रिश्तों का पाठ

0
297

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बचपन में मुझे चिट्ठियों को जमा करने का बहुत शौक था। हालाँकि इस शौक की शुरुआत डाक टिकट जमा करने से हुई थी। लेकिन जल्द ही मुझे लगने लगा कि मुझे लिफाफा और उसके भीतर के पत्र को भी सहेज कर रखना चाहिए। इसी क्रम में मुझे माँ की आलमारी में रखी उनके पिता की लिखी चिट्ठी मिल गयी थी। मैंने माँ से पूछ कर वो चिट्ठी अपने पास रख ली थी। बहुत छोटा था, तब तो चिट्ठी को पढ़ कर भी उसका अर्थ नहीं पढ़ पाया था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया बात मेरी समझ में आती चली गयी। 

आज ज्यादा इधर-उधर की बात करने की जगह सीधे-सीधे उस पत्र को यहाँ लिख देता हूँ। यह पत्र एक पिता का अपनी उस पुत्री के नाम था, जो शादी के बाद अपने ससुराल गयी थी।

“प्रिय विद्या, 

मैंने आजतक तुम्हें कभी पत्र नहीं लिखा। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन आज तुम एक नए संसार में प्रवेश कर गयी हो। मुझे उम्मीद है कि तुम्हारी माँ ने तुम्हें यह समझाया होगा कि शादी के बाद कैसे तुम्हारे पति का घर ही तुम्हारा संसार है। तुम्हारी माँ एक कुशल गृहणी है, जब वो जमींदार परिवार से ब्याह कर एक स्कूल शिक्षक के घर आयी थी, तो मेरे मन में बहुत दुविधा थी कि वह यहाँ खुद को किस तरह ढाल पाएगी। लेकिन मैंने देखा कि उसने बहुत कम समय में मेरी माँ का न सिर्फ भरोसा बल्कि दिल भी जीत लिया। पिता की लाडली बनने में तो उसे जरा भी वक्त नहीं लगा। मैंने एक दफा उससे पूछा भी था कि तुम्हें कभी नये घर, नये लोगों के बीच परेशानी महसूस नहीं होती? इस पर उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था कि यही तो मेरी माँ की शिक्षा थी, जिसका मैंने पालन किया। माँ ने मुझे बचपन में सिखाया था कि किसी नये घर में खुद को कैसे समाहित करना पड़ता है। माँ ने मुझे ठीक से बताया था कि मेरे पति की माँ मेरे रक्त की माँ नहीं होंगी, वो मेरी धर्म की माँ होंगी। जहाँ धर्म शब्द जुड़ जाता है, वहाँ जिम्मेदारी बढ़ जाती है। माँ ने मुझे शादी से पहले पहला पाठ ही यह समझाया था कि लड़कियों को दो जीवन जीने पड़ते हैं। एक शादी से पहले, दूसरा शादी के बाद। यह सही है या गलत है, इसपर विवाद नहीं, यह समाज की व्यवस्था है। 

मेरी प्यारी बेटी, आज मैं तुम्हें वही पाठ फिर से याद दिलाना चाहता हूँ। मैंने अपनी ओर से बहुत देखभाल कर तुम्हारे लिए उचित जीवन साथी की तलाश की है। पर उस उस जीवन साथी के साथ उसका घर भी तुम्हारे लिए और उसके लिए स्वर्ग बन जाए, इसके लिए तुम्हें शुरुआत करनी होगी। मैं दुहरा रहा हूँ, तुम्हारे जीवन साथी की माँ तुम्हारी धर्म माँ है। धर्म का पालन तुमने ठीक से किया, तो कोई संदेह नहीं कि तुम्हें प्यार और भरोसा नहीं मिलेगा। 

मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारी माँ ने धर्म माँ के विषय में तुम्हें जरूर समझाया होगा। 

