रिश्तों की पूंजी

0
160

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आज मैं जो सुनाने जा रहा हूँ, वो कहानी नहीं। हकीकत है। हमारा और आपका भविष्य है, अगर हम समय रहते नहीं चेते तो।

आपने अखबारों में खबर पढ़ी होगी कि पिछले हफ्ते एक आईपीसए अफसर ने दिल्ली से सटे नोएडा के एक अपार्टमेंट में खुद को गोली मार ली। इस घटना के तुरंत बाद ही उस अफसर की पत्नी ने अपने फ्लैट की चौथी मंजिल से कूद कर अपनी जान दे दी थी। 

जब यह खबर मेरे पास आयी थी कि इसे किस तरह टीवी पर दिखाया जाए, तो मैं बहुत देर तक सन्न होकर बैठा था। 

एक आदमी आईपीएस अफसर बनने के लिए न जाने कितनी मेहनत करता है, न जाने कितना त्याग करता है और वही आदमी समय के किसी पल में इतना कमजोर हो जाता है कि जो बंदूक उसे अपराध खत्म करने के लिए उठानी होती है, उसे वो खुद पर उठा लेता है।

फिर शुरू होता है अकेलेपन का दंश। 

पति ने खुद को गोली मार ली, पत्नी से यह अवसाद सहा नहीं जाता और अपनी सवा साल की बच्ची को तन्हा छोड़ कर वो भी घर की बालकनी से कूद जाती है और दो दिनों तक मौत से जद्दोजेहद के बाद आख़िर वो मौत की आगोश में समा जाती है। 

***

दो दिन पहले दिल्ली से सटे नोएडा में ही एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की अचानक दिल की धड़कन बंद होने से मृत्यु हो गई। 38 साल का यह आदमी अपनी पत्नी और छह साल के बच्चे के साथ नोएडा के एक ऐसे अपार्टमेंट में रह रहा था, जहाँ कुल 1,300 फ्लैट हैं। सोचिए, 1,300 परिवार वहाँ एक साथ आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दाएँ, बाएँ रहते हैं। अगर गाँव के संदर्भ में सोचें तो 1,300 घरों का पूरा एक भरा-पूरा गाँव होता है। वहाँ इस इंजीनियर का परिवार सबके बीच इस कदर तन्हा था कि जब अचानक उस इंजीनियर की मृत्यु हो गई, तो उसकी 32 साल की पत्नी को काठ मार गया। 

पत्नी करीब चार घंटे तक मृत पति के पास बैठी रही। फिर अचानक वो उठी और अपने छह साल के बच्चे को तन्हा छोड़ कर आठवीं मंजिल से नीचे की ओर छलांग लगा गयी। जाहिर है पत्नी की भी मौत हो गयी। 

***

मैंने जो कुछ लिखा है, उसका एक-एक अक्षर सत्य है। 

हम जैसे खबरनवीसों के लिए ऐसी घटनाएँ टीआरपी की सनसनी के सिवा कुछ नहीं। हम ऐसी खबरों पर विचलित नहीं होते। हमारा काम है खबरों को समझना। उन्हें आपको परोसना। हमारे दफ्तर में कोई भी ऐसी खबरों को सुन कर, पढ़ कर, उन्हें आपके सामने परोस कर, पल भर के लिए भी विचलित नहीं होता। हमारे यहाँ ऐसी खबरों को सुन कर कोई भी एक दिन का खाना नहीं छोड़ता। 

पर मैं ऐसी खबरों से बहुत विचलित होता हूँ। मुझे बार-बार लगता है कि आदमी इतना तन्हा क्यों है। 

मुझे हर बार लगता है कि आदमी ने धन कमाने के चक्कर में रिश्तों को क्यों गंवा दिया। जहाँ 1,300 परिवार हैं, वहाँ क्या एक आदमी उस महिला कि जिन्दगी में नहीं रहा होगा, जो उसके पति की मौत के बाद उस तक पहुँच पाया हो, या महिला किसी के कंधे पर सिर रख कर रो पायी हो। 

मेरा छोटा भाई हमेशा कहा करता था कि जिस आदमी ने रिश्ते नहीं कमाए, उसकी सारी कमाई व्यर्थ होती है। उसका कहना था कि आदमी स्वास्थ्य का बीमा कराता है, जीवन का बीमा कराता है, पर काश आदमी रिश्तों का बीमा करना जानता। 

वो कहता था कि बीमारी के बीमा से एंबुलेंस तो घर आ जाएगी, जीवन बीमा से आदमी की मृत्यु के बाद उसके परिवार वालों को जीने-खाने का पैसा भी मिल जाएगा, पर क्या आदमी को सचमुच इन्हीं चीजों की दरकार होती है।

