संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
एक कटोरी खीर की कीमत तुम क्या जानो दीप रानी?
एक कटोरी खीर सिर्फ चावल, दूध और चीनी का मिश्रण भर नहीं। यह दोस्ती की सौगात होती है, यह रिश्तों का पैगाम होता है।
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मैंने पहले भी आपको बताया है कि उन दिनों फेसबुक नहीं आया था। दरअसल कम्यूटर ही तब नहीं आया था। हमने सोचा भी नहीं था कि ऐसा कोई खिलौना हमारे हाथ में होगा, जिसमें भानुमति के पिटारे की तरह सबकुछ दिखने लगेगा। पर मेरी माँ ने मेरे हाथ में खीर की कटोरी पकड़ाई थी और कहा था कि संजू बेटा, बगल वाले घर में जो नए पड़ोसी आए हैं, उनके यहाँ जाकर इसे दे आओ और नमस्ते भी बोल देना।
“पर माँ, अभी तो हमारी उनसे जान-पहचान नहीं हुई है। अभी तो दो दिन पहले ही वो आए हैं। मैं ऐसे कैसे उनके घर चला जाऊं?”
“बेटा, जब कोई नया पड़ोसी आता है, तो यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम उनके साथ दोस्ती की पहल करें। वो तो नये हैं, उन्हें नहीं पता कि यहाँ कौन रहता है। हम अपनी ओर से शुरुआत करेंगे, तो वो हमारे दोस्त बन जाएंगे। उनका बेटा तुम्हारे साथ खेलने लगेगा।”
मैं पड़ोस वाले शर्मा जी के घर पहुँच गया। तब हमारे उस शहर में दरवाजे पर कॉलबेल भी नहीं होती थी। मैंने कुंडी बजाई, उधर से शर्मा जी की पत्नी ने दरवाजा खोला।
“मेरा नाम संजय है। बगल वाले घर से आया हूँ। माँ ने आप लोगों के लिए खीर भेजी है। नमस्ते भी बोला है।”
शर्मा जी की पत्नी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा कि बहुत अच्छे बेटे हो तुम। आओ, भीतर आओ। और उन्होंने अपने बेटे को आवाज लगाई, “पंकज।”
दस सेकेंड में पकंज मेरे सामने खड़ा था। उसके हाथ में कहानी की किताब थी। उसकी माँ ने कहा कि ये संजय है। देखो तुम्हारे लिए खीर लाया है।
“खीर? वाह। मुझे खीर बहुत पसंद है।”
और इस तरह कुल तीन मिनट में हम दोनों दोस्त बन गये थे।
शर्मा जी की पत्नी ने कहा था कि कटोरी यहीं छोड़ जाओ। “मैं शाम को तुम्हारी माँ से मिलने आऊंगी।”
“ठीक है।” इतना कहने के बाद हम दोनों बच्चे बाहर निकल गये।
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बताने की जरूरत नहीं कि शाम को शर्मा आंटी घर पर आईं। फिर हम लोगों की उनसे अच्छी दोस्ती हो गयी। कभी हमारे घर कुछ बनता, तो हम उनके घर भिजवाते। कभी उधर कुछ बनता, तो हमारे घर आता। ये माँ का स्टाइल था दोस्ती करने का। सबसे बात करने का। सबसे बना कर रखने का।
माँ को कटहल की सब्जी पसंद थी, पिताजी नहीं खाते थे। तो कटहल की सब्जी बहुत बार शर्मा अंकल के घर से हमारे यहाँ आती। बेसन की सब्जी इधर से उधर जाती। कभी चीनी खत्म, तो कटोरी भर चीनी उधर से आई। दूध खत्म, तो दूध इधर से उधर पहुँच जाता। खीर और सेवई तो हफ्ते-हफ्ते इधर-उधर होती। हम बहुत दिन साथ रहे। फिर मेरे पिताजी का ट्रांसफर हो गया। हम अलग हो गए। शर्मा अंकल कहाँ गये, पता ही नहीं चला।
और कुछ दिनों बाद तो मेरी माँ ही सबको छोड़ कर चली गये। माँ के जाने के बाद पुराने रिश्तों का हिसाब-किताब धीरे-धीरे मिटने लगा। हालाँकि माँ की तरफ से भेजी गयी दोस्ती की रिक्वेस्ट वाले बहुत से लोगों से हमारी दोस्ती बहुत दिन रही, पर शर्मा अंकल और उनके बेटे पंकज से दुबारा नहीं मिल पाया।
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अब आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक मुझे शर्मा अंकल की याद क्यों आने लगी? क्यों मैं इतनी पुरानी यादों को आपसे अचानक साझा करने बैठ गया?