आज मैं इस विषय में कुछ भी नया नहीं कहने जा रहा। मैं सिर्फ तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि वो धर्म माँ, तुम्हारी कर्तव्य माँ भी है। तुम्हारा रिश्ता उनके साथ कर्तव्य का भी होगा। तुम अपनी ओर से अगर उस रिश्ते का निर्वाह करोगी, तो मेरा यकीन करो, तुम्हें कभी उस घर में तकलीफ नहीं होगी।

कई लोग कहते हैं कि लड़कों को इस बात का प्रशिक्षण नहीं मिलता कि घर आने वाली उसकी जीवन संगिनी के साथ उसे किस तरह तालमेल बिठाना है, पर मैं कहता हूँ कि लड़कियों को भी इस बात का प्रशिक्षण नहीं मिलता कि नये घर में वो खुद को किस तरह समाहित करे। 

जैसे-जैसे हमारे देश में शिक्षा का बाजारीकरण हुआ, शिक्षा रोजगार से जुड़ने लगी, हम अपने बच्चों को किताबें तो पढ़ाने लगे, लेकिन जीवन, रिश्ते, मान, मर्यादा, वाणी, संयम, संतोष और चिंतन का पाठ पढ़ाना भूलने लगे। हमने बच्चों को अंग्रेजी के 26 अक्षरों का ज्ञान तो करा दिया, लेकिन जीवन जीने और जीवन का आनंद उठाने का पाठ नहीं पढ़ाया। पर बेटी, मुझे उम्मीद है कि मैंने और तुम्हारी माँ ने तुम्हें रिश्तों का पूरा पाठ तुम्हारे लालन-पालन के दौरान ही तुम्हें समझाया है। तुम मेरी बेटी हो। बेटियाँ बाप का मान होती हैं, उनकी नैतिकता होती हैं। तुम अपना और मेरा दोनों का मान रखोगी।

मेरा यकीन करना, पूजने से पत्थर भी भगवान बन जाता है।

इससे ज्यादा एक पिता अपनी बेटी को क्या लिख सकता है। तुम चली गयी, सारा घर सूना-सूना है। तुम थी, तो सारा घर रौशन था। लेकिन मुझे यकीन है कि मेरी बेटी किसी और के घर की रोशनी बन रही होगी। अब कुछ दिनों बाद तुम्हारे भाई की शादी हो जाएगी, फिर एक नयी बेटी हमारे घर आएगी, हमारा घर रौशन करने। 

यही संसार है। यही संसार की रीत है। 

अपना ख्याल रखना, सबका ख्याल रखना।

बाबूजी।”

***

माँ को रिश्तों का पाठ पढ़ाने वाले मेरे नाना की यह चिट्ठी आज भी मेरे पास सुरक्षित पड़ी हुई है। 

मेरी शादी हुई तो मेरी पत्नी की सास नहीं थी। लेकिन ससुर थे। मैंने अपनी पत्नी को बहुत संक्षेप में नाना के पत्र के बारे में बता दिया था कि मेरे पिता तुम्हारे रक्त के पिता नहीं हैं, लेकिन वो तुम्हारे कर्तव्य के पिता हैं। तुम कभी अपने कर्तव्य से विमुख मत होना। तुम अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से करोगी, तो उसका प्रतिफल भी तुम्हें उतनी ही ईमानदारी से मिलेगा। 

हुआ भी यही। 

दरअसल अब हम अपने बच्चों को जीवन जीने का पाठ पढ़ाते ही नहीं। हम सिर्फ पैसे कमाने का पाठ पढ़ाते हैं। उसकी कामयाबी और नाकामी पैसों से जोड़ कर देखने लगे हैं। अब मैं कैसे समझाऊँ कि सचमुच मकान ऊँचा होने से इंसान ऊँचा नहीं होता। इंसानियत की ऊंचाई के पैमाने कुछ और होते हैं।  

(देश मंथन, 07 सितंबर 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें