संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कुछ दिन पहले मैं अपने एक मित्र के घर गया था। मैं मित्र के घर बहुत दिनों के बाद गया था और इस उम्मीद से गया था कि मेरा मित्र मुझसे मिल कर बहुत खुश होगा।
मैं मित्र के घर पहुँचा, वहाँ मेरी खूब आव-भगत हुई। लेकिन मैंने ऐसा महसूस किया कि पति-पत्नी के बीच रिश्तों के तार उस तरह नहीं जुड़े हैं, जैसे होने चाहिए थे। एक अजीब सा तनाव दोनों ओर से दिख रहा था।
मैं चुपचाप डाइनिंग टेबल पर खाना खा रहा था। मन ही मन सोच रहा था कि बेकार ही यहाँ चला आया। पर ये सोच कर हैरान भी था कि आखिर इन दोनों ने कभी प्रेम विवाह किया था, दोनों को तो जिन्दगी भरपूर खुशी से जीनी चाहिए थी, आँखों में ये उदासी कैसी? मैं बहुत देर तक सोचता रहा, पर मैं इस सच से वाकिफ था कि पति-पत्नी के रिश्तों में बेवजह पड़ना नहीं चाहिए।
पर दोनों मेरे दोस्त थे। बहुत देर की खामोशी मुझसे सहन नहीं हो रही थी। मैं पूछ ही बैठा कि आखिर बात क्या है?
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पत्नी ने बहुत मायूस निगाहों से पति की ओर देखा। पति ने भी बुझी नजरों से पत्नी की ओर देखा।
मुझे लगा कि अब उदासी की बर्फ पिघलेगी।
पर ऐसा हुआ नहीं। दोनों ने बस एक दूसरे की ओर बहुत कातर निगाहों से देखा और खामोश रह गये।
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अब मैं ज्यादा देर चुप नहीं रह सकता था। खाना खाते हुए मैंने उन दोनों से कहा कि मैं तुम्हें अपनी माँ की सुनाई एक कहानी सुनाता हूँ।
दोनों मेरी ओर देखने लगे। ये संजय सिन्हा को अचानक कहानी सुनाने की क्या आ पड़ी?
पर दोनों ने कहा, “सुनाओ।”
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“एक बार एक साधु अपने कुछ शिष्यों के साथ एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहे थे। रास्ते में नदी के किनारे साधू को एक महिला मिली। वो चुपचाप नदी के किनारे बैठी थी। साधु ने महिला से पूछा कि तुम अकेली यहाँ क्यों बैठी हो?
महिला ने कहा कि उसे नदी पार करनी है, पर वो तैरना नहीं जानती।
साधू ने कहा, “कोई बात नहीं। मैं तुम्हें नदी पार करा दूँगा।”
और उस महिला को अपने साथ तैरते हुए उन्होंने नदी के उस पार पहुँचा दिया।
साधु के शिष्यों ने देखा कि सारा दिन ब्रह्मचर्य की बात करने वाले ये साधु महाराज उस महिला को नदी पार करा रहे हैं। साधु महिला को नदी के उस पार छोड़ कर वापस लौट आये और अपने शिष्यों के साथ आगे की यात्रा पर निकल पड़े।
रात हो गई तो साधु ने रास्ते में अपना डेरा जमा लिया। सारे शिष्यों ने वहीं भोजन का इंतजाम किया और भोजन करने लगे।
साधु ने देखा कि एक शिष्य कुछ बोल नहीं रहा। उसकी आँखों में नाराजगी सी थी। आखिर साधु ने उससे पूछा कि तुम इतने खामोश क्यों हो। कोई बात हुई क्या? शिष्य तो मानो भरा बैठा था। उसने साधु से कहा, “महाराज आप हमें दिन भर ब्रह्मचर्य का ज्ञान देते हैं, और आप खुद उस महिला को पीठ पर लादे हुए नदी के उस पार ले गये, ये क्या था?”
साधु मुस्कुराए। फिर उन्होंने धीरे से कहा कि मैं तो उस महिला को उस पार छोड़ आया।
तुम अब तक उसे ढो रहे हो। तुम अब तक उसे मन की पीठ पर सवार किए बैठे हो, इसीलिए दुखी हो। मुझे देखो, मैंने उसे वहीं छोड़ दिया, इसलिए मुझे उसकी याद भी नहीं। क्योंकि मैं उसे अपनी पीठ से उतार आया हूँ, इसलिए मेरे मन पर कोई बोझ नहीं।
“तुम भी खुश रह सकते हो, अगर मन की पीठ पर कोई बोझ लाद कर न चलो तो।”
शिष्य सच समझ गया। वो उठा और गुरु के चरणों पर बैठ गया। मैं गलत समझ रहा था गुरुदेव। कई बार हम अपनी समझ और शंका के बोझ तले खुद को इस कदर दबा लेते हैं कि हम सामने वाले के भाव को समझ ही नहीं पाते। जब हम सामने वाले को समझ नहीं पाते, तो हम उसके विषय में गलत अनुमान लगा लेते हैं। और यही दुख की वजह होती है।”
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मेरा मित्र कुर्सी से उठा और उसने अपनी पत्नी को गले से लगा लिया। मैं हतप्रभ बैठा देख रहा था। ये क्या हुआ?
कुछ देर बाद मेरे मित्र ने मुझसे शुक्रिया कहा और मैंने देखा कि दोनों की आँखें नम थीं। दोनों चुप थे, पर आँखों से उदासी की बर्फ पिघल चुकी थी।
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अगली सुबह मेरे मित्र ने बताया कि उसकी पत्नी का कोई पुराना परिचित दो दिन पहले घर आया था। पत्नी ने उसकी बहुत आवभगत की। पर मेरे मित्र को उसका ऐसा करना पता नहीं क्यों खटक गया। वो मन में कई कहानियाँ गुन बैठा। पत्नी तो दूसरे दिन परिचित को स्टेशन तक छोड़ आयी थी, पर मेरा मित्र उसे पकड़े रहा।
दोनों में इस बात पर काफी कहासुनी हुई।
अजीब विडंबना थी। एक ने छोड़ दिया था, दूसरे ने पकड़ लिया था।
रिश्ते ऐसे नहीं चलते। रिश्तें तभी चलते हैं, जब दोनों छोड़ना जानते हों। रिश्ता चाहे दोस्ती का हो, पति-पत्नी का हो या फिर साधु-चेले का।
(देश मंथन, 03 दिसंबर 2015)