और आज सामान्य जिन्दगी जी रहे हैं। 

सकारात्मक सोच से उम्मीदों के बाल घने होते हैं, नकारात्मक सोच से जिन्दगी के बाल उड़ जाते हैं। 

जो गाँठ खोलने से खुल जाये, उस पर कैंची नहीं चलानी चाहिए।    

(देश मंथन, 21 सितंबर 2015)

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