संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
चार साल पहले भी मेरा नाम संजय सिन्हा था। लेकिन तब मैं संजय सिन्हा की जिंदगी जीता था।
आप सोच रहे होंगे कि आज मैं ये क्या लिख रहा हूँ। आज मैं क्या कहने जा रहा हूँ। हर आदमी अपनी ही जिंदगी तो जीता है, तो संजय सिन्हा अपनी जिंदगी जी रहे थे, तो इसमें नई बात क्या हो गई? और आप ये भी मन में सोच ही सकते हैं कि क्या अब संजय सिन्हा अपनी जिंदगी नहीं जीते?
आप में से बहुत से लोग मुझे चार साल पहले नहीं जानते थे। कुछ ही लोग जानते थे। जो जानते थे, उन्हें पता था कि संजय सिन्हा बहुत कम लोगों से मिलने-जुलने वाले, अपनी दुनिया में मस्त रहने वाले हैं। उनका संसार बहुत सीमित था और उनकी मर्जी का था। जिनसे खुले हुए थे, बहुत खुले थे और जिनसे दूरी थी, बहुत दूरी थी। चार साल पहले संजय सिन्हा को कोई फोन करे और उस व्यक्ति का नंबर फोन में सेव न हो, तो क्या मजाल जो वो फोन उठा लें।
अपनी पत्नी, अपना बेटा, अपना भाई और द़फ्तर के कुछ साथियों के अलावा संजय सिन्हा का संसार बहुत सीमित था। कुछ फिल्मी सितारों, कुछ अफसरों से मिलना-जुलना था, पर उससे अधिक कुछ नहीं। अपना शौक सिर्फ नई-नई गा ड़ियां खरीदना, नए गैजेट्स खरीदना, विदेश घूमने तक सिमटा हुआ था। चार साल पहले मैं न किसी के घर जाता था, न किसी को अपने घर बुलाता था। बहुत सीमित लोगों को छोड़ कर कोई मेरे घर कभी आया ही नहीं था। गिनाने बैठूंगा तो उंगलियों पर नाम गिना सकता हूँ।
लेकिन चार साल पहले आज की ही तारीख थी, मैं सोकर उठा था और बहुत बेचैन था। मैंने अजीब सा सपना देखा था। देखा था कि मैं मर गया हूँ। फिर सपने में ही मेरी आँख खुली, तो मैंने देखा कि मेरे भाई को कुछ हो गया है। ठीक से याद नहीं पर मैं पसीने में डूबा हुआ था। ऐसा सपना कभी नहीं देखा था। फिर लगा कि सपना तो सपना होता है, इसके बारे में क्या सोचना। पर मैंने बगल में सो रही पत्नी को जगाया और अपने सपने के बारे में बताया। उसने मेरी ओर देखा और कहने लगी कि सपना तो सपना होता है। मन को स्थिर करके सो जाओ।
पर मेरा मन स्थिर नहीं हुआ।
सात बजे से दस बजे तक मैं इधर-उधर बैचैन सा रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है। फिर दस बजे के आसपास मेरे पास एक अनजान कॉल आया। बताया न, मैं अनजान फोन नहीं उठाता था, पर मैंने वो फोन उठा लिया।
फोन करने वाले ने पूछा कि सलिल सिन्हा को आप जानते हैं? मैंने हाँ कहा और उधर से आवाज आई कि उनकी तबियत बहुत खराब हो गयी है। मुझे ठीक से नहीं याद लेकिन शायद मैंने फोन पर सुन लिया था पीछे से कोई कह रहा था कि उनकी साँस रूक गयी है। मैंने बहुत जोर से आवाज देकर अपनी पत्नी को बुलाया था और फोन उसे दे दिया था।
उसके आगे मुझे कुछ भी याद नहीं।
मेरा भाई मुझसे अहमदाबाद में चार दिन पहले मिला था। आखिरी बार मिला था। फिर वो पुणे चला गया था, मैं दिल्ली चला आया था। चार साल पहले आज की सुबह वो रोज की तरह ही उठा था। उठने के बाद वो तैयार हुआ था। नीली शर्ट, काली पैंट और लाल टाई। उसकी पत्नी उसे गाड़ी में दफ्तर छोड़ने गयी थी। सुबह दस बजे के पहले उसे पहुंचना था, वहाँ उसका प्रजेंटेशन था। उसने प्रजेंटेशन की तैयारी की थी। लोगों से खुद को जोड़ने की उसमें गजब कला थी। उसके शब्द बहुत शानदार हुआ करते थे और उसकी आवाज बहुत मीठी और दिलकश थी। एक-दो की बात छोड़ दीजिए, सैकड़ों लड़कियाँ उसकी दीवानी थीं और अगर मेरी देखा-देखी उसने 22 साल की उम्र में किसी एक से प्रेम करके शादी न कर ली होती, तो मुझे पूरा यकीन है कि उसके लिए शादी करना आसान न होता।
बात लड़कियों की नहीं, वो सही मायने में रिश्तों का जादूगर था।
मैं उसे हमेशा समझाता था कि तुम कुछ पैसे जमा किया करो। वो मुस्कुराता और कहता कि भैया, पैसे बहुत लोग जोड़ते हैं, वो किसी काम नहीं आते। रिश्ते जोड़िए। लोगों से खुद को जोड़िए। मैं समझा-समझा कर थक गया, वो नहीं समझा।