दरअसल जब से हम नये घर में शिफ्ट किए हैं, जब-जब मौका मिलता है मैं स्विमिंग करने जाता हूँ। अभी यहाँ किसी से मेरी जान-पहचान नहीं हुई है। मैंने ऐसा महसूस किया है कि यहाँ के लोग एक दूसरे से कम घुलते-मिलते हैं। यहाँ सभी बड़ी गाड़ी वाले हैं। पूरी सोसाइटी शांत सी है। कोई किसी से बात करता भी नजर नहीं आता। कुछ लोग जिम में ट्रेड मिल पर दौड़ रहे होते हैं, कुछ लोग स्विमिंग कर रहे होते हैं या अपने बच्चे को स्विमिंग सिखा रहे होते हैं।
अंग्रेजी में इसे स्नॉब होना कहते हैं। अब स्नॉब का मतलब क्या होता है, यह जानना हो तो प्लीज डिक्शनरी में देख लें, क्योंकि मैं इस शब्द का अर्थ बताने बैठूंगा तो मेरी पोस्ट देर से आप तक पहुँचेगी। देर से आप तक पहुँचेगी तो मेरे कई परिजन, जिन्हें सुबह की चाय पीनी है, जिन्हें सुबह जल्दी तैयार होना है, वो मुझसे शिकायत करने लगेंगे कि संजय सिन्हा कम से कम सप्ताह के पहले दिन तो ऐसी देर न करो। पूरा रूटिन बिगड़ जाता है।
वैसे कामचलाऊ अर्थ समझा दूँ कि स्नॉब का अर्थ होता है खुद को बड़ा आदमी मानना।
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक ऐसे लोग जिन्हें दुनिया बड़ा आदमी मानती है। दूसरे ऐसे लोग, जो खुद को बड़ा आदमी मानते हैं। ऐसे लोग, जिनके पास बहुत पैसा हो, जिन्हें लगे कि संसार में उनका एक विशेष दर्जा है, या फिर ऐसे लोग जो समझते हैं कि वो बहुत बड़ी पोस्ट पर हैं, वो स्नॉब कहलाते हैं। ऐसे लोग जल्दी किसी से बात नहीं करते। ऐसे लोग ज्यादातर सामने वाले को कमतर करके आंकते हैं। इनके बच्चे नौकरों से भी अंग्रेजी में बात करते हैं। नौकर बेचारा उनकी भाषा उतनी ही समझ पाता है, जितना टॉमी समझ पाता है। कम एंड गो से उनका काम चलता है।
हालाँकि नौकरों की हिंदी वे समझते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे गुलामी के दिनों में अंग्रेज़ हमारी समझते थे। ये लोग टुम क्या खाटा, टुम कहाँ जाटा जैसी अंग्रेजीनुमा हिंदी बहुत मुश्किल से बोल पाते हैं। कभी मूड हुआ तो मैं आपको इंग्लैंड गए दो बिहारियों की कहानी सुनाऊंगा, पर आज तो मेरे नये मुहल्ले की कहानी।
जब मैं इस सोसाइटी में रहने आ रहा था तो पत्नी ने खास हिदायत दी थी कि वहाँ अपनी आदत की तरह सबसे गलबहियाँ करने मत पहुँच जाना।
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हाँ, तो मैं बता रहा था कि मैं स्विमिंग करने गया था। मेरे लॉन से सटा हुआ बहुत बड़ा स्विमिंग पूल है। पूरी सोसाइटी वहीं आती है, छपाक-छपाक करने। परसों रात की बात है, मैं स्विमिंग कर रहा था तो एक चेहरा मेरी ओर बार-बार देख रहा था। मुझे भी वो चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। पर नंग-धड़ंग थुल-थुल पेट में कौन किसे पहचानता है? हम स्विमिंग करते रहे। एक दूसरे को पानी के भीतर से गर्दन तक देखते रहे। और फिर अपने-अपने घर चले आए।
