रिश्तों के कपड़े

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“माँ, मैं इस बार लाल फूलों वाली कमीज नहीं पहनूँगा।”

“क्यों बेटा?”

“माँ, तुम हर बार दशहरा पर सारे बच्चों क एक जैसे कपड़े सिलवा देती हो। इस बार भी तुमने दीदी के लिए लाल रंग का जो फ्रॉक सिलवाने को दिया है, मेरी कमीज भी उसी रंग की सिली जा रही है। माँ, तुम घर में सारे बच्चों के कपड़े एक ही रंग के क्यों सिलवाती हो?”

“ओह! तो तुम्हें शिकायत है कि तुम बाकी बच्चों जैसे कपड़े नहीं पहनोगे?”

“हाँ माँ।”

***

माँ के बीमार होने से ठीक पहले वाले दशहरा पर मैंने पहली बार माँ से पूछा था कि घर के सारे बच्चों के कपड़े एक ही जैसे क्यों सिलवाये जाते हैं?

हमारे लिए दशहरा एक बहुत खास त्योहार था। गणेश चतुर्थी के समय घर पर लोहे का बक्सा लेकर फेरी वाला आता, माँ उसी से छाँट कर कपड़े खरीदती और फिर दर्जी को बुला कर सारे बच्चों के नाम दिए जाते। दशहरा से ठीक पहले सारे बच्चों के कपड़े सिल कर आ जाते। दीदी के लिए फ्रॉक, मेरे लिए कमीज। 

उस साल दशहरा पर हम अपने ननिहाल में थे और वहाँ घर पर कपड़े बेचने वाला आया था। माँ ने लाल रंग के फूलों वाला कपड़ा सबके लिए पसन्द कर लिया था। सब मतलब हम सभी भाई-बहन और माँ के चचेरे भाई-बहन। 

उसी दफा मैंने माँ से पहली बार गुहार लगायी थी कि मैं लाल रंग की कमीज नहीं पहनूँगा। 

हालाँकि मुझे लाल कमीज से कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन मेरे एक चचेरे मामा ने मुझे उकसाया था कि मैं माँ से यह कहूँ कि लड़के और लड़कियाँ एक ही रंग के कपड़े क्यों पहनें?

माँ ने मुझे पास बिठाया। मुझे खूब प्यार किया और कहा, “देखो, पर्व-त्योहार पर जो कपड़े सिले जाते हैं, उनका महत्व अलग होता है। पहली बात तो यह कि तुम सारे बच्चे एक ही रंग के कपड़ों में कितने प्यारे लगते हो। दूसरी बात यह कि तुम दशहरा पर मेला देखने जाओगे और मान लो कि तुम कहीं अकेले छूट गये, तो दूर से तुम्हें बाकी बच्चे पहचान लेंगे कि ये लाल कमीज में तो संजू है। इस तरह तुम भीड़ में खोने से बच जाओगे। और सुनो बेटा, पर्व त्योहार पर जो नये कपड़े सिले जाते हैं, उनकी अहमियत तन ढकने से कहीं अधिक मन ढकने की होती है। तन किसी कपड़े से ढका जा सकता है, मन सिर्फ रिश्तों के कपड़ों से ढकता है। दशहरा पर जो कपड़े तुम्हारे लिए और घर के बाकी बच्चों के लिए सिले जाते हैं, वो रिश्तों के परिधान हैं। साल में एक दिन तो ऐसा आता है, जब घर के सारे बच्चे एक रंग में रंगे होते हैं। दूर से पहचान में आते हैं कि ये आपस में एक हैं। एक घर के हैं। रिश्तेदार हैं। 

तुम जिस स्कूल में पढ़ते हो, वहाँ के सारे बच्चे भी तो एक ही रंग के कपड़े पहनते हैं। क्यों? सारे बच्चे एक से दिखें, इसीलिए तो। किसी बच्चे के मन में यह भाव न आए कि वह अलग है, इसीलिए। एक स्कूल में पढ़ने वाले सारे बच्चे खुद को एक परिवार का हिस्सा समझें, इसीलिए उनके कपड़े एक से होते हैं। उनके कपड़े भी तन ढकने के लिए नहीं, मन ढकने के लिए होते हैं। उनके कपड़े भी रिश्तों के कपड़े होते हैं। 

इसलिए मेरे प्यारे बेटा, तुम दशहरा पर लाल फूलों वाली कमीज पहन लेना। लाल रंग तो तुम पर बहुत सुंदर भी लगता है। मैंने तो सभी बच्चों के लिए एक से कपड़े खरीदे हैं, पर मेरे मन में तुम्ही पहले थे। मैंने सोच लिया था कि तुम पर यह रंग बहुत अच्छा लगेगा।”

माँ इतना कहती और मैं फुदकता हुआ वहाँ से निकल पड़ता, बाकी बच्चों के बीच।

***

वह आखिरी साल था जब दशहरा पर मुझे मन ढकने वाले, रिश्तों के कपड़े पहने को मिले थे।

उसके बाद तो माँ को कैंसर हो गया और फिर मेरी जिन्दगी में कभी दशहरा नहीं आया। हालाँकि माँ उसके अगले साल भी दशहरा पर थी, लेकिन हमने दशहरा पर कपड़े नहीं सिलवाए थे। दशहरा के बाद होली आयी और होली के हफ्ते भर बाद माँ चली गयी। माँ होती थी तो हर साल होली पर हमारे लिए सफेद कुर्ता पायजामा सिला जाता था। दिन में हम गीले रंगों में सराबोर होते और शाम को सफेद कुर्ता-पायजामा में अबीर-गुलाल उड़ाते। 

इस तरह एकदम तय था कि होली और दशहरा पर हमारे लिए नये कपड़े सिले जाएँगे। माँ के शब्दों में ये सूत-कपास के नहीं, रिश्तों के कपड़े थे।

***

हर साल की तरह फिर गणेश चतुर्थी आ गयी है। कुछ दिनों के बाद फिर दशहरा आएगा। अक्तूबर का महीना किसी के लिए बहुत उल्लास का महीना होता होगा, मेरे लिए उदासियों का होता है। मैं दशहरा पर अब मेला देखने नहीं जाता। जाऊँ भी कैसे? मेरे पास अब पहनने को कपड़े कहाँ हैं? 

रोज मॉल जाकर जो कपड़े अपने लिए खरीद कर लाता हूँ, उनसे तन ढकता है, मन नहीं। उनसे तरह-तरह की खुशबू तो आती है, लेकिन रिश्तों की नहीं। 

मैं उस दिन को कोसता हूँ, जिस दिन मैंने माँ से कहा था कि मैं लाल रंग की कमीज नहीं पहनूँगा। 

***

माँ तुम कहाँ हो? 

अब मैं कभी नहीं कहूँगा कि मैं लाल फूलों वाली कमीज नहीं पहनूँगा। माँ मेरे पास आज पाँच सौ कमीजें हैं। कइयों के तो टैग तक नहीं निकाले, लेकिन एक भी ऐसी कमीज नहीं, जिनसे मेरा मन ढक जाये। मेरे पास एक भी ऐसा परिधान नहीं, जिनसे रिश्तों की खुशबू आये। 

तुम ठीक कहती थी माँ, एक जैसे कपड़े पहन कर बच्चे मेले में जाते हैं, तो खोते नहीं। 

अब तुम नहीं हो, तो मैं मेले में जाता ही नहीं। मुझे डर लगता है कि मैं कहीं खो न जाऊँ। 

(देश मंथन, 18 सितंबर 2015)

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