उसके हाथ में हजार रुपये दीजिए, कोई जरूरतमंद मिले वो उसे सारे पैसे दे देता। उसे न गाड़ियों का शौक, न गैजेट्स का। कपड़ों का शौक था, पर वो मेरे पास जब भी आता, मेरी आलमारी खोल कर सूटकेस भर लेता। मेरी पत्नी से उसकी सेटिंग थी और दोनों मिल कर मेरे कपड़े उड़ा दिया करते थे। आखिर में मैंने तय कर लिया था कि अपने लिए जब भी कपड़े खरीदूंगा, एक जैसे दो खरीदूंगा ताकि एक वो ले जाए।
मैं उससे कहता था कि तुम नये कपड़े ले लो, तो वो कहता कि आपके पहने हुए कपड़े पहनने में रिश्तों की खूशबू मिलती है।
मैंने पहले भी आपको उसके रिश्तों की कई कहानियाँ सुनाई हैं। वो कभी अकेले खाना नहीं खाता था। जिस दिन दिन घर पर कोई न आए, वो पास के ढाबे में चला जाता और किसी की टेबल पर बैठ जाता। मैंने उसे एक दो बार रोका था, पर वो कहता था कि जिस आदमी को अकेले खाना खाना पड़े, उससे दुर्भाग्यशाली कोई और नहीं।
वो अनजान से अनजान शहर में दोस्त ढूंढ लेता था। वो अफ्रीका गया, म्यानमार गया, जर्मनी गया, सब जगह उसने दोस्त बना लिए थे। पटना से दिल्ली और दिल्ली से गुजरात तक उसके दोस्त थे। वो अनजान से अनजान लोगों को घर पर बुला लाता। मैं उसके पास नाडियाड, बड़ौदा, राजकोट, अहमदाबाद फिर पुणे गया। हर जगह सैकड़ों दोस्त।
कमाल का था मेरा भाई।
मेरा वही भाई आज के दिन चार साल पहले अपने दफ्तर में बैठा था, अचानक उसका हार्ट फेल हो गया। सबसे पहले मेरे पास फोन आया था, शायद उसने मेरा कार्ड निकाल कर पास खड़े किसी व्यक्ति को दिया था कि इन्हें फोन कर दीजिए। उसने पुणे से मुझे फोन किया। वो आदमी मुझसे बात कर ही रहा था कि मेरे भाई की सांसें रुक गईं।
फिर मुझे उसके चार दिन बात तक की कहानी याद नहीं। धुंधली-सी याद है भी तो मैं उसे याद नहीं करना चाहता।
आज मैं सिर्फ इस सच को दुहरा रहा हूँ कि अप्रैल से लेकर नवंबर तक हमारी हर सुबह आंसुओं से नमकीन रही। सात महीने मैं और मेरी पत्नी दोनों रोते रहे। हमने लोगों से मिलना छोड़ दिया था। सात महीनों के बाद मैं अमिताभ बच्चन से किसी फिल्म के इंटरव्यू के सिलसिले में मिला था। उन्होंने मुझे समझाया कि मुझे कुछ लिखना चाहिए। मैंने चार साल पहले नवंबर की 12 तारीख को पहली बार लिखा कि अब मैं रोज़ कुछ न कुछ लिखूंगा।
मैं उस दिन से रोज़ कुछ न कुछ लिख रहा हूँ। फिर धीरे-धीरे संजय सिन्हा का परिवार बड़ा होने लगा। दस, बीस, पचास और सौ से होते-होते ये हज़ारों में पहुंच गया। कुछ लोगों से मेरी बात होने लगी।
और देखते-देखते एक बहुत बड़ा परिवार मुझे मिल गया। मैंने कहा न कि चार साल पहले मैं संजय सिन्हा था। पर आज मैं कह सकता हूँ कि अब मैं संजय सिन्हा नहीं हूँ। आज मैं अपने छोटे भाई को खुद में जीता हूँ। आज मैं रिश्ते बनाता हूँ। आज मैं मानने लगा हूँ कि जिनका निवेश रिश्तों में नहीं, जिनके पास रिश्ते नहीं, जो अकेले एक दिन भी खाना खाते हैं उनसे दुर्भाग्यशाली कोई नहीं।
मेरे भाई को पुणे रहते हुए साल भर ही हुआ होगा। मुझे याद है कि उस दिन श्मशानघाट पर सैकड़ों लोग मेरे भाई को बिलखती आंखों से विदाई दे रहे थे। वो सैकड़ों रिश्तेदार थे, जिन्हें उसने साल भर में अपना बना लिया था।
मैंने कई शवों को चार कंधों के लिए तरसते देखा है। ये शव उनके होते हैं, जो जीवन काल में सिर्फ धन में निवेश करते रहते हैं। जो रिश्तों में निवेश करते हैं, उनके साथ तो हजारों, लाखों कंधे होते हैं। आदमी का निवेश सच में वहीं दिखता है।
वहाँ से लौटने के बाद मैं संजय सिन्हा आपसे सच कह रहा हूँ कि मैं अब मैं नहीं। अब मैं अपने भाई की तरह ‘हम’ में बदल गया हूँ।
आप भी रिश्तों में निवेश कीजिएगा। मेरा अपना अनुभव है कि पैसों का निवेश आपको उतनी खुशी नहीं देगा, जितनी खुशी आपको रिश्तों के निवेश से मिलेगी।
अपने रिश्तों को पहचानिए। उन्हें हरा-भरा कीजिए। इतना तो कर ही लीजिए कि एक दिन भी अकेले खाना न खाना पड़े।
(देश मंथन, 11 अप्रैल 2017)