कल शाम मेरे दरवाजे की घंटी बजी।
एक नौकरनुमा लड़का मेरे दरवाजे पर खड़ा था।
मेरी कामवाली ने दरवाजा खोला। सामने वाला हाथ में एक कटोरी लिए खड़ा था। नौकरानी ने मेरी पत्नी को आवाज लगाई कि मैडम, कोई कुछ लेकर आया है। पत्नी दरवाजे तक गयी। लड़के ने उसे कटोरी पकड़ाई और साथ में एक लिफाफा।
लिफाफे में एक कागज का टुकड़ा पड़ा था। उस पर लिखा था, “क्या तुम वही संजय हो, पटना वाले? स्विमिंग पूल में देख कर बड़ा देखा-देखा सा लगा। लगा कि तुम वही हो। पर हम बात नहीं कर पाए। घर आकर मैंने सोसाइटी के दफ्तर में फोन करके पूछा तो पता चला कि कोई संजय सिन्हा यहाँ फलाँ फ्लैट में रहने आए हैं। नाम सुन कर मुझे यकीन हो रहा है कि तुम वही हो। माँ यहीं है, मेरे साथ। माँ ने खीर भेजी है, तुम्हारे लिए। पंकज।”
पत्नी ने पत्र पढ़ा। हैरान रह गयी। इस मुहल्ले में भी तुम्हारे लोग मिल गये?
“मेरे लोग नहीं। ये माँ के बनाये फेसबुक फ्रेंड हैं। मैं तो माँ के दिए रिश्तों को जी रहा हूँ बस। देखो तुम कहती थी न कि ये स्नॉब लोगों को सोसाइटी है। पर इस संसार में कोई स्नॉब नहीं होता। हम बेवजब अपने इर्द-गिर्द ऐसा ताना-बाना बुन लेते हैं, जिसकी जरूरत नहीं होती। हर आदमी को आदमी का साथ चाहिए होता है। पर पता नहीं क्यों हम चाहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। हम चाहते तो सबका साथ हैं, पर रहते अकेले हैं। अकेलापन सबको बुरा लगता है।
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मैंने खीर चखी।
हाँ ये शर्मा आंटी ने ही बनायी है। मैंने फटाफट इंटरकॉम से फोन किया। पंकज शर्मा। किसी अमेरिकी कंपनी में सीईओ हैं।
हम दोनों काफी देर बातें करते रहे। अगले शनिवार को हम खाने पर मिलेंगे। शर्मा आंटी के पाँव छूने का मौका मिलेगा।
मेरी माँ नहीं है। पर बहुत साल पहले उसने एक कटोरी खीर के साथ जो फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजी थी, आज वो घूम कर मेरे पास आ गयी है। अब स्नॉब की सोसाइटी में दो दोस्त मिलेंगे।
पत्नी हैरान होगी कि यहाँ भी शुरू हो गये, संजय सिन्हा।
आज लिख भले दिया हूँ पर कह नहीं पाया हूँ। लेकिन एक दिन मैं अपनी पत्नी से कहूँगा कि एक कटोरी खीर की कीमत तुम क्या जानो दीप रानी?
एक कटोरी खीर सिर्फ चावल, दूध और चीनी का मिश्रण भर नहीं। यह दोस्ती की सौगात होती है,यह रिश्तों का पैगाम होता है।
कम्यूटर, इंटरनेट और फेसबुक तो अभी आया है। चावल, चीनी और दूध तो पहले से है।
(देश मंथन 26 जुलाई 2016)