वो मुझसे कहता था कि एक बार आदमी कमा लिए फिर सचमुच किसी चीज की जरूरत नहीं होती। 

तब मैं उसकी बातें नहीं समझता था। 

दो साल पहले यही 38 साल की उम्र में मेरे भाई की भी अचानक हार्ट फेल होने से मृत्यु हो गयी। 

मेरा भाई अहमदाबाद से पुणे नई-नई नौकरी पर ही गया था। कुल मिला कर उसे साल डेढ़ साल ही हुए थे, पुणे पहुँचे हुए। पर अपने दफ्तर, अपार्टमेंट, शहर में उसने न जाने कितने रिश्ते बना लिए थे। वो जहाँ रहता था, उसके रिश्ते बन जाते थे। 

अपने भाई की मौत की यादें मेरे जेहन में बहुत धुंधली सी ही बची हैं, पर जितनी बची हैं, मुझे याद है कि पुणे के फ्लैट में उसका शव पड़ा था और जब हम श्मशान घाट पहुँचे थे, तब कम से कम पाँच सौ आदमी वहाँ खड़े होकर आँसू बहा रहे थे। 

कोई राजकोट से आया था, कोई अहमदाबाद से। कोई मुंबई से, कोई दिल्ली से। कोई बड़ौदा से चला आया था, कोई नाडियाड से। 

कौन किसके लिए जाता है? कौन किसके लिए रोता है?

पर यह मेरे भाई की कमाई ही थी, जो एक साथ सैकड़ों हाथ उसके परिवार के लिए उठ खड़े हुए थे। इनमें से कोई हमारे परिवार का सदस्य नहीं था। कोई हमारा पूर्व परिचित भी नहीं था। ये सभी मेरे भाई के रिश्तों के समंदर से चुनी हुई सीपियाँ थीं। 

उन रिश्तों ने मिल कर मेरे भाई के परिवार को कभी अहसास ही नहीं होने दिया कि वो अकेले हैं। यह रिश्तों का कारवाँ ही था, जो मेरे छोटे भाई के परिवार ने मेरे भाई के निधन के बाद भी पुणे शहर को नहीं छोड़ा। मेरे भाई की पत्नी पुणे की रहने वाली नहीं, लेकिन मेरे भाई के रिश्तों का बीमा इतना मजबूत था कि उन लोगों ने इस हादसे के बाद भी वहीं रहना पसंद किया। मैंने बहुत चाहा था कि वो लोग दिल्ली चले आएँ। मुझे लगता था कि वो कहीं अकेले न पड़ जाएँ। पर मैं गलत था। 

मेरे भाई ने जीवन का बीमा नहीं कराया था। स्वास्थ्य का बीमा भी नहीं लिया था। उसने सिर्फ और सिर्फ रिश्तों का बीमा कराया था। कराया क्या था, खुद ही कर लेता था। और आज तक हम सभी उसकी उस कमाई की फसल काट रहे हैं। 

***

आदमी का सारा वैभव, धन-दौलत, मकान-दुकान व्यर्थ पड़ा रह जाता है, जब आदमी एक पल को नजरें उठा कर खुद को अकेला पाता है। 

अगर दिल्ली का वो आईपीएस अफसर रिश्ते कमा पाया होता तो पति-पत्नी के मामूली विवाद के बाद उसे न तो खुद को गोली मारनी पड़ती, न उसकी मौत के बाद उसकी पत्नी को घर की बॉलकनी से कूदना पड़ता। 

अगर उस सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने भी रिश्ते कमाये होते, तो अचानक मौत के बाद उसकी पत्नी को अपनी सवा साल की बच्ची के साथ अकेले उस शव के पास चार घंटे बिता कर, फ्लैट की आठवीं मंजिल से कूदने की नौबत न आती।

यह अकेलापन, अवसाद किसी भी बीमारी से बड़ी बीमारी है। 

जो रिश्तो का बीमा समय रहते नहीं करा पाते, उनके सामने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होती हैं। 

अपने रिश्तों को पहचानिए। उनके साथ समय बिताइए। नहीं तो एकदिन यही गीत गुनगुना पड़ सकता है कि “सबके रहते लगता है ऐसा, कोई नहीं मेरा…।”

याद रखिए अगर जीवन में सचमुच कुछ काम आता है, तो वो बस रिश्तों की पूंजी ही है। 

(देश मंथन, 27 नवंबर 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें